फ्रांस के संसदीय चुनावों में धुर दक्षिणपंथी पार्टी नेशनल रैली सत्ता में नहीं आ सकी। पहले चरण में नेशनल रैली को सफलता मिली थी। मगर जब दूसरे चरण के मतदान की बारी आई तो लोगों का रुख़ अलग दिखा। ऐसा राष्ट्रपति चुनाव में भी हुआ था।
नेशनल रैली के नेतृत्व वाला गठबंधन को तीसरे नंबर पर है और 150 सीटें मिलती दिख रही हैं जबकि एक हफ़्ते पहले 300 सीटों का अनुमान लगाया जा रहा था। हालांकि एक पार्टी के रूप में 'नेशनल रैली' चुनाव में पहले नंबर पर है।
ऐसा दो कारणों से हुआ। पहला- मतदाताओं का बड़ी संख्या में वोट डालना, दूसरा- नेशनल रैली को रोकने के लिए दूसरी पार्टियों का गठबंधन। इन चुनावी नतीजों से फ़्रांस में क्या बदलेगा और कैसे इस देश की राजनीतिक व्यवस्था बदलती नज़र आ रही है?
फ़्रांस की राजनीतिक व्यवस्था ही बदल गई
दक्षिणपंथी नेता मरीन ले पेन का कहना है, ''वामपंथी दलों ने अचानक से अपने सारे मतभेद भुलाकर एक नया एंटी-नेशनल रैली गठबंधन बना लिया। मैक्रों समर्थक और वामपंथी भी अपने बीच के मतभेद भूल गए।''
इस दक्षिणपंथी दल का मानना है कि इन नेताओं को नेशनल रैली के विरोध के अलावा कोई दूसरी चीज़ एकजुट नहीं करती है। ऐसे में भविष्य में आने वाली असहमतियों से दिक़्क़त हो सकती है।
इन सब तर्कों के बावजूद तथ्य साफ़ दिख रहा है। ज़्यादातर लोग अति-दक्षिणपंथ को पसंद नहीं करते। इसकी दो वजहें हो सकती हैं। पहला- दक्षिणपंथियों के विचार पसंद ना होना। दूसरा- धुर दक्षिणपंथियों के सत्ता में आने से अशांति फैलने का डर। ऐसे में अगर नेशनल रैली पार्टी के नेता जॉर्डन बार्डेला देश के अगले प्रधानमंत्री नहीं होंगे तो कौन होगा?
फ़्रांस के अगले पीएम के नाम से जुड़े सवाल का जवाब ढूंढने में अभी वक़्त लगेगा। फ़्रांस के पिछले संसदीय चुनाव से उलट इसका जवाब जानने में कई हफ़्ते लग सकते हैं। बीते हफ़्तों में ऐसा कुछ हुआ है, जिसने फ़्रांस की राजनीतिक व्यवस्था को ही बदल दिया है।
कई दशकों से फ़्रांस की राजनीति पर नज़र रखते आ रहे राजनीतिक विश्लेषक अलन डूआमेल कहते हैं, ''आज किसी भी पार्टी का दबदबा नहीं है। सात साल पहले जब मैक्रों सत्ता में आए, तब से हम राजनीतिक ताक़तों के बिखराव के दौर से गुज़र रहे हैं। शायद अब हम पुनर्निर्माण का दौर शुरू करने जा रहे हैं।''
अलन डूआमेल का मतलब ये है कि अब फ़्रांस में कई राजनीतिक ताक़तें हैं, तीन बड़े पक्ष हैं।
वामपंथी
अति-दक्षिणपंथी
मध्यमार्गी
इसके साथ ही मध्य-दक्षिणपंथी। इन पक्षों के भीतर भी अलग-अलग प्रतिस्पर्धाएं और पार्टियां हैं।
अब जब कोई भी पार्टी बहुमत में नहीं है। इस वजह से नया गठबंधन बनाने के लिए लंबे समय तक मध्य-दक्षिणपंथी पार्टियों से लेकर वामपंथी पार्टियों के बीच सौदेबाज़ी चल सकती है।
ये साफ़ नहीं है कि नए गठबंधन का गठन कैसे होगा। लेकिन हम ये शर्तिया कह सकते हैं कि पिछले हफ़्ते जिस तरह से अशांति और तनाव दिखा, उसके बाद राष्ट्रपति मैक्रों कुछ वक़्त चाहेंगे। इस अवधि में वो सुलह-समझौते को महत्व देंगे।
ये अवधि पेरिस में होने वाले ओलंपिक और गर्मी की छुट्टियों तक चलेगी ताकि फ़्रांस के लोगों को सियासी तनाव भूलने का वक़्त मिले और दोबारा से शांति-सौहार्द स्थापित किया जा सके।
राष्ट्रपति मैक्रों का क्या होगा?
इस बीच मैक्रों बातचीत का नेतृत्व करने और अलग-अलग दलों से संपर्क करने के लिए किसी को नामित करेंगे। क्या ये कोई वामपंथी पार्टी से होगा या दक्षिणपंथी पार्टी से? या ये कोई राजनीति से बाहर का व्यक्ति होगा? हम नहीं जानते।
हालांकि ये साफ़ है कि फ़्रांस अब अधिक संसदीय प्रणाली में प्रवेश करने वाला है। अगर मैक्रों किसी मध्यमार्गी को प्रधानमंत्री पद पर बैठाने में सफल हो जाते हैं (वामपंथी पार्टियों की ताक़त को देखकर ऐसा लगता तो नहीं है) तो वो व्यक्ति अपने अधिकार का इस्तेमाल करेगा और संसदीय समर्थन के आधार पर सत्ता चलाएगा।
मैक्रों के साल 2027 के चुनाव में फिर से लड़ने की कोई संभावना नहीं है। वो एक कमज़ोर शख़्सियत बन जाएंगे। तो क्या राष्ट्रपति मैक्रों अपनी शर्त हार गए हैं? क्या उन्हें चुनाव कराने में की गई जल्दबाज़ी पर पछतावा हो रहा है? क्या वो पीछे हटने को तैयार हैं?
मैक्रों इन सब चीज़ों को ऐसे नहीं देखते हैं। वो कहेंगे कि उन्होंने चुनाव इसलिए पहले कराया क्योंकि स्थिति बर्दाश्त के बाहर थी और वो नेशनल रैली को असेंबली में हिस्सा देना चाहते थे। ज़ाहिर है कि नेशनल रैली के पास व्यापक समर्थन था।
आख़िर में उनका ये दांव कि फ़्रांस कभी भी अति-दक्षिपंथियों को सत्ता में नहीं लाएगा, सही था। इस बीच असल बात ये है कि मैक्रों कहीं नहीं जा रहे हैं।
मैक्रों की शक्ति भले ही कम हो रही है, लेकिन वो जमे हुए हैं और अपनी टीम के साथ सलाह कर रहे हैं, नेताओं को प्रेरित कर रहे है। मैक्रों अब भी फ़्रांसीसी सियासत में दमखम रखते हैं।