सुबह के चार बज रहे थे। दिन चढ़ने से पहले अंधेरा और गहरा हो गया था। मेरे हाथों में लाल चूढ़ा था। जिन दिनों में नव-विवाहिता को कोई चूल्हा-चौका नहीं करने देता, उन दिनों में मैं अपने पति हरमन के साथ ऑस्ट्रेलिया में एक फार्म हाउस में मज़दूरी का काम मांगने के लिए खड़ी थी।
हमारा एक रिश्तेदार काम पर जाते हुए हमें मेलबर्न से बाहर के फार्मों के सामने छोड़ गया था। दो घंटे तक हम सूरज निकलने का इंतज़ार करते रहे। दिन के चढ़ने के साथ ही हम एक फार्म से दूसरे तक काम मांगने के लिए जाते रहे। लेकिन छह घंटे भूखे पेट संघर्ष करने के बावजूद किसी ने हमें काम नहीं दिया।
आख़िर में थक हार कर हमने वापस लौटने का फ़ैसला किया। हमें नहीं पता था कि घर वापस कैसे जाना है। रेलवे स्टेशन कहां हैं? ना हमारे पास टिकट के पैसे थे और ना ही हमें रास्ता पता था। हम अंदाज़े से हाइवे पर पैदल चलने लगे। हालांकि यहां हाइवे पर कोई पैदल नहीं चलता। कार से जा रही एक गोरी ने हाइवे पर हमें पैदल जाते हुए देखा। आधे घंटे बाद अपना काम करके जब वो वापस लौटी तब भी हम हाइवे पर ही थे, उसने ये देखकर गाड़ी रोक ली।
यूं हीबीत गई जवानी
उस गोरी ने कार रोकी और हमसे पैदल चलने का कारण पूछा। हमारी व्यथा सुनकर उसने हमें लिफ़्ट दी और घर पहुंचाया। पंजाब के दोआबा क्षेत्र से सबसे ज़्यादा लोग विदेशों में बसने जाते हैं। यहां के होशियारपुर और नवां शहर से हम 2009 में ऑस्ट्रेलिया गए थे।
मैं एक बड़े ज़मींदार परिवार की बेटी हूं, हरमन भी अच्छे परिवार का लड़का है। हम दोनों विदेशों में बसे अपने रिश्तेदारों की तरह ही विदेश जाने के लिए क्रेज़ी थे। हरमन का इंग्लैंड जाने के लिए लगाया वीज़ा तीन बार रद्द हो चुका था।
उसके पास विदेश जाने का एक तरीका ये था कि उसकी शादी एक ऐसी लड़की से हो जाए जो आइलेट्स पास करके स्टडी वीज़ा पर विदेश जाए और वो उसका पति होने के नाते वो उस लड़की के साथ चला जाए। हरमान के जीजा एक दिन मेरे पापा से एक कॉमन दोस्त की दुकान पर मिल गए।
आइलेट्स पास होने की वजह से हुआ रिश्ता
उन्होंने मेरे पापा को बताया कि वे अपने साले के लिए एक आइलेट्स पास लड़की की तलाश कर रहे हैं। तभी पापा ने उन्हें बताया कि मैंने अभी-अभी आइलेट्स पास किया है। बस फिर क्या था! विदेश जाने की बात पर मेरा और हरमन का रिश्ता तय हो गया। तब मैं 18 साल की नहीं हुई थी। इसलिए 14 फरवरी 2009 को जैसे ही मैं 18 बरस की हुई उसी महीने मेरी और हरमन की शादी करा दी गई।
(मनजीत कौर और हरमन ऑस्ट्रेलिया में रहते हैं। आइलेट्स ही दोनों के रिश्ते का आधार बना। पिछले 9 साल से उनके साथ क्या कुछ हुआ, उसकी कहानी इस रिपोर्ट के ज़रिए सामने रखी गई है। मनजीत कौर ने अपनी आपबीती बीबीसी पत्रकार खुशहाल लाली को सुनाई। पहचान छिपाने के लिए लड़की और लड़के का नाम बदल दिया गया है।)
दहेज मांगने के बजाए 8 लाख का ख़र्च उठाया
हरमन के परिवार वालों ने ना हमसे दहेज लिया और ना ही कोई मांग पूरी करवाई। उलटा मेरी पढ़ाई और दोनों के ऑस्ट्रेलिया जाने का ख़र्चा उठाते हुए आठ लाख रुपए दिए। ऑस्ट्रेलिया आकर पिछले नौ सालों में हम दोनों ने लाखों डॉलर कमाए लेकिन जितना पैसा कमाया उतना ही ख़र्च भी कर दिया।
हम दोनों ने दिन-रात एक करके मेहनत मज़दूरी की लेकिन आज भी हमारे पास कुछ नहीं है। जब हम ऑस्ट्रेलिया आए थे तो नए मुल्क में आकर हमें अपने सपने साकार होने की उम्मीद थी। ये सपने इतने दुख और मेहनत से पूरे होंगे, इसका अंदाज़ा नहीं था।
नौ सालों में छह बार आइलेट्स का एक्ज़ाम
नौ साल बाद भी हमें पर्मानेंट रेसिडेंशिप नहीं मिल सका। क्योंकि इमिग्रेशन के क़ानून बदलने की वजह से मेरे आइलेट्स के बैंड नहीं आ सके थे। मैंने नौ सालों में छह बार आइलेट्स का पेपर दिया। तीन बार भारत मैं सिर्फ़ ये पेपर देने गई।
आप सोच नहीं सकते कि जब आपकी ज़िंदगी आइलेट्स के बैंड पर ही निर्भर करती हो तब उसे हासिल करने के लिए एक विदेश आई लड़की पर कितना दबाव होता है। मुझ पर भी मेरे पति हरमन का बहुत दबाव था पर वो मेरा हौसला भी बढ़ाते थे।
मुझे उसकी हालत पर कई बार तरस आता है। वो अच्छे घर का लड़का है लेकिन यहां आकर 50 डॉलर दिहाड़ी कमाने के लिए उसे कारें धोने की 12 घंटे की शिफ़्ट करनी पड़ी। उसकी मज़बूरी का फ़ायदा कार वाशिंग सेंटर के भारतीय मालिक ने उठाया और पैसे देने में आनाकानी करता रहा।
आप सोचो कि मैं भी खाते-पीते ज़मींदार परिवार की बेटी हूं, लेकिन यहां आकर जब काम नहीं मिला तब एक दिन किसी के घर सफ़ाई का काम होने का कॉल मेरे पास आया। वो पहला काम मिलने पर मुझे कितनी खुशी हुई थी। जब हम ऑस्ट्रेलिया आए थे तो हमें पता नहीं था कि किस तरह के कोर्स से पीआर (पर्मानेंट रेसिडेंशिप) जल्दी मिल जाता है।
ना काम मिल रहा था ना किसी की मदद
जिन रिश्तेदारों के दम पर हमारे परिवार वालों ने हमें भेजा था, उन्होंने एक महीने बाद ही हमसे मुंह मोड़ लिया था। वो ऑस्ट्रेलिया से हमारे परिवार को फ़ोन कर शिकायतें लगाते और हम पर मानसिक दबाव डलवा देते।
हम पंजाब से आ तो गए थे लेकिन ना हमें काम मिल रहा था और ना कोई हमारी मदद कर रहा था। घर वालों से ख़र्च के लिए दो बाद दो-दो हज़ार डॉलर मंगवाने पड़े। जितना मर्ज़ी कमाते रहो, लेकिन जब तक आप पक्के नहीं हो जाते तबतक सारी कमाई कागज़ी काम पूरे करने में ही लग जाती है।
वीज़ा की मियाद बढ़ावाने के लिए हमने बार-बार पढ़ाई की और कोर्स में दाख़िले लिए। एक बार वीज़ा की मियाद बढ़वाने के लिए 12 हज़ार डॉलर का ख़र्च आता है। तीन बार वीज़ा बढ़वाने के लिए ख़र्च की गई ये रकम 18 लाख रुपए बनती है।
36 लाख रुपए ऐसे ही गवां दिए
इतने ही पैसे अलग-अलग कोर्सों में दाख़िला लेने के लिए देने पड़े। आइलेट्स पास ना होने और पीआर ना मिलने के कारण हमे 36 लाख रुपए ऐसे ही गवांने पड़े। अब फिर वीज़ा खत्म होने वाला है। लेकिन अब मेरे आइलेट्स के 6.5 बैंड आ गए हैं और हम इसे महीने पीआर के लिए अर्ज़ी लगा रहे हैं।
ये हालत अकेले मेरी नहीं है, मैंने बहुत से लड़के-लड़कियों को अपने जैसे हालातों से दो-चार होते हुए देखा है। पिछली बार जब मैं चंड़ीगढ़ आइलेट्स का पेपर देने गई थी तब वहां एक लड़की मिली, जो पांचवीं बार आइलेट्स का पेपर देने आई थी। उसकी आंखों और होठों पर चोट के निशान थे। मुझे वो निशान उसपर परीक्षा पास करने के लिए डाले जा रहे दबाव के लग रहे थे।
एक जैसे हालातों वाला इंसान ही अपने जैसे दूसरे इंसान को समझ सकता है। भले ही ज़िंदगी कुछ ट्रैक पर आई है, लेकिन कभी-कभी मैं सोचती हूं कि ज़िंदगी बैंडों में ही उलझ कर रह गई है।
बैंड की आफ़त
नौकरी करो, कॉलेज जाओ, घर संभालों, बच्चे की देख-भाल करो और ऊपर से बैंड की आफ़त। आइलेट्स के आधार शादी करके विदेश आईं ज्यादातर लड़कियों की यही कहानी है और पत्नियों को पढ़ाई करवाने वाले ज़्यादातर पतियों की भी। अपना मुल्क ही अच्छा है। अगर किसी को बताओ कि विदेशों में ज़िंदगी कितनी मुश्किल है तो सामने वाले को लगता है कि ख़ुद तो शानदार ज़िंदगी बिता रहे हैं, लेकिन हमें आने के लिए रोक रहे हैं। इसलिए किसी को सलाह देना भी मुश्किल काम है।
क्या है आइलेट्स?
इंटरनेशनल इंग्लिश लैंग्वेज टेस्टिंग सिस्टम (IELTS) एक तरह की परीक्षा है जिसके ज़रिए अंग्रेज़ी भाषा में किसी की महारत परखी जाती है। जिन मुल्कों में अंग्रेज़ी संचार का मुख्य माध्यम है वहां बाहर से आने वाले लोगों के लिए अंग्रेजी भाषा में जानकारी का पैमाना इसी से मापा जाता है।
ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा और दूसरें मुल्कों में पढ़ाई या काम करने को लेकर आइलेट्स में बैंड सिस्टम अपनाया जाता है।