पीएनबी स्कैम: तो इस तरह अंजाम दिया गया घोटाला

शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2018 (11:20 IST)
- आर के बक्शी (बैंक ऑफ़ बड़ौदा के रिटायर्ड कार्यकारी निदेशक)
 
पंजाब नेशनल बैंक ने इसी सप्ताह बुधवार को कहा है कि बैंक की मुंबई स्थित ब्रीच कैंडी ब्रांच में 11,360 करोड़ रुपये का घोटाला हुआ है। भारत के सबसे बड़े बैंकों में से एक पंजाब नैशनल बैंक ने इस मामले में संलिप्त लोगों के नाम सार्वजनिक नहीं किए हैं।
 
लेकिन बैंक ने इस बात को स्वीकार किया कि "इसमें बैंक के कर्मचारी और खाताधारकों की मिलीभगत है।" इस मामले में बैंक के एमडी सुनील मेहता ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, "घोटाला 2011 से ही चल रहा था। लेकिन इसी साल 3 जनवरी को ये उजागर हुआ। संबंधित एजेंसियों को इसकी जानकारी दी गई।"
 
ये घोटाला 2011 से 2018 तक चलता रहा और इन सात सालों में करोड़ों रुपयों का ट्रांज़ैक्शन हो गया। इसमें जाने माने हीरा व्यापारी नीरव मोदी का नाम सामने आ रहा है। कांग्रेस ने भी सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से पूछा, "हर ऑडिटर और हर जांचकर्ता की आंख की नीचे से हज़ारों करोड़ रुपये का बैंकिंग घोटाला कैसे छूट गया। क्या ये नहीं दिखाता कि कोई बड़ा आदमी इस घोटाले को संरक्षण दे रहा था।"
 
इस सवाल का जवाब पाने के लिए बीबीसी संवाददाता मोहनलाल शर्मा ने बात की बैंक ऑफ़ बड़ौदा के रिटायर्ड कार्यकारी अधिकारी आरके बक्शी से और उनके पूछा कि आख़िर कैसे इस घोटाले को अंजाम दिया गया।
 
आरके बक्शी का नज़रिया
पीएनबी का जो घोटाला हुआ है उसमें जो आधारभूत चीज़ है वो है लेटर ऑफ़ अंडरटेकिंग (एलओयू) है जो कि बैंकों में प्रचलित है और आम तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। हिंदुस्तान में जो देश के बाहर से सामान आयात करता है उसे देश के बाहर जो निर्यातकर्ता है उसको पैसे चुकाने होते हैं।
 
इसके लिए अगर आयातकर्ता के पास पैसे नहीं हैं या किसी और कारण से वो क्रेडिट पीरियड या उधार के समय का लाभ उठाना चाहता है तो बैंक आयातकर्ता के लिए विदेश में मौजूद किसी बैंक को लेटर ऑफ़ अंडरटेकिंग दे देता है। इसमें लिखा होता है कि आप फलां निर्यातकर्ता को फलां काम के लिए किए गए आयात के लिए एक निश्चित पेमेंट कर दीजिए।
 
व्यवसायी के लिए बैंक वायदा करता है कि वो एक साल बाद (निश्चित तारीख को) ब्याज के साथ उस बैंक के दिए गए पैसे चुका देगा। इसमें कुछ नया नहीं है। आम तौर पर बैंकों में ऐसा होता है। इसी के आधार पर बैंकों का बॉयर्स क्रेडिट का काम करता है जो बैंकों के लिए बेहद अहम होता है।
 
अगर पीएनबी ने विदेश के बैंक को एलओयू दिया है तो वो विदेशी बैंक पीएनबी की गारंटी के ऊपर उस निर्यातकर्ता को जितने पैसे की पेमेंट के बारे में कहा गया है वो कर देता है। एक साल बाद जो आयातकर्ता है वो पीएनबी को पेमेंट देगा और फिर पीएनबी आगे विदेशी बैंक को ब्याज समेत उनका पैसा लौटा देगा।
 
इस मामले में क्या हुआ?
इस मामले में बैंक ने एलओयू जारी नहीं किए बल्कि बैंक के दो कर्मचारियों ने चोरी से फर्जी एलओयू बनाकर दिए। इन कर्मचारियों के पास एक स्विफ्ट सिस्टम का कंट्रोल था जो कि एक अंतरराष्ट्रीय कम्यूनिकेशन सिस्टम है और दुनिया भर के सभी बैंकों को आपस में जोड़ता है।
 
इस स्विफ्ट सिस्टम से जो संदेश जाते हैं वो उत्कृष्ठ तकनीकी का इस्तेमाल करते हुए कोड में भेजे जाते हैं। एलओयू भेजना, खोलना, उसमें बदलाव करने का काम इसी सिस्टम के ज़रिए किया जाता है। इसी कारण से जब इस सिस्टम के ज़रिए ये संदेश किसी बैंक को मिलता है तो उन बैंक को पता होता है कि ये आधिकारिक संदेश है और सही संदेश है। वो इस पर शक़ नहीं करता।
 
लेकिन किसी सिस्टम को संभालने वाले आख़िर कोई व्यक्ति ही रहेंगे। पीएनबी में इस काम को करने वाले दो लोग थे- एक क्लर्क जो इसमें डेटा डालता था और दूसरा अधिकारी जो इस जानकारी की आधिकारिक पुष्टि करता था। ऐसा लगता है कि शायद ये दो लोग पांच-छह साल तक इसी डेस्क पर काम कर रहे थे जो कि नहीं होना चाहिए था। इस पद पर काम करने वालों की अदला-बदली होते रहनी चाहिए।
 
उनको कोई लालच हो गया होगा जिस कारण उन्होंने नीरव मोदी के कहने पर या उनकी कंपनी के कहने पर या फिर उनके लुभावने वादे में आ कर यहां से फर्जी एलओयू जारी कर दिया। इसका मतलब वो स्विफ्ट के ज़रिए गया और वो सही दस्तावेज़ है। लेकिन असल में उसके पीछे बैंक का कोई दस्तावेज़ नहीं था।
 
यानी इसके साथ बैंक ने उस व्यापारी को कोई लिमिट नहीं दी है, ब्रांच मैनेजर ने स्विफ्ट सिस्टम से इसे भेजने वाले को कोई कागज़ हस्ताक्षर कर के नहीं दिया कि इसे आगे भेजा जाए। उन्होंने चुपचाप एलओयू भेज दिया।
 
एक और कमी
पीएनबी में जो एक और कमी हुई वो ये कि ये संदेश जो भेजा गया है वो पुख्ता नहीं दिखता यानी स्विफ्ट सिस्टम कोर बैंकिंग से जुड़ा नहीं लगता। कोर बैंकिंग में पहले एलओयू बनाया जाता है और फिर वो स्विफ्ट के मैसेज से चला जाता है। और इस कारण कोर बैंकिंग में एक कॉन्ट्रा एंट्री बन जाती है कि अमुक दिन बैंक ने अमुक राशि का कर्ज़ देने को मंजूरी दी है।
 
तो अगले दिन जब बैंक का मैनेजर अपनी फाइलें यानी बैलेंस शीट देखता तो उसे पता चल जाता है कि बैंक ने बीते दिन कितने के कर्ज़े की मंज़ूरी दी है। लेकिन इस मामले में स्विफ्ट कोर बैंकिंग से जुड़ा हुआ नहीं था। इन दोनों ने फर्जी मैसेज को स्विफ्ट से भेजा, मैसेज भी ग़ायब कर दिया और इसकी कोर बैंकिंग में एंट्री नहीं की तो कुछ पता भी नहीं चला।
 
बैंक का पूरा सिस्टम कैसा बाईपास हो गया?
अगर कोई चोर कोई निशान या सबूत ना छोड़े तो उसे पकड़ना बहुत मुश्किल होता है, ख़ास कर तब जब कोई संदेह भी नहीं कर रहा है। कोई संदेह करे तो इस मामले में जांच की जा सकती है लेकिन ऐसा कुछ हुआ ही नहीं। वो एक बैंक से पैसे लेते रहे और दूसरे को चुकाते रहे।
 
आज पचास मिलियन के एलओयू खोले, जब तक अगले साल इसे चुकाने की बारी आई तो उन्होंने तब तक सौ मिलियन के और करा लिए। अब उन्होंने पहले लिए गए पचास मिलियन चुका दिए और अगला कर्ज़ किसी और बैंक से खड़ा हो गया। इस प्रकार से ये लेनदेन महीनों तक चलता रहा। इसी कारण कर्ज़ की रकम साल दर साल बढ़ती रही।
 
ऐसा करता बैंक तो पकड़ सकता था घोटाला?
पीएनबी में हर ट्रांज़ैक्शन की एंट्री पूरे बैंक में एक ही जगह थी जो थी स्विफ्ट मैसेज। और ये संदेश तो जा चुका था। लेकिन हर बैंक में हर स्विफ्ट ट्रांज़ेक्शन (जो गए हैं और जो आए हैं) सभी की एक कॉपी फाइल में उससे संबंधित दस्तावेज़ों के साथ रखी जाती है। इसके साथ ही बैंक में दिन में स्विफ्ट से कितने संदेश गए इसका एक लॉग भी रखा जाता होगा। हर सिस्टम इस तरह का लॉग रिपोर्ट बनाता है।
 
शायद पीएनबी के सिस्टम में दो कमियां थीं
पहला ये कोर बैंकिंग के साथ जुड़ा नहीं था। और दूसरा ये कि रोज़ काम ख़त्म होने पर किसी अधिकारी को ये जांच करनी चाहिए कि दिन भर में क्या-क्या ट्रंज़ैक्शन किए गए हैं और आधिकारिक रूप से इसे स्वीकृति मिली थी या नहीं। वो शायद इस मामले में हुआ नहीं।
 
स्विफ्ट सिस्टम कोर बैंकिंग से नहीं जुड़ा था तो कोई बात नहीं। अगर रोज़ाना लॉग की जांच भी हो जाती तो इस घोटाले को पहले ही दिन पकड़ा जा सकता था। और रही दूसरे बैंक की बात जो भारतीय बैंक के संदेश के आधार पर ये पैसे देगा उसके लिए इसमें शक़ करने की कोई बात नहीं है क्योंकि ये मैसेज स्विफ्ट से गया है।
 
विदेशी बैंक, भारतीय बैंक के वायदे के मुताबिक पैसे देगा और फिर पैसों के वापिस पाने के लिए दी गई तारीख़ का इंतज़ार करेगा। वो पैसा आ गया तो कोई बात नहीं लेकिन अगर नहीं आया तो उसी सूरत में वो भारतीय बैंक से संपर्क करेगा। इसका मतलब ये कि इस मामले में कुछ साल तक शायद पैसा चुकाने के लिए जो दिन दिया गया था उस दिन या उसके एक दो दिन पहले की पेमेंट कर देते होंगे। इसीलिए इस घोटाले को पकड़ने की कोई गुंजाइश नहीं रही।
 
पीएनबी पर क्या असर पड़ेगा?
ये तो स्पष्ट है कि ये जो ट्रांज़ैक्शन थे उनके लिए बैंक के पास कोई सिक्योरिटी (बैंक सुरक्षा) नहीं थी क्योंकि इसमें पीएनबी तो शामिल ही नहीं था। ये तो अनाधिकारिक रूप से दो ऐसे लोगों ने किया जिसके हाथों में सबसे संवेदनशील सिस्टम की कुंजी थी।
 
जिन कंपनियों ने ये घोटाला किया है अगर उसकी संपत्ति को हमारी एजेंसियां ज़ब्त कर पाएं और उनसे कुछ उगाही की जा सके तो बस यही पीएनबी को मिलने की उम्मीद है। बताया जा रहा है कि नीरव मोदी ने चिट्ठी दी है और कहा है कि वो पांच-छह हज़ार करोड़ की पेमेंट कर देंगे।
 
लेकिन अगर उनके इरादों में इतनी ईमानदारी होती तो वो ऐसा काम करते ही क्यों। वो साधारण तरीके से भी अपना काम कर सकते थे। ये बड़े व्यवसायी हैं और ग्लोबल सिटिज़न हैं। उनकी संपत्ति पूरे विश्वभर में फैली हुई है। उन्हें ढ़ूढ़ना, ज़ब्त करना और फिर उससे पैसों की उगाही करना बेहद मुश्किल है।
 
अगर कुछ वसूल हो पाया तो बेहतर, जो नहीं मिल पाया बाद में वो एनपीए यानी नॉन परफॉर्मिंग एस्सैट हो जाएगा। सीधे तौर पर कहें तो बैंक का नुक़सान होगा।

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