भविष्य में होने वाले विकास को समझने के लिए हमें अपने अतीत में झांकने की ज़रूरत है। क्या हमारे वंशज किसी काल्पनिक वैज्ञानिक उपन्यास के चरित्रों की तरह उच्च तकनीक से लैस ऐसे मनुष्य होंगे, जिनकी आंखों की जगह कैमरे होंगे, शरीर के अंग खराब हो जाने पर नए अंग अपने आप विकसित हो जाएंगे, आखिर कैसी होंगी हमारी आने वाली पीढियां?
क्या मनुष्य आने वाले समय में जैविक और कृत्रिम प्रजातियों का मिला-जुला रूप होगा? हो सकता है वो अब के मुक़ाबले और नाटा या लंबा हो जाए, पतला या फिर और मोटा हो जाए या फिर शायद उसके चेहरे और त्वचा का रंग-रूप ही बदल जाए?
ज़ाहिर है, इन सवालों का जवाब हम अभी नहीं दे सकते। इसके लिए हमें अतीत में जाना होगा और ये देखना होगा कि लाखों साल पहले मनुष्य कैसा था। शुरुआत करते हैं उस समय से जब होमो सेपियंस थे ही नहीं। लाखों साल पहले शायद मनुष्य की कोई दूसरी ही प्रजाति थी, जो homo erectus और आज के मनुष्य से मिलता-जुलता था।
पिछले दस हज़ार सालों में, कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण बदलाव हुए हैं जिनके मुताबिक इंसान ने अपने आपको ढाला है। खेती पर निर्भर होने और खानपान के विकल्प बढ़ने से कई दिक्कतें भी हुईं जिनको सुलझाने के लिए इंसान को विज्ञान का सहारा लेना पड़ा, जैसे डायबिटीज़ के इलाज के लिए इंसुलिन।
शारीरिक बनावट भी अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग है, कहीं लोग मोटे हैं तो कहीं लंबे। डेनमार्क के आरहुस विश्वविद्यालय के बायोइन्फोर्मेटिक्स विभाग के एसोसिएट प्रोफ़ेसर थॉमस मेयलुंड के मुताबिक अगर इंसान की लंबाई कम होती तो हमारे शरीर को कम ऊर्जा की ज़रूरत पड़ती और यह लगातार बढ़ रही आबादी वाले ग्रह के लिए बिल्कुल सही होता।
तकनीक से दिमाग का विकास
तमाम लोगों के साथ रहना एक अन्य ऐसी परिस्थिति है जिसके मुताबिक इंसान को अपने आपको ढालना होगा। पहले जब हम शिकार पर ही निर्भर थे तो रोज़मर्रा के जीवन में आपसी संवाद बहुत कम हुआ करता था। मेयलुंड का मानना है कि हमें अपने आपको इस तरह से ढालना चाहिए था कि हम इस सब से निपट सकते। जैसे लोगों का नाम याद रखने जैसा अहम काम हम कर सकते।
यहां से शुरु होती है तकनीक की भूमिका। थॉमस का मानना है- "दिमाग में एक इंप्लांट फिट करने से हम लोगों के नाम आसानी से याद रख सकते हैं।"
वो कहते हैं- "हमें पता है कि कौन से जीन्स दिमाग के इस तरह के विकास में कारगर होंगे जिससे हमें अधिक से अधिक लोगों के नाम याद रहें।"
आगे चल कर हम शायद उन जींसों में बदलाव कर सकें। ये एक विज्ञान कथा जैसा लगता है लेकिन ये मुमकिन है। ऐसे इंप्लांट हम लगा सकते हैं लेकिन ये बात ठीक से नहीं जानते कि उसे किस तरह जोड़ा जाए कि उसका ज़्यादा से ज़्यादा इस्तेमाल हो सके। हम उसके करीब तो पहुंच रहे हैं लेकिन अभी इस पर प्रयोग चल रहा है। उनका कहना है- "ये अब जैविक से ज़्यादा तकनीक का मामला है।"
मां-बाप की पसंद के होंगे बच्चे
अब तक हम शरीर के टूटे हुए अंगों को बदल या ठीक कर पा रहे हैं जैसे पेसमेकर लगाना या कूल्हों का बदला जाना। शायद भविष्य में ये सब मनुष्य को बेहतर बनाने में इस्तेमाल हो। इसमें दिमाग का विकास भी शामिल है। हो सकता है हम अपने रंग-रूप या शरीर में तकनीक का ज़्यादा इस्तेमाल करें। जैसे कृत्रिम आंखें जिनमें ऐसा कैमरा फ़िट हो जो अलग-अलग रंगों और चित्रों की अलग-अलग फ्रीक्वेन्सी पकड़ सके।
हम सबने डिज़ाइनर बच्चों के बारे में सुना है। वैज्ञानिकों ने पहले ही ऐसी तकनीक ईज़ाद कर ली है जो भ्रूण के जीन्स को ही बदल दे और किसी को पता भी ना चले कि अब आगे क्या होने वाला है। लेकिन मायलुंड का मानना है कि भविष्य में कुछ जीन्स का ना बदला जाना अनैतिक माना जाएगा। इसके साथ हम चुन पाएंगे कि बच्चा दिखने में कैसा हो, शायद फिर मनुष्य वैसा दिखेगा जैसा उसके माता-पिता उसे देखना चाहते हैं।
मायलुंड का कहना है- "ये अब भी चुनने पर ही निर्भर करेगा लेकिन ये चुनाव अब कृत्रिम होगा। जो हम कुत्तों की प्रजातियों के साथ कर रहे हैं, वही हम इंसानों के साथ करना शुरु कर देंगे।"
जैनेटिक वेरिएशन
ये सब सोचना अभी बहुत काल्पनिक लगता है, लेकिन क्या जनसंख्या के रुझान हमें इस बारे में कुछ संकेत दे सकते हैं कि भविष्य में हम कैसे दिखेंगे?
'ग्रैंड चैलेंजेस इन इको सिस्टम्स एंड दि एनवायरमेंट' के लेक्चरर डॉ जेसन का कहना है- "करोड़ों साल बाद के बारे में भविष्यवाणी करना पूरी तरह काल्पनिक है लेकिन निकट भविष्य के बारे में कहना बायोइन्फोर्मेटिक्स के ज़रिए संभव है।
हमारे पास अब दुनियाभर से मानव के जैनेटिक सैंपल है। जैनेटिक वेरिएशन और जनसंख्या पर उसके असर को अब आनुवांशिकी वैज्ञानिक बेहतर ढंग से समझ पा रहे हैं। अभी हम साफ तौर पर नहीं कह सकते कि जैनेटिक वेरिएशन कैसा होगा लेकिन बायोइन्फॉर्मैटिक्स के जरिए वैज्ञानिक जनसंख्या के रुझानों को देखकर कुछ अंदाज़ा तो लगा ही सकते हैं।
जेसन की भविष्यवाणी है कि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों में असमानता बढ़ती जाएगी। उनका कहना है- "लोग ग्रामीण क्षेत्रों से ही शहरी इलाकों में आते हैं इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों के मुकाबले शहरी इलाकों में जैनेटिक विविधता ज़्यादा देखने को मिलेगी।" उनका यह भी कहना है- "हो सकता है कि लोगों के रहनसहन में भी ये विविधता दिखने लगे।"
ये सब दुनियाभर में एक समान नहीं होगा। उदहारण के तौर पर इंग्लैंड में ग्रामीण इलाकों में शहर के मुकाबले कम विविधता है और शहरों में बाहर से आए लोगों की संख्या ज़्यादा।
दूसरा ग्रह बना ठिकाना तो कैसा होगा इंसान
कुछ समुदायों में प्रजनन दर ज़्यादा है तो कुछ में कम। जैसे अफ्रीका की जनसंख्या तेज़ी से बढ़ रही है तो उनके जीन्स भी विश्व के बाकी समुदायों के मुक़ाबले ज़्यादा तेज़ी से बढेंगे। जिन इलाकों में गोरे लोग रहते हैं वहां प्रजनन दर कम है। यही वजह है कि जेसन ने भविष्यवाणी की है कि विश्वस्तर पर साँवले लोगों की संख्या बढ़ती जाएगी।
उनका कहना है- "ये तय है कि विश्वस्तर गोरे लोगों के मुक़ाबले साँवले लोगों की संख्या में तेज़ी से बढ़ोत्तरी होगी और इंसान की कई पीढियों के बाद का रंग उसकी आज की पीढ़ी से गहरा ही होगा।"
और अंतरिक्ष का क्या होगा? अगर मनुष्य ने मंगल ग्रह पर बस्तियां बना लीं तो हम कैसे दिखेंगे? कम ग्रुत्वाकर्षण के कारण हमारी मांसपेशियों की बनावट बदल जाएगी। शायद हमारे हाथ-पैर और लंबे हो जाएं। हिम युग जैसे ठंडे वातावरण में क्या हमारे शरीर की चर्बी बढ़ जाएगी और क्या हमारे पूर्वजों की तरह हमारे शरीर के बाल ही हमें ठंड से बचाएंगे?
हमें अभी नहीं पता, लेकिन इतना जरूर है कि मनुष्य में आनुवांशिक बदलाव हो रहे हैं। जेसन के मुताबिक हर साल मानव जीनोम के 3.5 बिलियन बेस पेयर में से लगभग दो में बदलाव हो रहा है। ये सच में शानदार है और इस इस बात का सबूत भी कि लाखों-करोड़ों साल बाद इंसान ऐसा नहीं दिखेगा जैसा आज दिखता है।