कर्नाटक के चुनाव में सट्टेबाज़ों ने जब राज्य में स्थिर सरकार देने के लिए बीजेपी पर दांव लगाया था तो उन्हें नुकसान हुआ। लेकिन अब यही सट्टेबाज़ इस बात पर दांव लगा रहे हैं कि कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन कब तक चलेगा। सट्टेबाज़ों के अलावा आम लोग भी इस राजनीति को टकटकी लगाए देख रहे हैं। और ऐसा इसलिए नहीं है कि दोनों दलों ने बीते 33 सालों की राजनीति में सबसे मुश्किल चुनाव लड़ा है। लेकिन ये इसलिए भी है क्योंकि ये चुनावी जंग काफ़ी कड़वाहट से भरी रही है।
हालांकि ये माना जा रहा है कि ये दोनों दल कई वजहों से आपस में गठबंधन बनाने के लिए विवश हुए हैं। पहली बात तो ये है कि जेडीएस बीते 10 सालों से सत्ता से बाहर रही है और उसके सामने अस्तित्व की रक्षा का सवाल है और दोनों दलों के सामने बीजेपी को रोकने की मजबूरी है।
कब तक चलेगा दोनों दलों का साथ?
राजनीतिक विश्लेषक एमके भास्कर राव कहते हैं, "ये साल 2019 के लोकसभा चुनाव तक एक साथ रहेंगे। हालांकि, अभी भी मंत्रालयों के बंटवारे, प्रशासन से जुड़े मामले और कई लोकतांत्रिक संस्थाओं में नामांकन से जुड़े विषय मौजूद हैं।"
वहीं, प्रोफ़ेसर मुज़फ़्फ़र असादी बीबीसी से बातचीत में कहते हैं, "ये एक असहज गठबंधन है। हालांकि इसे नापाक गठबंधन नहीं कहा जा सकता और ये राष्ट्रीय राजनीति में सफल रहने वाले ऐसे ही दूसरे गठबंधनों की तरह चलेगा। ये एक प्रयोग की तरह है और कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए व बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन की तरह चल सकता है।"
राव मानते हैं कि पूर्व प्रधानमंत्री और जेडीएस के मुखिया एचडी देवगौड़ा कांग्रेस पार्टी में प्रदेश स्तर के नेताओं से ऐसे मुद्दों पर बात नहीं करेंगे, वह ऐसे मुद्दों पर सिर्फ़ पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से ही बात करेंगे, राहुल गांधी से भी नहीं।"
सीटों के बंटवारे पर तनाव की आशंका
लेकिन अगले साल चुनाव के वक़्त दोनों सहयोगियों को क़रीब से देखना होगा क्योंकि दोनों पार्टियाँ ज़्यादा से ज़्यादा सीटें जीतना चाहेंगी। हालांकि, ये 1996 के लोकसभा चुनावों की पुनरावृत्ति नहीं होगी जब जेडीएस ने 28 में से 16 सीटें जीतकर कांग्रेस को चौंका दिया था। एक हफ़्ते पहले तक किसी को ये अपेक्षा नहीं थी कि कांग्रेस जेडीएस को समर्थन देगी जबकि जेडीएस ने वोक्कालिगा समुदाय में अपने वोटों को एकजुट करके चामुंडेश्वरी में कांग्रेस के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की हार सुनिश्चित कर दी।
कांग्रेस की इस पहल पर देवगौड़ा और कुमारस्वामी की ओर से तुरंत सकारात्मक प्रतिक्रिया आई। राजनीति के पुराने महारथी देवगौड़ा साल 1991 में चंद्रशेखर जैसी स्थिति का सामना नहीं करना चाहते थे जब कांग्रेस ने उनकी पार्टी को समर्थन दिया था। लेकिन एक दिन जब सादी वर्दी में कुछ पुलिस वालों ने कथित तौर पर राजीव गांधी के घर की बाउंड्री पर ताकझांक की तो कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस ले लिया।
ज़्यादा सीटों के बाद भी कांग्रेस जूनियर पार्टनर
कांग्रेस पार्टी देवगौड़ा का प्रस्ताव मानने के लिए तैयार हो गई और इस गठबंधन में एक जूनियर पार्टनर बनने को भी तैयार हो गई जबकि कांग्रेस के पास 78 और जेडीएस के पास बस 37 सीटें हैं। प्रोफ़ेसर असादी मानते हैं, "इस गठबंधन की उम्र इस बात पर निर्भर करती है कि कांग्रेस कब तक एक बड़ी ताक़त के रूप में वापस आने की स्थिति में नहीं आ जाती है। अगर कांग्रेस ऐसा कर पाती है तो निश्चित ही समस्याएं पैदा होंगी।"
जिस दिन कुमारस्वामी को अपने 117 विधायकों के समर्थन वाला पत्र राज्यपाल वजुभाई वाला को सौंपना था तब एक नव-निर्वाचित जेडीएस विधायक से पूछा गया कि 'क्या उन्होंने अपने पुराने दोस्त सिद्धारमैया से बात की है।'
निजी बातचीत में विधायक ने इस रिपोर्टर से कहा, "नहीं, हमें अब तक इसका अवसर नहीं मिला है। लेकिन अगर ईमानदारी से कहूं तो मुझे नहीं पता कि जब मैं उनसे मिलूंगा तो क्या कहूंगा। ये हमारे राजनीतिक जीवन का कठिन समय है।"
'कठिन राजनीतिक समय'
और ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ कुछ ही विधायक इस असहजता का सामना कर रहे हैं। कांग्रेस के बड़े नेता एचडी देवगौड़ा और सिद्धारमैया ने विधानसभा परिसर में महात्मा गांधी की मूर्ति के सामने हाथ मिलाए। ये साफ़ है कि जब कुमारस्वामी अगले हफ़्ते विश्वास प्रस्ताव जीत लेंगे तो एक तरह की सहजता आ जाएगी।
लेकिन प्रोफ़ेसर असादी इस बात पर नज़र रखे हुए हैं कि क्या दोनों दल "समन्वय समिति बनाएंगे" जिससे आपसी मतभेद दूर किए जाएं और एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम पर सहमति बनाई जा सके। प्रोफ़ेसर असादी मानते हैं कि ऐसी समिति व्यक्तिगत स्तर पर असहजता को कम करेगी।
इस तरह ये इस गठबंधन को हमेशा सचेत रहने में मदद करेगा क्योंकि विधानसभा में विपक्षी दल बीजेपी 104 विधायकों के साथ एक मज़बूत स्थिति में है। शायद यही एक चीज़ इस गठबंधन को बनाए रखेगी क्योंकि उन्हें डर होगा कि "अगर ये गठबंधन टूट गया तो वे भविष्य में कभी सत्ता में नहीं आ पाएंगे।"
ये अहम है क्योंकि ये गठबंधन देश में बीजेपी विरोधी ताक़तों के लिए एक उदाहरण बनेगा जिसके आधार पर अगले साल मोदी-अमित शाह की जोड़ी से टक्कर लेने की तैयारी भी की जाएगी।