कर्नाटक: पीएम मोदी की लोकप्रियता या सीएम सिद्धारमैया की योजनाएं, कौन पड़ेगा भारी?

BBC Hindi
शनिवार, 16 मार्च 2024 (07:30 IST)
इमरान कुरैशी, बेंगलुरु से बीबीसी हिंदी के लिए
जयारामू गायत्री के पति का निधन करीब एक दशक पहले हो गया था। अब वो सिलाई करके गुजारा कर रही हैं। वो बेंगलुरु से क़रीब 100 किलोमीटर दूर मांड्या में रहती हैं।
 
उन्होंने बीबीसी से कहा, "मुझे गृहलक्ष्मी (परिवार की महिला प्रमुख को हर महीने मिलने वाले 2000 रुपये) और अन्न भाग्य (चावल के बदले में मिलने वाला पैसा) लगातार मिल रहा है।"
 
गायत्री बताती हैं कि उन्हें उज्ज्वला योजना का लाभ नहीं मिला। केंद्र सरकार की इस योजना के तहत ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वाले परिवार की महिला को एलपीजी कनेक्शन दिया जाता है। 
 
वो कहती हैं, "सिद्धारमैया ने लोगों के लिए अच्छा काम किया है। लेकिन वो यह नहीं बतातीं कि इसका प्रभाव लोकसभा चुनाव में उनके वोट पर पड़ेगा या नहीं।
 
बासवा, धारवाड़ जिले के नारगुड की रहने वाली हैं। वो किसी काम से मैसूर आई थीं। उन्होंने मुझसे कहा, "मेरे पति सरकारी नौकरी करते हैं, इसलिए मैं गृह लक्ष्मी योजना के योग्य नहीं हूं। लेकिन मैं जहां चाहूं वहां बस से यात्रा कर सकती हूं, क्योंकि सिद्धारमैया ने इसे मुफ्त बना दिया है। हमें अन्न भाग्य योजना का पैसा भी मिल रहा है।"
 
वोट देने को लेकर उन्होंने खुलकर चर्चा की। बासवा ने कहा कि महिलाएं आमतौर पर उसी उम्मीदवार को वोट देती हैं, जिनको उनके परिवार के पुरुष कहते हैं।
 
कुछ इसी तरह की बात एक और महिला ने हमें बताई। मांड्या ज़िले के टुबिनाकेरे गांव के एक तालाब में हमें भाग्यम्मा कपड़े धोते हुए मिलीं। उन्होंने कहा कि वो गृहलक्ष्मी योजना की लाभार्थी थीं। इसके लिए उन्होंने सिद्धारमैया की तारीफ़ की।
 
उन्होंने कहा कि उनका बेटा अब काम करता है, इसलिए वही तय करेगा कि परिवार के लोग किसे वोट देंगे।
 
मतदाताओं की दुविधा
लोकसभा चुनाव 2024 की रूपरेखा जैसे-जैसे तय हो रही है, वैसे-वैसे यह स्पष्ट होता जा रहा है कि कर्नाटक में कांग्रेस सरकार की लोकप्रियता का मुक़ाबला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से है।
 
विशेषज्ञों ने बताया कि सरकार ने जो पांच गारंटियां दी हैं, उनमें से तीन में लाभ सीधे तौर पर महिलाओं को पहुंचता है। ये योजनाएं राज्य में काफी लोकप्रिय हैं।
 
राजनीतिक पंडित इसे ऐसी 'दुविधा' के रूप में देखते हैं, जिसका सामना मतदाता तब करेंगे जब वो आम चुनाव में मतदान के लिए मतदान केंद्र पर जाएंगे।
 
कर्नाटक के मतदाताओं का बदलता व्यवहार
इस भ्रम का एक बुनियादी कारण यह है कि कर्नाटक का मतदाता हमेशा लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव के बीच साफ अंतर रखते हैं। इसका एक बेहतरीन उदाहरण 1984 और 1985 के चुनाव में देखने को मिला था।
 
दिसंबर 1984 में मतदाताओं ने तय किया कि कांग्रेस के राजीव गांधी देश पर शासन करेंगे। इसके ठीक तीन महीने बाद उन्होंने अपनी प्राथमिकता बदलते हुए राज्य पर शासन करने के लिए जनता पार्टी के रामकृष्ण हेगड़े को तरजीह दी। उनके इस फै़सले नेताओं और राजनीतिक पंडितों को हैरान कर दिया था।
 
लोकसभा चुनाव में एक राष्ट्रीय पार्टी और राज्य के चुनाव में एक अलग पार्टी को चुनने का यह मानदंड 1984 और 1985 के बाद के कुछ चुनावों में भी नज़र आया।
 
उदाहरण के लिए 2013 में लोगों ने राज्य में सरकार चलाने के लिए कांग्रेस को चुना। इसके एक साल बाद 2014 में लोगों ने देश पर शासन करने के लिए बीजेपी को चुना। इसके पांच साल बाद लोगों ने राज्य के चुनाव में बीजेपी को बहुमत नहीं दिया। लेकिन 2019 के चुनाव में उन्होंने बीजेपी को चुना।
 
साल 2019 के चुनाव में लोगों ने एक ऐसा रिकॉर्ड बनाया जो इंदिरा गांधी के दिनों की याद दिलाता है, लोगों ने 28 में से 25 सीटों पर बीजेपी के उम्मीदवारों को चुना था। बाकी बची तीन सीटों में से एक कांग्रेस ने, एक जनता दल सेक्युलर ने और एक सीट निर्दलीय ने जीती थी।
 
मई 2023 में हुए विधनसभा चुनाव में कर्नाटक की जनता ने कांग्रेस पार्टी को शानदार जीत दिलाई।
 
ऐसे में सवाल यह है कि क्या इस बार राष्ट्रीय चुनाव होने की वजह से भाजपा शांत बैठी रह सकती है या कांग्रेस पहले की ही तरह लापरवाह बनी रहेगी?
 
यही कारण है कि राजनीतिक पंडित सवाल पूछ रहे हैं कि क्या मतदाता अपनी पसंद को पहले की ही तरह दोहराएंगे या वे कोई नई परंपरा शुरू करेंगे? इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या मतदाता भाजपा को इतनी शानदार जीत देंगे कि वह 2019 की ही तरह अपनी नाक ऊंची कर सके।
 
यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि सभी दक्षिणी राज्यों- आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु और केरल में से कर्नाटक शायद ही एकमात्र ऐसा राज्य है जहां भाजपा लोकसभा चुनाव में सबसे अधिक सीटें जीत सकती है। दक्षिण भारत के राज्यों में लोकसभा की 131 सीटें हैं।
 
बिखरी भाजपा और आक्रामक कांग्रेस
डॉ. संदीप शास्त्री राजनीतिक टिप्पणीकार और शिक्षाविद होने के साथ-साथ एनआईटीटीई एजुकेशन ट्रस्ट के निदेशक भी हैं।
 
उन्होंने बीबीसी से कहा, "कर्नाटक ने हमेशा देश और राज्य के चुनाव के बीच अंतर किया है। लेकिन इस बार अंतर यह है कि आपके पास पहले की तरह एकजुट भाजपा नहीं है। दूसरी तरफ राज्य में आपके पास एक आक्रामक कांग्रेस है। यह देखते हुए कि राज्य में उसकी सरकार है, कांग्रेस का दांव भी अलग है। ऐसे में इस चुनाव में प्रदर्शन करने का दबाव और भी बढ़ जाता है।"
 
यही कारण है कि पिछले चुनावों के वोटिंग पैटर्न के बाद भी इस बार के चुनाव में मुक़ाबला दिलचस्प हो गया है। साल 2019 के चुनाव में जेडीएस कांग्रेस के साथ थी तो इस बार उसने बीजेपी से समझौता किया है।
 
बीजेपी के एक नेता ने नाम सार्वजनिक न करने की शर्त पर बताया, "पार्टी के कुछ कार्यकर्ता जेडीएस के साथ हाथ मिलाने से खुश नहीं हैं। लेकिन इस बारे में ज़्यादा कुछ नहीं किया जा सकता। भाजपा को पुराने मैसूर के इलाक़े में अपनी मौजूदगी दिखाने की ज़रूरत है।"
 
पुराने मैसूर इलाक़े में ऊंची जाति के वोक्कालिंगा समुदाय का वर्चस्व है। यह एक ऐसा समुदाय है, जिसने ऊंची जाति वाले लिंगायत की तरह भाजपा का दामन नहीं थामा है।
 
उत्तरी कर्नाटक में लिंगायत एक प्रभावी समुदाय है। लोक शक्ति के रामकृष्ण हेगड़े ने जबसे अपना लिंगायत समर्थन स्थानांतरित किया है, तब से लिंगायत भाजपा के समर्थक रहे हैं।
 
सिद्धारमैया की गारंटी बनाम नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता
इस साल लोकसभा चुनाव को निर्धारित करने वाले कारकों को लेकर राजनीतिक विश्लेषकों की राय बंटी हुई है। कुछ का मानना ​​है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता काफी हद तक अप्रभावित है, हालांकि पिछले साल विधानसभा चुनाव का अनुभव काफी अलग था।
 
कई चुनाव क्षेत्रों में जहां मोदी ने प्रचार किया था, वहां भाजपा उम्मीदवार विजयी नहीं हुए। कुछ लोगों का तो यह भी मानना ​​है कि प्रधानमंत्री की लोकप्रियता में कमी आई है। उनका मानना है कि प्रधानमंत्री की लोकप्रियता 2019 जैसी नहीं रह गई है।
 
उनकी लोकप्रियता के लिए चुनौतियां उन गारंटियों से आई हैं, जिन्हें कांग्रेस सरकार बहुत उत्साह से लागू कर रही है।
 
प्रोफे़सर ए नारायण अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान पढ़ाते हैं। उन्होंने बीबीसी को बताया, "इसमें कोई संदेह नहीं है कि महिलाओं का झुकाव कांग्रेस की ओर अधिक है। यह खासकर गारंटियों के कार्यान्वयन की वजह से हो सकता है, क्योंकि महिलाएं स्त्री शक्ति (राज्य भर में महिलाओं के लिए मुफ्त बस यात्रा), परिवार की महिला मुखिया को 2,000 रुपये और यहां तक ​​​​कि मुफ्त चावल जैसी योजनाओं की सबसे बड़ी लाभार्थी हैं।"
 
प्रोफ़ेसर नारायण का यह आकलन ग़लत भी नहीं है, क्योंकि मांड्या और मैसूर के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में महिलाओं के साथ बीबीसी की बातचीत में भी यह नज़र आता है।
 
राज्यपाल थावरचंद गहलोत ने विधानसभा के संयुक्त सत्र में कहा था, "गृह ज्योति (200 यूनिट तक मुफ्त बिजली) और युवा निधि (दो साल के लिए बेरोज़गारी भत्ता) समेत पांच गारंटियों ने राज्य के पांच करोड़ से अधिक लोगों को फायदा हुआ है।"
 
सिद्धारमैया सरकार ने इन गारंटियों के लिए इस साल के बजट में 52,000 करोड़ रुपये अलग रखे हैं। बीबीसी ने सरकार के इस दावे की पुष्टि करने के लिए महिलाओं से बात की कि क्या उनमें से हर महिला को हर महीने 4000 से 5000 रुपये की आय या बचत का लाभ मिलता है।
 
राजनीतिक टिप्पणीकार डॉ. शास्त्री कहते हैं कि कांग्रेस और भाजपा की गारंटी के बीच इस मुक़ाबले के एक नए आर्थिक विभाजन के उभरने की संभावना है।
 
वो कहते हैं, "हम इस चुनाव में ग़रीब या निम्न मध्य वर्ग के मतदाताओं और शहरी मतदाताओं के बीच इन गारंटियों से बुनियादी ढांचे के विकास पर पड़ने वाले प्रभाव से निराश एक आर्थिक विभाजन उभरता दिखाई देगा। मतदाता देश की छवि के साथ अधिक तालमेल बिठाएगा। यह भाजपा के पक्ष में होगा।"
 
कर्नाटक में बीजेपी की बढ़त
प्रोफेसर नारायण कांग्रेस और भाजपा के नज़रिए की तुलना करते हैं। वो कहते हैं, "2014 और 2019 में भाजपा के विपरीत कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव को गंभीरता से नहीं लिया था। 2019 के चुनाव में बीजेपी के शानदार प्रदर्शन की वजह पुलवामा हमला और कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के ख़िलाफ़ सत्ता विरोधी लहर भी थी। पुलवामा हमले के बाद ही भाजपा के लिए चीजें साफ़ हुईं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भाजपा 1996 से लगातार अपना वोट शेयर बढ़ा रही है। वह 2004 से लगातार कांग्रेस से अधिक सीटें जीत रही है।"
 
विश्वेश्वर भट्ट राजनीतिक विश्लेषक और दक्षिणपंथी माने जाने वाले अख़बार 'विश्ववाणी' के संपादक हैं। वो कहते हैं, "प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता किसी भी तरह से कम नहीं हुई है। वहीं, कांग्रेस सरकार की गारंटी के असर को भी नज़रअंदाज करना संभव नहीं है। महिलाएं इन गारंटियों की विशेष रूप से सबसे बड़ी लाभार्थी हैं। उन्हें जो सवाल परेशान करेगा, वह यह है कि क्या हम (मुख्यमंत्री) सिद्धारमैया की गारंटी का लाभ उठाकर प्रधानमंत्री मोदी को वोट दे सकते हैं।"
 
भट्ट ने कहा, "यह कहना मुश्किल होगा कि इस बार वोटिंग पैटर्न पर इसका क्या असर पड़ेगा। यह भी साफ़ है कि 28 में से 25 सीटों पर जीत दोहराई नहीं जा सकती। कांग्रेस सात से 10 सीटें भी ले सकती है।"
 
राजनीतिक विश्लेषक डी उमापति ने कहा, "प्रमुख कारक यह होगा कि लोग मोदी को सुनेंगे क्योंकि वह TINA (There is no other alternative) कारक हैं। मुझे व्यक्तिगत रूप से लगता है कि उनकी लोकप्रियता कम हुई है। कांग्रेस की ओर से इसका एकमात्र जवाब गारंटी का कार्यान्वयन और सिद्धारमैया का चातुर्य और राज्य कांग्रेस के अध्यक्ष डीके शिवकुमार का धन और बाहुबल का संयोजन होगा।"
 
हालांकि भट्ट से इस बात से सहमत हैं कि भाजपा के लिए 2019 को दोहरा पाना संभव नहीं होगा। उमापति कहते हैं कि आज ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस को 8 से 12 सीटें मिल सकती हैं।
 
उमापति के तर्क से शारदा सहमति जताती हैं, जो मांड्या शहर के एक प्लेहोम में आया का काम करती हैं। वह गृह लक्ष्मी और अन्नभाग्य दोनों योजनाओं की लाभार्थी हैं। दोनों योजनाओं का पैसा नियमित रूप से उनके खाते में आता है।
 
वो कहती हैं, "मैंने बेलगावी जिले के सौंदत्ती में येलम्मा मंदिर तक बस शुल्क से मुक्त यात्रा की। लेकिन, मैं मोदीजी को वोट दूंगी। उन्होंने राम मंदिर खुलवाया है। मैं चाहती हूं कि वह प्रधानमंत्री बने रहें।"
 
राज्य में भाजपा के सबसे बड़े नेता और पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने कहा है कि उनकी पार्टी 24 सीटें जीतेगी। वहीं कांग्रेस नेता और मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने 20 सीटें जीतने का दावा किया है।
 
हालांकि, निजी बातचीत में दोनों पार्टियों के नेता कम आंकड़ों का जिक्र करते हैं। बीजेपी के एक नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, "हम पिछली बार की तरह 25 सीटें जीतने की उम्मीद नहीं कर सकते। कांग्रेस को आठ-नौ सीटें मिल सकती हैं।" वहीं कांग्रेस नेता निजी बातचीत में नौ से 14 सीटें जीतने का दावा करते हैं।
 
वे अपने दावे के समर्थन में कहते हैं, "तथ्य यह है कि भाजपा ने जनता दल सेक्युलर (जेडीएस) के साथ गठबंधन किया है, यह इस बात का साफ़ संकेत है कि पार्टी 2019 की तुलना में क़मजोर स्थिति में है। तथ्य यह भी है कि उसने जिन सीटों पर पिछली बार जीत दर्ज की थीं (जेडीएस को तीन-चार सीटें देते हुए) उन पर चुनाव लड़ने का फै़सला किया। यह एक और संकेत है कि पार्टी की सीटें कर्नाटक में कम हो सकती हैं।"
 
प्रोफे़सर नारायण उनसे असहमत हैं। वो कहते हैं, "गठबंधन के बिना जेडीएस कुछ सीटें जीत सकती थी। वहीं, गठबंधन के बाद भी बीजेपी को दोबारा बढ़त मिलने की संभावना नहीं है।"
 
वो कहते हैं, "फिलहाल कांग्रेस 9 या 10 सीटों से आगे नहीं जा सकती है। यह काफी हद तक इस तथ्य के कारण है कि हमने कांग्रेस में उस तरह का उत्साह और चुनाव अभियान नहीं देखा है, जैसा हमने पिछले साल विधानसभा चुनाव के दो-तीन महीने पहले देखा था। अगर पार्टी गंभीर थी तो उसे सत्ता में आते ही तैयारी शुरू कर देनी चाहिए थी।"

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