बीजेपी-कांग्रेस के ख़िलाफ़ केसीआर का अभियान मोर्चेबंदी है या खेमेबंदी? : नज़रिया

Webdunia
बुधवार, 26 दिसंबर 2018 (11:30 IST)
विधानसभा चुनावों में अपनी पार्टी की शानदार जीत से उत्साहित तेलंगाना के मुख्यमंत्री और टीआरएस सुप्रीमो के चंद्रशेखर राव (केसीआर) अब तीसरे मोर्चे या फ़ेडरल फ्रंट के गठन की कोशिश में जुट गए हैं।
 
 
उनका कहना है कि बीजेपी की अगुआई वाले एनडीए और कांग्रेस के नेतृत्व वाले धड़े से अलग एक तीसरा मोर्चा होना चाहिए, जिसे आमतौर पर वो फेडरल फ्रंट कहते हैं। अभी तक इस कथित मोर्चे का न तो नाम तय है और न काम!
 
 
अपने संभावित मोर्चे के कार्यक्रम, लक्ष्य और विचार को लेकर केसीआर ने अब तक कोई ठोस संकेत नहीं दिए हैं। लेकिन ओडिशा के मुख्यमंत्री और बीजेडी अध्यक्ष नवीन पटनायक और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी से उनकी हाल की मुलाकातों को नई मोर्चेबंदी के प्रयासों के संदर्भ में महत्वपूर्ण माना जा रहा है।
 
 
उनके प्रयास का सबसे कमजोर पक्ष है कि हिन्दी-भाषी प्रदेशों में अभी तक इस नई मोर्चेबंदी की कोशिश में किसी बड़े नेता या दल का नाम नहीं जुड़ा।
 
 
लोकसभा चुनाव के अब महज़ चंद महीने रह गए हैं पर भाजपा-एनडीए विरोधी बड़ी मोर्चेबंदी का आकार भी अभी तक नहीं उभरा। राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस की अगुवाई वाले जिस महागठबंधन का जिक्र बार-बार हो रहा है, उसका स्वरूप और आकार अभी तक साफ नहीं हुआ।
 
 
कोई नहीं जानता कि देश के सबसे बड़े राज्य-यूपी की दो बड़ी पार्टियों, सपा और बसपा, का कथित गठबंधन को लेकर क्या रूख होगा! हमारी जानकारी के मुताबिक इसके लिए पर्दे के पीछे कुछ प्रयास हो रहे हैं।
 
 
संभवतः नए वर्ष के पहले या दूसरे महीने तक इस बाबत तस्वीर कुछ साफ हो! इस बीच केसीआर द्वारा प्रस्तावित कथित तीसरे मोर्चे या फेडरल फ्रंट की कवायद भाजपा-एनडीए विरोधी महागठबंधन की कोशिशों को पलीता भले न लगाए लेकिन उस प्रक्रिया को जटिल ज़रूर बना सकती है।
 
 
बीजेडी की चिंता
यह बात पहले से साफ़ है कि ओडिशा के मुख्यमंत्री और बीजद नेता पटनायक कांग्रेस की अगुआई वाले किसी गठबंधन या मोर्चे का हिस्सा नहीं होना चाहेंगे। ओडिशा में विधानसभा चुनावों के मद्देनजर उन्हें भाजपा और कांग्रेस, दोनों से लड़ना है।
 
 
सूबाई राजनीति में उन्हें फिलहाल कोई बड़ी चुनौती नहीं नज़र आती लेकिन लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी पहले की तरह प्रचंड जीत हासिल करेगी, ऐसा दावा स्वयं पार्टी के बड़े नेता भी नहीं कर रहे हैं।
 
 
साल 2014 के चुनाव में ओडिशा में मोदी-लहर का नामोनिशान नहीं था, वहां नवीन-लहर बरकरार थी और पार्टी को राज्य की कुल 21 संसदीय सीटों में 20 पर कामयाबी मिली। उतने शानदार प्रदर्शन को दोहराना इस बार शायद संभव नहीं हो। पटनायक को लगभग हर सीट पर भाजपा और कांग्रेस से जूझना होगा। ऐसे में केसीआर के फेडरल फ्रंट का प्रस्ताव उन्हें रास आ सकता है।
 
 
ममता का सहारा?
नीतिगत स्तर पर बीते साढ़े चार साल के दौरान उनकी पार्टी ने संसद में आमतौर पर मोदी सरकार का साथ दिया। बीजेपी-एनडीए का औपचारिक हिस्सा हुए बगैर मोदी सरकार के अनेक विवादास्पद फैसलों का बीजेडी ने समर्थन किया। लेकिन बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। वह मोदी सरकार से लगातार जूझती रही हैं। उनके लिए बंगाल में कांग्रेस उतनी बड़ी चुनौती नहीं है, जितना भाजपा-आरएसएस हैं।
 
 
भगवा ब्रिगेड पूरे जोरशोर से बंगाल को उसके पुराने मार्क्सवादी टैग से मुक्त कर 'हिन्दुत्ववादी रंग' में रंगना चाहता है। कोई आश्चर्य नहीं, ममता बनर्जी इस चुनौती का सामना करने के लिए कांग्रेस का सहयोग लेना चाहें। साल 2014 के संसदीय चुनाव में सीटों के हिसाब से दूसरे नंबर पर कांग्रेस ही थी। हालांकि तब टीएमसी ने राज्य में अपनी शानदार जीत दर्ज की थी और संसद की 42 में 34 सीटों पर कब्जा किया था।
 
 
लेकिन इस बार भाजपा के बढ़ते प्रभाव के मद्देनजर टीएमसी को कांग्रेस की जरूरत हो सकती है। ऐसे में केसीआर के फेडरल फ्रंट से ममता बनर्जी को कोई फायदा नहीं होने वाला है।
 
 
गठबंधन या खेमेबंदी?
नवीन पटनायक को भी इस तरह की मोर्चेबंदी से अपने सूबे में कोई ख़ास फायदा नहीं नज़र आता। ऐसे में फेडरल फ्रंट की धारणा वस्तुतः राष्ट्रीय राजनीति में कुछ क्षेत्रीय दलों की तरफ से तीसरा खेमा तैयार करने की कवायद से ज्यादा कुछ नहीं है।
 
 
ऐसी कवायद, जिससे उन दलों को अपने-अपने सूबों में किसी तरह की बढ़त या फायदा नहीं मिलने वाला है। केसीआर के प्रयास को इसीलिए 'मोर्चेबंदी' या 'गठबंधन' कहने के बजाय 'खेमेबंदी' कहना ज्यादा संगत होगा।
 
 
राजनीतिक धारणा के स्तर पर 'मोर्चा' मुद्दों और कार्यक्रमों पर आधारित अपेक्षाकृत सुसंगत संरचना है जबकि 'गठबंधन' आमतौर पर सीटों के तालमेल या सरकार बनाने के समन्वय-मंच होते हैं। राजनीति में तरह-तरह के दबाव-समूह भी बनते हैं, जिनका लक्ष्य तात्कालिक और सीमित होता है। ऐसे दबाव समूहों को 'खेमेबंदी' कहा जा सकता है।
 
 
भविष्य पर नज़र
फ़िलहाल, केसीआर का प्रयास अपना एक 'खेमा' तैयार करने से ज्यादा कुछ नहीं नजर आता। उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि इस बार के संसदीय चुनाव में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिलने की स्थिति में फेडरल फ्रंट जैसे संभावित खेमे की महत्वपूर्ण भूमिका हो जाएगी।
 
 
बहुत संभव है, केसीआर की नजर भविष्य के ऐसे ही सूरते-हाल पर टिकी हो! और भारतीय जनता पार्टी के लिए यह 'सोने में सुहागा' जैसी परिघटना होगी। वैचारिकता और मिजाज में काफी समय से केसीआर की नजदीकियां बीजेपी से हैं। हाल के विधानसभा चुनाव में उन्होंने भले ही भाजपा को अपने सूबे में कोई तवज्जो नहीं दी पर कांग्रेस-टीडीपी गठबंधन के मुकाबले केंद्र और राज्य में बीजेपी के प्रति वह हमेशा नरम दिखे।
 
 
ऐसे में यह महज़ संयोग नहीं कि बीते सोमवार को आंध्र के मुख्यमंत्री और टीडीपी सुप्रीमो एन चंद्रबाबू नायडू ने फेडरल फ्रंट की ताज़ा कोशिशों को बीजेपी को फायदा पहुंचाने वाली परिघटना के रूप में रेखांकित किया।
 

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