बिहार में महागठबंधन को टूटने से बचा कर संबंधित घटक दलों ने आगामी संसदीय चुनाव में अपनी सियासी उम्मीदों को टूटने से बचाया है। सवाल उठने लगा था कि ये विपक्षी दल अगर अपने अनुमानित समर्थन के बढ़े-चढ़े दावे ले कर अलग-अलग चुनाव लड़ेंगे तो पता है इन्हें कि कितनी सीटें जीत पाएँगे?
अब चूँकि यह चुभता हुआ सवाल टला है, इसलिए कहा जाने लगा है कि आख़िरकार एकजुट हुए छह विपक्षी दलों का महागठबंधन यहाँ सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की संभावनाओं पर ग्रहण लगा सकता है। राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और कांग्रेस के अलावा उपेंद्र कुशवाहा, जीतनराम माँझी, मुकेश सहनी और शरद यादव की पार्टियों का यह गठबंधन एनडीए को सीधी टक्कर देने का मंसूबा बाँधने लगा है।
महागठबंधन में आई मुश्किलों ने यहाँ जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू), भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के सत्तारूढ़ गठबंधन को ख़ूब उत्साहित किया था। ख़ासकर कांग्रेस पर जो यह बात चस्पाँ हो रही थी कि लोकसभा चुनाव के लिए सियासी गठबंधन कर पाने में यह पार्टी सक्षम नहीं हो पा रही है, उसे बिहार में अब झुठलाया जा सका है।
लगता यही है कि अपने अंदरूनी मसलों से उलझते-निबटते हुए भी यही दोनों गठबंधन आमने-सामने भिड़ेंगे और तब बिहार में तिकोने मुक़ाबले की गुंजाइश सीमित हो जाएगी।
महागठबंधन को नहीं टूटने देना घटक दलों की मजबूरी
ग़ौर करने वाली बात ये भी है कि बिहार के दोनों प्रमुख क्षेत्रीय दलों- जेडीयू और आरजेडी ने अपने-अपने गठबंधन की राष्ट्रीय पार्टियों - बीजेपी और कांग्रेस को दबा कर रखा है। सीटों के बँटवारे में अपने फ़ायदे के लिए अंत-अंत तक दबाव बनाये रखना सियासी जमातों की रणनीति का हिस्सा बन चुका है।
वैसे, कहीं-न-कहीं यह आभास भी मिल रहा था कि महागठबंधन को टूटने नहीं देना दरअसल उसके घटक दलों की ही मजबूरी थी, क्योंकि टूट हो जाती तो उसे राजनीतिक हाराकिरी माना जाता। ऐसा पहले भी इसलिए होता रहा है, क्योंकि संबंधित पक्षों का स्वार्थ एक सीमा तक ही 'बारगेनिंग' का जोखिम उठा पाता है। जातीय समीकरण बिठाने वाली राजनीति का यही दायरा है।
राज्य की कुल चालीस सीटों में से बीस पर आरजेडी, नौ पर कांग्रेस, पाँच पर उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी और तीन पर जीतनराम माँझी की पार्टी को उम्मीदवारी देने वाले महागठबंधन का एक फ़ैसला सब को चौंका गया है।
मुकेश सहनी को इतनी तवज्जो क्यों?
मछुआरा समुदाय के एक युवा नेता मुकेश सहनी द्वारा नवगठित विकासशील इन्सान पार्टी (वीआईपी) को तीन सीटें दी गयी हैं। मुंबई फ़िल्म इंडस्ट्री में कथित रूप से 'सेट डिज़ाइनर' रह चुके मुकेश सहनी के बारे में आरजेडी नेता शिवानंद तिवारी ने मुझे बताया कि राज्य की बड़ी आबादी वाले मछुआरा समाज में उसे व्यापक समर्थन प्राप्त है।
कहते हैं, लालू प्रसाद यादव ने अति पिछड़े वर्ग के इस युवा नेता को अपने साथ जोड़ने में आरजेडी के लिए भी बेहतर संभावनाएँ देखी हैं। गया से हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) के जीतनराम माँझी को उम्मीदवार बनाना और निवर्तमान कांग्रेसी सांसद निखिल कुमार की औरंगाबाद सीट को 'हम' के कोटे में डाल देना माँझी के प्रति आरजेडी का ख़ास रुझान दिखाता है।
यह फ़ैसला यहाँ कांग्रेस पर भारी पड़ा है क्योंकि निखिल कुमार के समर्थकों ने प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में रोषपूर्ण प्रदर्शन करते हुए कुछ कांग्रेसी नेताओं पर आरोपों की बौछार कर दी है। महागठबंधन में 'सीट शेयरिंग' की जो पहली झाँकी शुक्रवार शाम दिखाई गयी, उससे ज़ाहिर हो गया है कि सीटों की खींचतान के बावजूद आरजेडी ने अपना सियासी वज़न घटने नहीं दिया। बल्कि कुछ बढ़ा ही लिया है।
महागठबंध के साथ नहीं वाम मोर्चा
कांग्रेस ने अपने खाते में जीत का ग्राफ़ ऊँचा उठाने के लिए अन्य दलों को छोड़ कर आने वाले कुछ चर्चित चेहरों को अपने साथ जोड़ा है। इनमें तारिक अनवर और कीर्ति झा आज़ाद शामिल हैं और ख़बर है कि जल्दी ही शत्रुघ्न सिन्हा भी जुड़ने वाले हैं।
उधर भाकपा (माले) यानी सीपीआई-एमएल (लिबरेशन) के लिए आरजेडी ने अपने कोटे से एक सीट छोड़ने का तो ऐलान कर दिया, लेकिन बेगूसराय की सीट सीपीआई के कन्हैया कुमार के लिए छोड़ने पर राज़ी नहीं हुई। मतलब साफ़ है कि महागठबंधन के साथ वाम मोर्चे को जोड़ने जैसी संभावना नहीं रही। भाकपा (माले) को आरजेडी का ऑफ़र मंज़ूर है या नहीं, अभी इसका भी ख़ुलासा नहीं हुआ है।
अब दोनों गठबंधनों के प्रत्याशियों की सूची जैसे-जैसे सामने आती जाएगी, वैसे-वैसे चुनावी टिकट से वंचित लोगों और उनके समर्थकों के हंगामेदार धरना-प्रदर्शन का सिलसिला चल पड़ेगा। एनडीए की तरफ़ से भी सभी उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी गई है। ज़ाहिर है कि बिहार में भी एनडीए का चुनाव-प्रबंधन महागठबंधन की तुलना में बेहतर दिख रहा है लेकिन, उसमें भी अंदर-ही-अंदर कई घात-प्रतिघात पल रहे हैं।