मायावती यूपी में पिछले तीन चुनाव बुरी तरह हारी हैं, लोकसभा में बसपा का एक भी सांसद नहीं है लेकिन उनके प्रधानमंत्री बनने की चर्चा शुरू हो गई है। राजनीति में सपने हकीकत से ज्यादा करामात दिखाते हैं।
सपा के अखिलेश यादव के साथ सुलह के बाद, मोदी सरकार के खिलाफ बन रही विपक्षी एकता की एक नेता के रूप में उभर रहीं मायावती की सियासत दोबारा परवान चढ़ती दिख रही है। वे देश की पहली दलित प्रधानमंत्री और दूसरी महिला प्रधानमंत्री के सपने को भरपूर हवा देना चाहती हैं। वे जानती हैं कि उनकी इस वक़्त वाली छवि से काम नहीं चलेगा, इसके लिए उन्होंने अपनी छवि बदलने के प्रयास शुरू कर दिए हैं।
मायावती की छवि का मसला
अगला आम चुनाव जैसे-जैसे करीब आएगा, कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के गठबंधन के ठोस शक्ल लेने के साथ दलित संगठनों की ओर से मायावती को प्रधानमंत्री बनाने की माँग तेज होती जाएगी। लेकिन इससे पहले भाजपा शासित तीन राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में बसपा और कांग्रेस का साझा प्रदर्शन अहम भूमिका निभाएगा।
इन राज्यों में कांग्रेस का सीधा मुक़ाबला भाजपा से है, तीनों राज्यों में भाजपा सरकार में है, माना जा रहा है कि इन तीनों राज्यों में कांग्रेस पिछले विधानसभा चुनावों से बेहतर प्रदर्शन करेगी। इन राज्यों के कुछ हिस्सों में सपा और बसपा की ठीक-ठाक मौजूदगी है और कांग्रेस के साथ इन दोनों की साझीदारी होने पर विपक्षी गठबंधन की ताक़त बढ़ने के ही आसार हैं।
दलित प्रधानमंत्री का जुमला
कनार्टक में कुमारास्वामी की सरकार बनने के मौके पर विपक्षी एकजुटता के प्रदर्शन के तुरंत बाद, मई के आखिरी हफ्ते में लखनऊ में हुई बसपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में सबसे ज्यादा बोला गया जुमला 'दलित प्रधानमंत्री' ही था। करीब पंद्रह राज्यों से आए बसपा कार्यकर्ताओं और नेताओं ने मीडिया के सामने हर मौके पर एक ही बात कही- अगले चुनाव के बाद बहनजी को पीएम बनाया जाना चाहिए।
खुद मायावती ने विपक्षी दलों के संभावित गठबंधन के भीतर नैतिक बढ़त लेने के लिए अपनी सोच में बड़े बदलाव का सबूत पेश किया। मायावती ने बैठक में अपने भाई और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष आनंद कुमार को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष पद से हटाने की घोषणा की। साथ ही पार्टी के संविधान में संशोधन करते हुए नया नियम बनाया कि अब से राष्ट्रीय अध्यक्ष के जीवनकाल में या उसके बाद, उसके परिवार का कोई व्यक्ति न तो पार्टी के किसी महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त किया जाएगा, न ही पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़कर सांसद या विधायक बन सकेगा।
भ्रष्टाचार के कई आरोपों से घिरे आनंद कुमार को अब तक पार्टी के भीतर मायावती का उत्तराधिकारी माना जा रहा था।
मायावती पर परिवारवाद के आरोप
मायावती ने मीडिया और कार्यकर्ताओं से जोर देकर कहा कि उन पर कांग्रेस की तरह परिवारवाद के आरोप लगने लगे थे इसलिए पार्टी संस्थापक, कांशीराम का अनुसरण करते हुए उन्हें यह फैसला करना पड़ा। कांशीराम ने राजनीति में आने के बाद अपने परिवार वालों से सभी संबंध तोड़ लिए थे और कभी किसी को पार्टी में पद नहीं दिया।
पिछले आम चुनाव में मोदी ने कांग्रेस के परिवारवाद को प्रमुख मुद्दा बनाया था। अब भी भाजपा की मुख्य टेक पिछले 70 साल में एक परिवार (गांधी-नेहरू खानदान) के राज के कारण हुई बर्बादी है। मायावती जिस कांग्रेस के साथ चुनावी गठबंधन करने जा रही हैं, उसे ही परिवारवाद की मिसाल भी बता रही हैं, इसके पीछे सीधा कारण अपनी छवि बदलना है जिसका संबंध प्रधानमंत्री बनने से ज्यादा, दलित वोटों का बिखराव रोकने से है।
पिछले लोकसभा चुनाव में दलित वोटों के भाजपा की तरफ जाने से मायावती को अपने घर यूपी में ही एक भी सीट नहीं मिली थी। छोटे भाई आनंद कुमार के उत्तराधिकारी के रूप में प्रचारित होने के कारण भाजपा और अन्य विरोधियों को दलित वोट बैंक में सेंध लगाने मौका मिला।
दलित वोटों का विभाजन
भाजपा ने गैर-जाटव दलित उपजातियों में अभियान चलाया कि मायावती ने अंबेडकर और कांशीराम के मिशन को सिर्फ उसी जाति की जागीर बना दिया है जिसमें वह पैदा हुई हैं। इससे दलित वोटों में विभाजन हुआ जिसके नतीजे में बसपा दलितों के आरक्षित सीटों पर भी हार गई।
दूसरी बात ये है कि इस समय पूरे देश में उत्पीड़न, आरक्षण में कटौती, जातिगत भेदभाव के मुद्दे पर दलित केंद्र सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतर रहे हैं लेकिन उनका कोई बड़ा नेता नहीं है जैसा कि पिछले दो अप्रैल के स्वतःस्फूर्त भारत बंद के दौरान देखने को मिला।
ज्यादातर पुराने दलित नेता भाजपा सरकार में शामिल होकर अपनी साख खो चुके हैं। संगठन के लिहाज से अखिल भारतीय फैलाव सिर्फ बसपा का है। ऐसे में दलित प्रधानमंत्री का सपना उन्हें मायावती के पीछे एकजुट करने में अहम फैक्टर बन सकता है।
मोलभाव करने की स्थिति में हैं मायावती
राजनीति संभावनाओं का खेल है। अगर कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के गठबंधन को अगले आम चुनाव में भाजपा के खिलाफ कामयाबी मिलती है तो मायावती अपनी नई छवि के बूते प्रधानमंत्री पद के लिए दावा करने में हिचकेंगी भी नहीं। ध्यान रखा जाना चाहिए कि ज्यादातर क्षेत्रीय दल गैर कांग्रेसवाद की ही राजनीति करते आए हैं।
अभी ऐसा आकलन दूर की कौड़ी है क्योंकि बहुत कुछ दलितों आदिवासियों की खासी संख्या वाले मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव के नतीजों पर निर्भर करेगा जहाँ कांग्रेस और बसपा के बीच सीटों के बंटवारे पर बातचीत चल रही है। इन दोनों राज्यों में बसपा की मजबूत मौजूदगी है और 2013 में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजों का विश्लेषण दिलचस्प है।
जानकार मानते हैं कि अगर मध्य प्रदेश में कांग्रेस-बसपा गठबंधन बनाकर चुनाव लड़े होते बीजेपी की 40 सीटें कम हो जातीं। छत्तीसगढ़ में दोनों साथ लड़े होते तो भाजपा से 3।5 प्रतिशत वोट ज्यादा मिले होते।
सूत्रों के मुताबिक मायावती आत्मविश्वास के साथ तगड़ी सौदेबाजी कर रही हैं। उन्होंने जता दिया है कि अगर सम्मानजनक सीटें मिलती हैं तभी साथ लड़ेंगी वरना उन्हें अकेले चुनाव लड़ने से भी गुरेज नहीं है।
इन दोनों राज्यों के साथ तीसरे चुनावी राज्य राजस्थान को भी जोड़ लें तो ये क्षेत्र कुल 66 लोकसभा सीटों के दायरे में फैला हुआ है। इन पर बसपा का प्रदर्शन अच्छा रहा तो मायावती की स्थिति गठबंधन के भीतर और बाहर मजबूत होने के साथ दलित प्रधानमंत्री की चर्चा में वजन आ जाएगा। अगर ऐसा हो पाया तो छह सालों तक दुर्दिन काटने के बाद मायावती की चुनावी राजनीति दमदार वापसी होने वाली है वरना वे सिर्फ़ यूपी के जाटवों की नेता होकर रह जाएँगी।