नवंबर के वो 15 दिन, जब हिल गया था इस्लाम

गुरुवार, 29 नवंबर 2018 (15:01 IST)
39 साल पहले नवंबर के महीने में सऊदी अरब के इतिहास में एक ऐसी घटना हुई, जिसने 15 दिनों तक इस्लाम को हिलाकर रख दिया। ये वो घटना थी, जिसमें सलाफ़ी समूह ने इस्लाम की सबसे पवित्र जगह मक्का की मस्जिद को अपने क़ब्ज़े में ले लिया था। इस घटना में सैकड़ों लोगों की जान चली गई थी।
 
 
20 नवंबर, 1979 इस्लामिक कैलेंडर के हिसाब से साल 1400 की पहली तारीख़ थी। उस दिन मक्का मस्जिद में देश-विदेश से आए हज़ारों हज यात्री शाम के समय नमाज़ का इंतज़ार कर रहे थे। यह मस्जिद इस्लाम की सबसे पवित्र जगह काबा के इर्द-गिर्द बनी है।
 
 
क्या हुआ था उस दिन
जब नमाज़ ख़त्म होने को आई तो सफ़ेद रंग के कपड़े पहने लगभग 200 लोगों ने ऑटोमैटिक हथियार निकाल लिए। इनमें से कुछ इमाम को घेरकर खड़े हो गए। जैसे ही नमाज़ ख़त्म हुई, उन्होंने मस्जिद के माइक को अपने क़ब्ज़े में ले लिया।
 
 
इसके बाद माइक से एलान किया गया, "हम माहदी के आगमन का एलान करते हैं, जो अन्याय और अत्याचारों से भरी इस धरती में न्याय और निष्पक्षता लाएंगे।"... इस्लामिक मान्यताओं के अनुसार माहदी ऐसे उद्धारक हैं, जो क़यामत से पहले राज करते हुए बुराई का नाश करेंगे। यह सुनकर लोगों को लगा कि यह क़यामत के दिन की शुरुआत है।
 
 
उस दौरान वहां हज करने आया एक युवा मुस्लिम धार्मिक छात्र भी था। उसने अपना अनुभव इस तरह से बयान किया था, "प्रार्थना के बाद कुछ लोगों ने माइक्रोफ़ोन निकाले और बोलना शुरू किया। उन्होंने कहा कि माहदी आ गए हैं। लोग ख़ुश थे कि रक्षक आ गया है। वे ख़ुशी से कह रहे थे- अल्लाह हु अकबर।"
 
 
कौन थे हमलावर
ये हथियार बंद समूह अति कट्टरपंथी सुन्नी मुस्लिम सलाफ़ी थे। बदू मूल के युवा सऊदी प्रचारक जुहेमान अल-ओतायबी उनका नेतृत्व कर रहे थे। इस बीच मस्जिद के स्पीकरों से घोषणा की गई कि माहदी उनके बीच हैं।
 
 
इस बीच लड़ाकों के समूह से एक शख़्स भीड़ की ओर बढ़ा। यह आदमी था- मोहम्मद अब्दुल्ला अल-क़हतानी। मस्जिद से कहा गया, यही हैं माहदी जिऩके आने का सबको इंतज़ार था। तभी सबके सामने जुहेमान ने भी मोहम्मद अब्दुल्ला (तथाकथित माहदी) के प्रति सम्मान अदा किया ताकि बाक़ी लोग भी सम्मान जताएं।
 
 
क़ब्ज़ा और संघर्ष
इस बीच अब्दुल मुने सुल्तान नाम का एक और छात्र यह देखने के लिए मस्जिद के अंदर गया कि आख़िर हो क्या रहा है। उसने अंदर का हाल कुछ इस तरह से बताया था, "लोग हैरान थे। उन्होंने हरम में पहली बार किसी को बंदूक़ों के साथ देखा। ऐसा पहली बार हुआ। वो डरे हुए थे।"
 
 
इस बीच जुहेमान ने लड़ाकों से कहा कि मस्जिद को पूरी तरह बंद कर दें। कई हज यात्रियों को अंदर ही बंधक बना लिया गया। इसके बाद मीनारों पर स्नाइपर तैनात कर दिए गए जो 'माहदी के दुश्मनों' से लड़ने के लिए तैयार थे।
 
 
वे लोग सऊदी बलों को भ्रष्ट, अनैतिक और पश्चिम से जुड़े हुए मानते थे। इसलिए जब पुलिस वहां यह देखने आई कि क्या हो रहा है, लड़ाकों ने उनके ऊपर गोलियां चला दीं। इस तरह से मस्जिद पर क़ब्ज़ा कर लिया गया।
 
 
सऊदी अरब की रणनीति
उस समय अमेरिकी डिप्लोमैट मार्क ग्रेगरी हैम्बली अमेरिकी के जेद्दा स्थित दूतावास में बतौर पॉलिटिकल ऑफ़िसर तैनात थे। उन्होंने बताया था कि हमलावर लड़ाकों के पास बहुत सारे अच्छे और ऑटोमैटिक हथियार थे और इस कारण उन्होंने काफ़ी नुक़सान पहुंचाया।
 
 
इस बीच सऊदी अरब ने मस्जिद पर क़ब्ज़ा हो जाने की ख़बरों के प्रसारण या प्रकाशन पर रोक लगा दी। कुछ ही लोगों को पता था कि मस्जिद पर किसने क़ब्ज़ा किया है और क्यों। उधर हैंबली को एक अमेरिकी हेलिकॉप्टर पायलट से जानकारियां मिल रही थीं, जो सऊदी सुरक्षा बलों के साथ शहर के ऊपर उड़ान भर रहा था।
 
 
हैंबली के मुताबिक़, सऊदी नैशनल गार्ड ने बेशक बहादुरी से अभियान चलाने की कोशिश की मगर उन्हें क़ामयाबी नहीं मिली और कइयों की मौत हो गई। इसके बाद सऊदी प्रशासन ने मस्जिद को फिर से अपने नियंत्रण में लेने के लिए हज़ारों सैनिक और विशेष बल मक्का के लिए रवाना किए। भारी भरकम हथियारों की तैनाती की गई और ऊपर से सेना के लड़ाकू विमान उड़ते रहे।
 
 
भारी नुक़सान
इस बीच सऊदी अरब के शाही परिवार ने धार्मिक नेताओं से मस्जिद के अंदर बल प्रयोग करने की इजाज़त मांगी। मगर अगले दिनों में लड़ाई और भीषण हो गई। सऊदी बलों ने लगातार कई हमले किए और इससे मस्जिद का बड़ा हिस्सा क्षतिग्रस्त हो गया।
 
 
मरने वालों की संख्या भी सैकड़ों में थी। प्रत्यक्षदर्शियों का कहना था कि आधे-आधे घंटे के अंतराल पर गोलियां चलने और धमाकों की आवाज़ आती रही और यह सिलसिला शाम तक चलता रहता।
 
 
सऊदी हेलिकॉप्टर घटनास्थल के ऊपर मंडरा रहे थे और फिर तोपों की मदद से मीनारों को निशाना बनाया गया। मान्यताओं के हिसाब से अगर मोहम्मद अब्दुल्ला अ-क़हतानी वाक़ई माहदी होते तो उनकी मौत नहीं होती।
 
मगर अब्दुल मुने सुल्तान बताते हैं कि उन्होंने क़हतानी को मरे हुए या घायल लड़ाकों के हथियार उठाकर उन लोगों तक पहुंचाते हुए देखा जिनके पास हथियार नहीं होते या जिनकी गोलियां ख़त्म हो गई होतीं।
 
 
"दूसरे दिन मैंने क़हतानी की आंख के नीचे दो घाव देखे। कपड़े भी फटे हुए थे। शायद उन्हें लगता था कि वह माहदी हैं और उन्हें कुछ नहीं होगा, इसलिए वे कहीं भी आराम से घूम रहे थे।"
 
 
अब्दुल मुने सुल्तान को जुहेमान को भी क़रीब से देखने का मौक़ा मिला था। "हमने काबा के पीछे शरण ली, वह जगह सुरक्षित थी। वह आधे घंटे तक मेरी गोद में सोए। उनकी पत्नी उनके साथ आख़िर तक रही। जब लड़ाई गहरी हो गई तब वह जागे और हथियार लेकर अपने साथियों के पास चले गए।"
 
 
इस बीच सऊदी सुरक्षा बलों को मस्जिद के अंदर आकर पहले तल पर नियंत्रण करने में क़ामयाबी मिली। बचने के लिए लड़ाके पीछे हटे और बेसमेंट में चले गए। वहां से वे अंधेरे से दिन-रात लड़ते रहे।
 
 
अल-क़हतानी की मौत
भीषण लड़ाई और भारी गोलीबारी के बीच ख़ुद को माहदी बताने वाला शख़्स घायल हो गया जबकि मान्यताओं के हिसाब से माहदी तो घायल हो ही नहीं सकते थे।
 
 
मोहम्मद अब्दुल्ला अल-क़हतानी जिस समय दूसरे फ़्लोर पर थे, उन्हें गोली लग गई। लोग चिल्लाने लगे- माहदी ज़ख़्मी हैं, माहदी जख़्मी हैं। कुछ लोग उनकी ओर गए ताकि उन्हें बचा सकें मगर भारी फ़ायरिंग के कारण उन्हें पीछे हटना पड़ा।
 
 
कुछ लोग नीचे उतरकर जुहेमान के पास गए और कहा कि माहदी ज़ख़्मी हैं। यह सुनकर अपने साथ लड़ रहे लड़ाकों से जुहेमान ने कहा- इनकी बातों पर यक़ीन न करो, ये भगौड़े हैं।
 
 
फ़्रांसीसी अभियान
मस्जिद पर इस क़ब्ज़े को ख़त्म करने में मदद के लिए पाकिस्तान ने कमांडो की एक टीम सऊदी अरब भेजी थी। उधर कुछ फ्रेंच कमांडो भी गुप्त अभियान के तहत सऊदी अरब आए ताकि वे सऊदी सुरक्षाबलों को सलाह दे सकें और उपकरणों वगैरह के ज़रिये उनकी मदद कर सकें।
 
 
योजना बनी कि अंडरग्राउंड हिस्से में छिपे लड़ाकों को बाहर निकालने के लिए गैस इस्तेमाल की जाए। बेसमेंट वाले उस हिस्से में मौजूद एक शख़्स ने अपना अनुभव इस तरह से बयां किया था, "अंदर बहुत गर्मी और बदबू थी। टायरों के जलने की, ज़ख़्मों की, मुर्दों की सड़न की। ऐसा लगता था कि हमारे ऊपर मौत पसर गई थी। मुझे नहीं मालूम कि हम लोग कैसे बच गए।"
 
 
आख़िरकार दो हफ़्तों बाद अंदर बचे हुए लड़ाकों ने आत्मसमर्पण कर दिया। 20 नवंबर से चार दिसंबर 1979 तक यह संकट चला। 63 लोगों को सऊदी अरब ने फांसी दे दी, जिनमें जुहेमान भी शामिल थे। बाक़ियों को जेल में डाल दिया गया।
 
 
इसके बाद सऊदी प्रशासन तथाकथित माहदी के शव की तस्वीर प्रकाशित की थी। इस लड़ाई के कारण मस्जिद को भारी नुक़सान पहुंचा था, सैकड़ों की मौत हुई थी और लगभग एक हज़ार लोग घायल हुए थे।
 
 
बेशक मस्जिद क्षतिग्रस्त हो गई मगर मक्का को नुक़सान नहीं पहुंचा। लड़ाई ख़त्म होने के बाद मस्जिद को देखने वाले एक शख़्स ने मंज़र को इस तरह से बयां किया था, "मस्जिद की हालत देखकर तो मेरा सीना ही मानो छलनी हो गया। इस्लाम की इस पवित्र मस्जिद को कैसे नुक़सान हो सकता है? कैसे ये लोग इस मस्जिद को युद्धक्षेत्र में बदल सकते हैं।"
 
 
इस घटना के बाद सऊदी शाही परिवार ने और ज़्यादा कट्टरपंथी इस्लामिक छवि बनाने की कोशिश की। इसके लिए उसने कई सारे परिवर्तन किए और जिहाद को बढ़ावा दिया। मक्का की मस्जिद के इस घटनाक्रम के कारण ही वहाबियों की नई पीढ़ियों को आने वाले सालों में प्रेरणा मिली।
 

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