ब्राह्मण लड़के के लिए भागी शबाना

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2017 (11:22 IST)
'एक भागी हुई लड़की को मिटाओगे। उसके ही घर से?
 
कहानी उस लड़की की, जो ऐसे माहौल में रहती थी जहां बचपन में चादर ओढ़कर ट्यूशन जाने की सलाह दी जाती थी। ये लड़की प्यार में ऐसी जगह से निकली और करियर में भी अच्छा किया। बीबीसी हिंदी की सिरीज़ 'भागी हुई लड़कियां' में अब तक आप विभावरी, शिवानी, गीता और नाज़मीन की कहानी पढ़ चुके हैं। आज बारी है पांचवी किस्त की।
शबाना
मैं ऐसी जगह रहती थी, जहां लड़कियां घर से कम ही निकलती हैं। अम्मी, अब्बा कम पढ़े लिखे थे। लेकिन हमारी पढ़ाई में अब्बा ने कोई अड़चन नहीं आने दी। अब्बा की शर्त बस एक थी, ''पास होती चली जाओगी तो पढ़ती रहना। फेल होते ही घर बैठा दूंगा।''
 
अपनी कम्युनिटी में हमने ज़्यादातर औरतों को पिटते देखा है, जहां शौहर की बात माननी ही होती है। इसी वजह से अब्बा की बात का ख़ौफ मन में बैठ गया। अम्मी की ख़्वाहिश थी कि बेटियां घर से बाहर निकलें, पढ़ाई करें। लेकिन हमारे समाज में पीरियड शुरू होते ही लड़कियों को बालिग मान लिया जाता था। 'चादर ओढ़कर ट्यूशन, स्कूल जाओ' और 'आंखें नीचे करके चलो, ग्रुप में जाओ' जैसी बातें की जाने लगीं।
 
स्कूल, कॉलेज में मैंने टॉप किया। पढ़ाई में अच्छी थी। बीए के बाद एमए करने का मना था। जवाब मिला, ''एमए नहीं करने देंगे। एमए करके लड़कियां बूढ़ी हो जाती हैं।'' जैसे-तैसे एक प्रोफेसर की आर्थिक मदद से मैं एमए में दाख़िला ले पाई।
 
इस बीच लड़कों के रिश्ते आने लगे। कोई लड़का ऑटो चलाता था तो कोई सुतली बनाता था। मुझे ऐसी ज़िंदगी मंजूर नहीं थी। तभी एक उर्दू अख़बार में स्कॉलरशिप का विज्ञापन देखा। शुक्र ये रहा कि ये स्कॉलरशिप मुझे मिल गई। मैंने एक प्रोफेशनल कोर्स में दाख़िला ले लिया। पास होने के बाद कई जगह नौकरियां की।
 
इसी दौरान मेरी मुलाकात शोभित शुक्ला से हुई। करियर और ज़िंदगी के शुरुआती दिनों में शोभित ने एक अच्छे दोस्त की तरह मेरी काफी मदद की। मैं शोभित को लेकर बेकरार तो नहीं थी, पर मन में सॉफ्ट कॉर्नर बढ़ता जा रहा था।
 
हम दोनों एक-दूसरे को पसंद करते थे। आप शायद यक़ीन न करें लेकिन शोभित को शादी के लिए पहले मैंने ही प्रपोज़ किया। अम्मी हमारे बारे में सुनते ही नाराज़ हो गईं। घर से निकलना बंद करने की बात होने लगी। शोभित ने पैर छूकर भी अब्बा को मनाना चाहा लेकिन एक मुस्लिम बाप अपनी बेटी के लिए हिंदू ब्राह्मण लड़के को कैसे कुबूल करते?
 
उधर शोभित के यहां भी बवाल मच गया था। लहसुन, प्याज़ न खाने वाली ब्राह्मण फैमिली अपने बेटे के लिए एक मुस्लिम लड़की को कैसे कुबूल करते?
 
हालांकि 'लड़की तुम्हारे घर ही आ रही है' जैसी बातों से शोभित की फैमिली काफी दिनों बाद मान गई। लेकिन मेरी फैमिली अब भी अड़ी हुई थी। घर में रहती तो दिक्कतें बढ़तीं। मैं बदक़लामी नहीं चाहती थी और कम्युनिटी में शादी करके 'सुसाइड' नहीं कर सकती थी। एक रोज़ जब नौकरी के लिए घर से निकल रही थी, तब सबसे गले मिली। उस रोज़ मेरे घर से निकलने को बाद के दिनों में लोगों ने 'भागना' कहा।
 
हमने कोर्ट जाकर शादी कर ली। घर पर फ़ोन कर बताने की हिम्मत नहीं थी तो बस बहन को एसएमस कर दिया, ''शोभित से मैंने शादी कर ली है। दिल दुखा हो तो माफ़ करना। पर अब मैं शोभित की पत्नी हूं।''
 
घर से कई फोन आए। मैंने जब हिम्मत कर फ़ोन उठाया तो अब्बा बोले, ''किसी मुसलमान से शादी कर लेती या उसे ही मुसलमान बना लेती।'' अब्बा की कही बात मैं कैसे मान सकती थी। जब शोभित ने मुझे वैसे स्वीकार किया, जैसी मैं हूं। ससुराल में छोटे-मोटे समझौते करने पड़े। हालांकि एडजस्टमेंट का दौर मुश्किल रहा।
 
इस फ़ैसले से ज़िंदगी पर कई असर पड़े। अब नॉनवेज नहीं खा पाती हूं। सास को किए वादे को निभाना चाहती हूं। सिर्फ मीठी ईद मना पाती हूं। रमजान पर इफ्तियार पार्टी ज़रूर करती हूं। किसी को हर्ट करना गलत है इसलिए बकरीद नहीं मना पाती हूं। जामा मस्जिद जाने को मिस करती हूं। कई बार रोती भी हूं।
 
अब्बा के लिए अपनी पसंद की चप्पल न खरीद पाने और ज़रूरत के वक्त घरवालों के साथ न होने को मिस करती हूं। पर जब मुझे जब ज़रूरत होती है, तब अम्मी-अब्बा मेरे लिए हमेशा मौजूद रहते हैं। लेकिन जब हम बड़े फ़ैसले लेते हैं तो छोटी तकलीफें दरकिनार करनी होती हैं।
 
आज अपनी ज़िंदगी में अच्छा कर रही हूं और खुश हूं। करियर भी अच्छा चल रहा है। काम कुछ ऐसा है कि कई बार लड़कियों की मदद करने का मौका मिलता है। ताकि मेरे साथ उन लड़कियों के भी सपने पूरे हो सकें, जिनका घर से निकलना आज भी कुछ लोगों को चुभता है।
 
मेरे घर से निकलने या समाज की जुबान में कहें तो 'मेरे घर से भागने' की यही जीत है।
 
(इस सच्ची कहानी के सारे पात्र और जगहों के नाम बदले हुए हैं।)

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