लोकसभाः बीजेपी बढ़ती गई, मुसलमान घटते गए

गुरुवार, 4 अप्रैल 2019 (11:02 IST)
- यूसुफ़ अंसारी (वरिष्ठ पत्रकार) 
 
देश में 17वीं लोकसभा के लिए चुनाव प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। इस चुनाव की एक ख़ास बात ये भी है कि देश की दूसरी सबसे बड़ी धार्मिक आबादी मुस्लिम समुदाय काफी हद तक खामोश लग रहा है। न मुस्लिम संगठनों ने इस बार चुनाव में अपनी मांगें रखी हैं और न ही उनके वोट पर राजनीति करने वाली पार्टियां उनकी बात ही कर रही हैं। ऐसे में ये सवाल उठना लाज़मी है कि अगर चुनाव में मुसलमानों की बात नहीं हो रही है तो क्या चुनाव के बाद लोकसभा में मुसलमानों की बात हो पाएगी?
 
क्या उनके मुद्दे उठ पाएंगे? उनके मुद्दे उठाने वाले नुमाइंदे ठीक-ठाक तादाद में लोकसभा में पहुंच पाएंगे?
 
आज़ादी के बाद देश में ये शायद पहला लोकसभा चुनाव है जब न तो मुसलमानों के मुद्दे राजनीतिक दलों के एजेंडे में हैं और लोकसभा में मुसलमानों को प्रतिनिधित्व देना किसी पार्टी की प्राथमिकता में शामिल है। कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल जैसी तमाम पार्टियां को डर है कि अगर वो मुसलमानों की बात करेंगे तो इससे ध्रुवीकरण होगा और इसका सीधा फायदा बीजेपी को मिलेगा।
 
यहां तक कि मुस्लिम बहुल समझी जाने वाली सीटों पर भी इन पार्टियों को मुस्लिम उम्मीदवार उतारने में डर लग रहा है कि कहीं ध्रुवीकरण की वजह से उनका हिंदू वोटर बीजेपी की तरफ न भाग जाए। ये डर कितना जायज़ है इसकी पड़ताल करने पर पता चलता है कि जब से लोकसभा में बीजेपी की सीटें बढ़नी शुरू हुई हैं, तब से लोकसभा में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व घटता चला गया है।
 
सबसे ज़्यादा सीटों वाले राज्य में
आठवीं लोकसभा में बीजेपी के महज़ दो सांसद थे। तब लोकसभा में 46 मुस्लिम सांसद चुनकर आए थे। वहीं, 2014 में बीजेपी के सबसे ज़्यादा 282 सांसद जीते तो मुस्लिम सांसदों की संख्या घटकर 22 रह गई।
 
बाद में 2018 में उत्तर प्रदेश के कैराना लोकसभा सीट पर उपचुनाव में राष्ट्रीय लोक दल के टिकट पर तबस्सुम हसन की जीत से ये संख्या बढ़कर 23 हो गई। इस तरह उत्तर प्रदेश से भी एक मुस्लिम सांसद लोकसभा में पहुंच गया। लोकसभा की 80 सीटों वाले उत्तर प्रदेश से 2014 के आम चुनाव में एक भी मुसलमान सांसद नहीं जीता था।
 
प्रतिनिधित्व का अनुपात
साल 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में मुसलमानों की आबादी 14.2% है। आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व की बात करने वाले लोगों को ये उम्मीद रहती है कि इस हिसाब से 545 सांसदों वाली लोकसभा में 77 मुसलमान सांसद होने चाहिए। 
 
लेकिन किसी भी लोकसभा में मुस्लिम सांसदों की संख्या इस आंकड़े को नहीं छू पाई है। पहली लोकसभा में या मुस्लिम सांसदों की संख्या महज़ 21थी। तब लोकसभा के कुल सदस्यों की संख्या 489 थी। लोकसभा में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व 4.29% था।
 
वहीं पिछली लोकसभा में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व आजादी के बाद सबसे कम रहा। लोकसभा का कार्यकाल खत्म होने के वक्त कुल 23 मुस्लिम सांसद थे जो कि 545 सदस्य वाली लोकसभा में 4.24% बैठता है।
 
आज़ादी के बाद
पहली लोकसभा में मुस्लिम सांसदों का प्रतिशत कम होना तर्कसंगत लगता है। उस वक्त देश के बंटवारे की त्रासदी से गुज़रा था। लिहाज़ा ये माना जा सकता है कि समाज के एक बड़े वर्ग में ये भावना रही होगी कि मुसलमानों ने पाकिस्तान के रूप में अपना अलग हिस्सा ले लिया है।
 
देश की आजादी और बंटवारे के करीब 67 साल बाद हुए 2014 के लोकसभा चुनाव में सबसे कम मुस्लिम सांसदों का जीतना राजनीति में में उनके तिरस्कार की तरफ इशारा करता है। अगर आज मुस्लिम वोटों पर राजनीति करने वाली तमाम पार्टियों को ये डर सता रहा है कि रहा है कि ज्यादा संख्या में मुस्लिम उम्मीदवार उतारने से उनके हिंदू वोटर बीजेपी में भाग सकते हैं तो ये मानने की वजह समझ में आती है।
 
क्या कहते हैं आंकड़े...
पिछले लोकसभा चुनाव पर नजर डालने से ये बात साफ तौर पर उभर कर सामने आती है। 16वीं लोकसभा में देश के सिर्फ 7 राज्यों से मुसलमानों का प्रतिनिधित्व हुआ था। सबसे ज्यादा 8 सांसद पश्चिम बंगाल से जीते थे, बिहार से 4, जम्मू और कश्मीर और केरल से 3-3, असम से 2 और तमिलनाडु और तेलंगाना से एक-एक मुस्लिम सांसद जीत कर लोकसभा में पहुंचा था।
 
इनके अलावा केंद्र शासित प्रदेश लक्षद्वीप से एक सांसद जीता था। इन 8 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश में देश के करीब 46% मुसलमान रहते हैं। इनमें लोकसभा की 179 सीटें आती है। देश के बाक़ी 22 राज्यों और 6 केंद्र शासित प्रदेशों से लोकसभा में मुस्लिम प्रतिनिधित्व नहीं है। जिन 28 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 54% मुसलमान रहते हैं उनमें से एक भी मुस्लिम सांसद नहीं जीता था जबकि इन राज्यों में लोकसभा की 364 सीटें हैं।
 
मुसलमानों का प्रतिनिधित्व
आज़ादी के बाद अब तक 16 लोकसभा के लिए हुए चुनाव में जीते मुस्लिम सांसदों और हर लोकसभा में उनके प्रतिशत पर नजर डालें तो बड़े दिलचस्प आंकड़े सामने आते हैं। पहली लोकसभा से लेकर छठी लोकसभा तक मुसलमानों का प्रतिनिधित्व धीरे-धीरे बढ़ा। जहां पहली लोकसभा में महज़ 21 मुस्लिम सांसद चुने गए थे, वहीं छठी लोकसभा में ये संख्या 34 तक पहुंच गई। लोकसभा में मुसलमानों का प्रतिशत 4.29 से लेकर 6.2 साल तक पहुंच गया।
 
संख्या गिरने का सिलसिला
सातवीं लोकसभा में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व ने अचानक उछाल मारी और लोकसभा में मुसलमानों की संख्या 49 तक पहुंच गई। तब लोकसभा में मुसलमानों का प्रतिशत 9.26 था। 1984 में हुए आठवीं लोकसभा के लिए चुनाव में 46 मुस्लिम सांसद जीते लेकिन 1989 में आंकड़ा गिर कर 33 रह गया।
 
ये वही दौर था जब लोकसभा में बीजेपी के सांसदों की संख्या बढ़नी शुरू हुई। इसी के साथ लोकसभा में मुस्लिम सांसदों की संख्या गिरने का सिलसिला शुरू हो गया। 1989 में बीजेपी के 86 सांसद जीते थे और इसी चुनाव में मुस्लिम सांसदों की संख्या 46 से गिरकर 33 पर आ गई।
 
यानी लोकसभा में सीधे-सीधे 13 मुस्लिम सांसद कम हो गए। 1991 में बीजेपी ने 120 सीटें जीती थीं तब मुस्लिम सांसदों की संख्या और गिरकर 28 पर आ गई।
 
लोकसभा चुनाव में
साल 1996 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 163 जीती थीं तब भी सिर्फ 28 मुस्लिम सांसद ही जीत पाए थे। साल 1998 में हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 182 जीती थीं तब लोकसभा में 29 मुस्लिम सांसद जीते थे। साल 1999 बीजेपी ने फिर से 182 सीटें ही जीतीं। इस बार मुस्लिम सांसदों की संख्या 32 हो गई।
 
लेकिन 2004 में जैसे ही बीजेपी 182 सीटों से 138 सीटों पर लुढ़की मुस्लिम सांसदों की संख्या बढ़कर 36 हो गई। साल 2009 मैं 15वीं लोकसभा के लिए हुए आम चुनाव में मुस्लिम सांसदों की संख्या गिरकर 30 पर आ गई।
 
चिंता का विषय
लोकसभा में मुसलमानों का घटता प्रतिनिधित्व चिंता का विषय है। लेकिन इसकी चिंता किसी को है नहीं। सवाल ये है कि जब समाज के दबे कुचले तबके को उसकी आबादी के अनुपात में लोकसभा में प्रतिनिधित्व दिया गया है तो फिर मुस्लिम समुदाय को इस फॉर्मूले से क्यों बाहर रखा गया है। साल 2006 में आई सच्चर कमेटी की रिपोर्ट साफ तौर पर कहती है कि देश में मुसलमानों की हालत दलितों से बदतर है।
 
अगर दलितों को उनकी आबादी के हिसाब से लोकसभा में मिला हुआ है तो फिर मुसलमान इस हिस्सेदारी से वंचित क्यों हैं। लोकसभा में बीजेपी का है मुसलमानों का प्रतिनिधि 4.24 से लेकर 6.24 के बीच रहा है जो आबादी के प्रतिशत 14.2% से बहुत कम है।
 
आरक्षण की बुनियाद
ग़ौरतलब है कि समाज के सबसे निचले हिस्से दलितों और आदिवासियों को लोकसभा में उनकी आबादी के हिसाब से आरक्षण मिला हुआ है। लोकसभा की 84 सीटें दलितों के लिए आरक्षित है वहीं 47 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित है इनके अलावा हर लोकसभा में एंग्लो इंडियन समाज के दो लोगों को नामित किया जाता है।
 
ताकि उनकी आबादी के हिसाब से लोकसभा में उन्हें प्रतिनिधित्व मिल सके। संविधान बनाते वक्त महसूस किया गया थी कि एंग्लो इंडियन समाज की आबादी देश में किसी भी लोकसभा सीट पर आबादी इतनी नहीं है कि वो अपना प्रतिनिधि चुनकर लोकसभा में भेज सकें।
 
पिछले करीब ढाई दशक से लोकसभा में महिलाओं के 35% आरक्षण देने की भी कोशिश हो रही हैं। उसके पीछे भी यही तर्क है कि महिला सशक्तिकरण के लिए राजनीति और सत्ता में आबादी के हिसाब से उनकी हिस्सेदारी जरूरी है। 17वीं लोकसभा में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व बढ़ेगा या घटेगा। यह तो चुनावी नतीजे बताएंगे। लेकिन देर सबेर ये मुद्दा लोगों की नज़र खींचेगा।

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