मुजफ्फरपुर में एक्यूट इनसेफिलाइटिस सिंड्रोम (एइस) की वजह से मरने वाले बच्चों का आंकड़ा 103 तक पहुंच गया है। इस बीच शहर की शान और फलों की रानी के तौर पर पहचाने जाने वाला रसीला फल 'लीची' विवादों के केंद्र में आ गया है।
चिकित्सा विशेषज्ञों के साथ साथ बिहार सरकार के मंत्रियों तक ने मीडिया से बातचीत में कहा की बच्चों की मौत के पीछे उनका लीची खाना भी एक कारण हो सकता है।
लीची के बीज में मेथाईलीन प्रोपाइड ग्लाईसीन (एमसीपीजी) की सम्भावित मौजूदगी को 'पहले से ही कम ग्लूकोस स्तर वाले' कुपोषित बच्चों को मौत के कगार पर ला खड़ा करने के लिए जिम्मेदार माना जा रहा है। हालांकि इस मुद्दे पर चिकित्सा विशेषज्ञ बंटे हुए हैं और हर बार वह यह भी जोड़ते हैं कि इस मामले में अभी कुछ निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता।
अभी तक हुए शोधों के अनुसार लीची को बच्चों की मौत के पीछे छिपे कई कारणों में से सिर्फ़ एक 'सम्भावित' कारण माना गया है। लेकिन इस पूरे विवाद का असर मुजफ्फरपुर की शान मानी जाने वाली लीची के व्यपारियों और इस रसीले फल के किसानों पर भी पड़ रहा है।
लीची से होने वाली कमाई पर पूरी तरह आश्रित मुजफ्फरपुर क्षेत्र के किसानों को लगता है कि बिना निर्णायक सबूत के उनकी फसल की इस बदनामी से उनकी बिक्री पर बुरा असर पड़ेगा। शहर की आम जनता भी मानती है कि मासूमों की मौत का असली कारण न ढूंढ पाने वाली बिहार सरकार लीची पर ठीकरा फोड़ रही है।
मुजफ्फरपुर रेलवे स्टेशन के ठीक सामने लीची बेच रहे किसानों के साथ खड़े स्थानीय निवासी सुकेश कुमार साही लीची को अपने शहर की शान मानते हैं।
रसीले पल्प वाले इस फल की टोकरी की ओर इशारा करते हुए वह कहते हैं। 'हमारी लीची ही तो हमारी शान है। मैं साठ से ऊपर का हो गया हूं और सारी जिंदगी यहीं लीची खाते हुए गुजार दी। लोग भले ही कहने को जो मर्जी कहें लेकिन सच तो यही की यहां के बच्चों सदियों से लीची खाते हुए ही बड़े हो रहे हैं। धूप की वजह से बच्चे बीमार पड़ सकते हैं क्योंकि मुजफ्फरपुर में ऐसी 45 डिग्री वाली धूप कभी नहीं देखी। लीची को बिना वजह बदनाम किया जा रहा है जबकि मुजफ्फरपुर का मतलब ही लीची है और लीची का पर्याय मुजफ्फरपुर।
'बिहार लीची ग्रोअर असोसिएशन' के बच्चा प्रसाद सिंह को लगता है कि लीची को इसलिए निशाना बनाया जा रहा है क्योंकि इनसेफ़िलाइटिस की वजह से बच्चों के जान गंवाने और लीची की फ़सल का समय और मौसम लगभग एक है।
अगर लीची खाने से बच्चे मरते तो अच्छे बड़े शहरी घरों के भी बच्चे मरते। लेकिन ऐसा तो नहीं है। सिर्फ़ ग़रीब परिवारों के कुपोषित बच्चे ही इनसेफ़िलाइटिस का शिकार हो रहे हैं। जबकि यहां की लीची तो मुजफ्फरपुर-पटना से लाकर दिल्ली बम्बई तक में सब लोग खाते हैं। फिर मौतें सिर्फ़ ग्रामीण मुजफ्फरपुर के सबसे गरीब घरों में क्यों हो रही है? कोई कारण नहीं मिल रहा तो लीची को सिर्फ़ इसलिए दोषी ठहराया जा रहा है क्योंकि लीची की फ़सल का और बच्चों के बीमार पड़ने का सीजन लगभग एक है।
बिहार में लीची
बिहार के बीचों-बीच से बेहने वाली गंडक नदी के उत्तरी भाग में लीची का उत्पादन होता है। हर साल समस्तिपुर, पूर्वी चंपारन, वैशाली, और मुजफ्फरपुर जिलों की कुल 32 हजार हेक्टेयर ज़मीन पर लीची का उत्पादन किया जाता है।
मई के आखिरी और जून के पहले हफ्ते में होने वाली लीची की फसल से सीधे तौर पर इस क्षेत्र के 50 हज़ार से भी ज़्यादा किसान परिवारों की आजीविका जुड़ी है। बच्चा प्रसाद बताते हैं कि गर्मियों के 15 दिनों में ही यहां ढाई लाख टन से ज़्यादा की लीची का उत्पादन होता है।
मुजफ्फरपुर और बिहार की बिक्री का तो कोई निश्चित आंकड़ा नहीं लेकिन बिहार से बाहर भारत के अन्य राज्यों में भेजी जाने वाले लीची 15 दिनों की सालाना फसल में ही गंडक नदी के क्षेत्र वाले बिहार के किसानों को अनुमानित 85 करोड़ रुपए तक का व्यवसाय दे जाती है। ऐसे में लीची की हो रही इस बदनामी से यहां के किसानों के पेट पर हमला हो रहा है। इससे आनी वाली फ़सल में हमें बहुत नुकसान होगा।
मैंगो बनाम लीची
लीची उगाने वाले एक स्थानीय किसान भोला झा को लगता है कि लीची को बदनाम करने के पीछे 'आम' के व्यापारियों की लॉबी का हाथ है।
बीबीसी से बातचीत में वह कहते हैं, 'बच्चों का मरना हम सबके लिए दुखद है। लेकिन इसके सही कारण को ढूंढा जाना चाहिए। लीची यहां के बच्चे सदियों से खाते आ रहे हैं। लेकिन कुछ मीडिया संस्थानों के साथ मिलकर चेन्नई, हैदराबाद और मुंबई की मैंगो लॉबी इस तरह से लीची को बदनाम करने की कोशिश कर रही है। क्योंकि सीजन में उनका मौंगो बिकता है 10-12 रुपए के रेट पर, वहीं भारत के महानगरों में लीची 250 रुपए तक के रेट पर बेचा जाता है। इसीलिए लीची किसानों को इस तरह से बदनाम करने की कोशिशें की जा रही है। कोई भी सबूतों के साथ कुछ नहीं कह रहा, सिर्फ कयासों के आधार पर एक पूरी फसल को बदनाम किया जा रहा है'।
इस मामले में और जानकारी हासिल करने के लिए हमने मुजफ्फरपुर में मौजूद राष्ट्रीय लीची अनुसंधान केंद्र के निदेशक डॉक्टर विशाल नाथ ने बात की। लीची को इनसेफिलाइटिस का कारण बताने के लिए पुख्ता सबूतों की ना मौजूदगी का हवाला देते हुए वह बताते हैं, 'दक्षिण अमेरिका के कुछ हिस्सों में लीची के जैसा ही दिखने वाला 'एकी' नाम के फल के बीज में एमसीपीजी के ट्रेसेस पाए गए हैं।
बात यह है कि वनस्पति विज्ञान की नजर में एकी और लीची 'सापंडेसिया' नामक एक ही प्लांट फैमिली से आते हैं। इसलिए जब बंगलादेश में इनसेफ़िलाइटिस के कुछ मामले आना शुरू हुए तो इस पर शोध कर रहे कुछ बाल रोग विशेषज्ञों ने एक ही प्लांट फैमिली और फसल के एक ही मौसम की वजह से इसी 'लीची डीसीज' या 'लीची रोग' कहना शुरू कर दिया। जबकि लीची से इनसेफिलाइटिस के सीधे तौर पर जुड़े होने के कोई निर्णायक सबूत नहीं है। लीची के कुल तीन हिस्से होते हैं। उसका छिलका, गूदा यानी पल्प और बीज। इनमे से खाने योग्य सिर्फ 'प्लप' होता है।
डॉक्टर नाथ आगे बताते हैं, 'लीची के पल्प में बहुत से सेहतमंद करने वाले विटामिन और मिनरल होते हैं। कच्ची लीची के बीज में एमसीपीजी की जिस बारीक मौजूदगी की बात की जा रही है, उसका कितना प्रतिशत हिस्सा फल के पल्प में होता है और कितना बीज या छिलके में, इसको लेकर अभी तक कोई निर्णायक शोध सामने नहीं आया है। इसलिए लीची को इंसेफेलाइटिस का मूल कारण बाताने वाले तर्क का न ही सतत (या कंसिसटेंट है) और न ही इसका कोई निर्णायक सबूत हैं'।
डॉक्टर नाथ जोड़ते हैं कि सैकड़ों सालों से लीची उगा कर खाने वाले भारत में, इंसेफेलाइटिस विवाद के बाद इस फ़सल पर हमेशा के लिए ख़त्म हो जाने का खतरा मंडरा रहा है।
'अगर अगले दो साल ऐसा हाई चलता रहा तो लीची के लिए मशहूर मुजफ्फरपुर के किसान गहरे नुक़सान में चले जाएंगे और आख़िरकार लीची की खेती छोड़ने पर मजबूर हो जाएंगे। यह दुखद इसलिए है क्योंकि अभी तक यह साबित ही नहीं हुआ है कि इंसेफेलाइटिस के पीछे लीची का हाथ है। हमने ख़ुद भी लीची की 20 प्रकारों पर 2 साल तक शोध किया है और इसके नतीजे हम जल्दी ही प्रकाशित करवाएंगे। हमारे शोध के अनुसार भी लीची को सीधे सीधे इंसेफेलाइटिस के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।'