पिछले डेढ़-दो दशक के बाद बिहार में यह पहला ऐसा चुनाव है, जिसमें मुख्यमंत्री नीतीश कुमार चर्चाओं से ग़ायब होते दिख रहे हैं। साल 2014 के लोकसभा चुनाव और 2015 के विधानसभा चुनाव में जमकर सुर्ख़ियां बटोरने वाले और कभी प्रधानमंत्री पद की रेस में रहने वाले नीतीश कुमार आज अदृश्य से हो गए हैं। चुनावी चर्चाओं में भी उनकी बात कम ही हो रही है।
जानकार बताते हैं कि वर्ष 1994 में लालू से नाता तोड़ने के बाद उनका उभार बतौर एक विद्रोही और प्रगतिशील छवि के नेता के रूप में हुआ था। राज्य में साल 2005 में एनडीए के साथ सत्ता में आने के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को सर्वमान्य नेता के साथ-साथ बतौर एक्टिविस्ट के रूप को भी जनता ने स्वीकार किया था।
लेकिन, बदली राजनीतिक परिस्थितियों में आज सीएम नीतीश कुमार को विपक्ष कोई फैक्टर तक मानने को तैयार नहीं है। चुनावी चर्चाओं के भी वो मुख्य विषय नहीं बन पा रहे हैं। मुख्य विपक्षी दल राष्ट्रीय जनता दल के प्रदेश अध्यक्ष रामचंद्र पूर्वे का मानना है कि सामाजिक या राजनीतिक जीवन में साख का बहुत बड़ा महत्व है। वो कहते हैं कि पिछला जो गठबंधन बना था उसने नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाया।
पूर्वे कहते हैं, "जनादेश का अपमान और लालू प्रसाद के साथ विश्वासघात करने के कारण राजनीति में नीतीश कुमार की साख समाप्त हो गयी। इस वजह से उनकी सामाजिक और राजनीतिक प्रासंगिकता समाप्त हो चुकी है। आज नीतीश कुमार सक्रिय मुख्यमंत्री नहीं बल्कि एक्टिंग सीएम बन गए हैं।"
'राजनीति का अपरिहार्य चेहरा हैं नीतीश'
वहीं भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष देवेश कुमार का कहना है कि अगर मुख्यमंत्री इस चुनाव में अप्रासंगिक हैं तो इसकी चर्चा क्यों की जा रही है। उधर, जनता दल यूनाइटेड के प्रदेश प्रवक्ता राजीव रंजन प्रसाद राजद के बयान को पूरी तरह से नकारते हैं। उनके अनुसार नीतीश कुमार पिछले दो दशकों से बिहार की राजनीति के अपरिहार्य चेहरे रहे हैं। नीतीश कुमार की बिहार में प्रासंगिकता पहले से ज्यादा बढ़ी है।
"मुख्यमंत्री ने शराबबंदी, सात निश्चय, बिहार को विकास की राह पर आगे ले जाने के लिए जनता से आशीर्वाद मागा था। कभी भी उन्होंने लालू यादव के ग़लत कामों पर पर्दा डालने के लिए जनता से कोई वादा नहीं किया था। कभी भी लालू यादव के पुत्रों के भ्रष्टाचार को नजरअंदाज़ करने के लिए जनादेश नहीं मांगा था।"
वो दावा करते हैं कि 2015 में राजद को संजीवनी नीतीश कुमार ने ही दिया था। उसके आरोप निराधार हैं।
कभी थे प्रधानमंत्री पद के दावेदार
राज्य में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की साख और धाक पर छिड़ी राजनीतिक बहस के दावों और प्रतिदावों पर वरिष्ठ पत्रकार अरुण श्रीवास्तव का कहना है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बार-बार पाला बदलने से उनकी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगा है।
वो कहते हैं कि यदि वे किसी एक जगह बने रहते तो इनकी विश्वसनीयता बनी रहती। ये भाजपा के साथ तो हैं, बोल भी रहे हैं, लेकिन उनको अपनी सीमा पता है। उनके लिए एक लक्ष्मण रेखा सी खींच दी गई है।
"नीतीश कुमार आज आम लोगों से जुड़े किसी एजेंडा को नहीं उठा पा रहे हैं। ये बड़ी दिक़्क़त उनके सामने आ रही है।"
एक समय आया था जब राष्ट्रीय स्तर पर इनका उभार हुआ था। बतौर भावी प्रधानमंत्री इनकी चर्चा भी शुरू हो चुकी थी और विपक्ष इनको प्रोजेक्ट भी कर रहा था। हालाँकि, कांग्रेस की वजह से ऐसा हो नहीं पाया।
कभी एनडीए तो कभी राजद के साथ रहने की वजह से धीरे-धीरे वो राष्ट्रीय फलक से गुम होते चले गए। राजनीति से इतर उनका पर्सनल डैमेज इसे कहा जा सकता है। आज राजनीतिक दलों के नेताओं के बीच इन्होने अपनी विश्वसनीयता खो दी है।
बिहार के लोगों के बीच वो ख़ुद को रिलेवेंट बनाना चाह रहे हैं इसलिए ये प्रचार करने जा रहे। लेकिन, बिहार के लोगों के मनोभाव को वो पकड़ नहीं पा रहे हैं। सामाजिक न्याय की बात इतनें दिनों से कह रहे हैं, लेकिन वह लालू यादव के सामाजिक न्याय से कैसे भिन्न है यह वो नहीं बता पा रहे हैं।
नीतीश की साख
उधर वरिष्ठ पत्रकार नलिन वर्मा का कहना है कि यह केंद्र का चुनाव है और इस चुनाव को नीतीश कुमार के कॉन्टेक्स्ट में देखना उचित नहीं है।
जबकि, वरिष्ठ पत्रकार एसए शाद बताते हैं कि मुख्यमंत्री को लेकर जो एक चर्चा थी वह इस बार कम है। वर्ष 2000 से वो लगातार लालू यादव के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ रहे थे। साल 2005 में नीतीश कुमार लालू प्रसाद को अंततः शिकस्त देने में कामयाब रहे। लालू बिहार के एक क़द्दावर नेता माने जाते थे और उनको हराने की वजह से वो चर्चा में रहे।
साल 2010 के चुनाव में भी यही स्थिति रही। वहीं 2014 में वो नरेंद्र मोदी को चुनौती दे रहे थे और 2015 में वो फिर लालू प्रसाद के साथ 20 साल बाद एक हो गए। दोनों मिलकर नरेंद्र मोदी को चुनौती दे रहे थे और इस फेनोमेनन को समूचा देश देख रहा था, इसलिए वो प्रासंगिक थे।
वर्तमान लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी के साथ हैं और नरेंद्र मोदी के नाम पर ही बिहार में एनडीए वोट मांग रही है। ख़ुद नीतीश कुमार अपनी सभा में नरेंद्र मोदी की लगातार प्रशंसा कर रहे हैं। उनके विकास कार्यों की सराहना भी कर रहे हैं। इसलिए उनकी चर्चा में कमी आयी है।
साल 2017 में महागठबंधन से नाता तोड़ना उनका निर्णय था, लेकिन फिर से एनडीए में जाने से उनकी साख पर असर पड़ा है। ख़ुद जदयू के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर ने हाल में कहा था कि नीतीश कुमार को महागठबंधन में टूट के बाद चुनाव में जाना चाहिए था।