भारतीय राजदूतों से जानिए उत्तर कोरिया में कैसे चलता है जीवन

Webdunia
शुक्रवार, 22 सितम्बर 2017 (11:28 IST)
- रजनीश कुमार 
उत्तर कोरिया क्या दुनिया के लिए रहस्य है? आप उत्तर कोरिया के बारे में क्या जानते हैं? जो जानते हैं वो कितना सच है? उत्तर कोरिया में आज़ाद प्रेस नहीं है। विपक्ष नहीं है। वहां की जो भी जानकारी आती है, वो कैसे आती है?
 
संयुक्त राष्ट्र की जनरल असेंबली में दुनिया भर के नेताओं के लिए यह छोटा सा देश सबसे अहम मुद्दा है। इसी महीने 1948 में कोरिया का विभाजन हुआ था और विश्व के मानचित्र पर उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया के रूप में दो नए देशों का जन्म हुआ। आज की तारीख़ में साउथ कोरिया तरक्की की राह पर बहुत आगे निकल चुका है जबकि उत्तर कोरिया की चर्चा हर दिन नए प्रतिबंधों, मिसाइल परीक्षणों और धमकियों के लिए होती है।
 
उत्तर कोरिया लगातार मिसाइल परीक्षण कर रहा है और संयुक्त राष्ट्र की हर चेतावनी नज़रअंदाज़ कर देता है। हर दो-तीन महीने पर प्रतिबंध और कड़े किए जाते हैं पर वह थमता नहीं है। 1980 के दशक में ही दक्षिण कोरिया दोहरे अंक में प्रगति की राह पर बढ़ गया था। दक्षिण कोरिया के सिर पर अमेरिका का साया था तो उत्तर कोरिया पर कम्युनिस्ट देश चीन और रूस की छाया थी।
 
महाशक्तियों से घिरा कोरिया
जगजीत सिंह सपरा 1997 से 1999 तक उत्तर कोरिया में भारत के राजदूत थे। उन्होंने बीबीसी से कहा, 'जब उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया एक थे तो रूस, चीन और जापान की कोशिश थी कि उनका यहां पूरा नियंत्रण रहे। यह सामरिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण देश है इसलिए कोरिया पर नियंत्रण की कोशिश एक ऐतिहासिक तथ्य है।'
 
1910 में जापान ने उत्तर कोरिया को अपना उपनिवेश बना लिया। जापान तो यहां तक कहता था कि उत्तर कोरिया उसका ही है। सपरा कहते हैं कि कोरियाई बिल्कुल अलग हैं। मंगोलियाई नाक-नक्श में कोरियाई जापानियों और चीनियों से बिल्कुल अलग हैं। सपरा कहते हैं, ''उत्तर और दक्षिण कोरिया के बीच काफ़ी सांस्कृतिक समानता है। ये इतने मेहनती होते हैं कि देखकर हैरान रह जाएंगे। दक्षिण कोरिया में मैं 1988 से 1991 तक था। उस दौरान मैंने वहां भी देखा कि कोरियाई जमकर मेहनत करते हैं। उस वक़्त मैंने महसूस किया दक्षिण कोरियाई नागरिक चाहते थे कि दोनों देश एक हो जाएं। उत्तर कोरियाई नागरिक भी यही चाहते थे कि वो साथ हो जाएं।''
 
उत्तर कोरिया रहस्य
जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में कोरियाई अध्ययन केंद्र की प्रोफ़ेसर वैजयंति राघवन कहती हैं, 'उत्तर कोरिया वाक़ई हमारे लिए रहस्य है। वहां से जानकारी मिलना काफ़ी मुश्किल है। हम जो भी जानते हैं वो पश्चिम के मीडिया के ज़रिए ही जानते हैं। वो ख़ुद से तो कुछ कहते नहीं हैं और जो कहते हैं वो इतना प्रॉपेगैंडा में लिपटा होता है कि उन पर भरोसा करना मुश्किल होता है।'
 
उन्होंने कहा, 'उत्तर कोरिया ख़ुद को रहस्य में ही रखना चाहता है। यह उनकी नीति है। उत्तर कोरिया लगातार मिसाइल परीक्षण कर रहा है। परमाणु कार्यक्रम भी विकसित कर रहा है। ये गुप्त रूप से मिसाइल टेक्नॉलजी बेच भी रहे हैं।' ''इसीलिए उत्तर कोरिया अमेरिका के लिए लीबिया और इराक़ की तरह आसान नहीं है।
 
अमेरिका तो इस इलाक़े में है ही नहीं जबकि रूस और चीन यहीं हैं। रूस और चीन की उत्तर कोरिया की तरफ़ सहानुभूति तो है लेकिन एक हद तक ही। रूस और चीन हद से ज़्यादा नहीं सहेंगे।' उत्तर कोरिया कुछ भी करता है तो अमेरिका चीन की तरफ़ देखता है। दरअसल, उत्तर कोरिया का 80 फ़ीसदी व्यापार चीन से होता है। ऐसे में अमेरिका का चीन की तरफ़ देखना लाजिमी है।
 
सपरा कहते हैं, 'कोरियाई दो महाशक्तियों से घिरे हैं। एक तरफ़ चीन है तो दूसरी तरफ़ जापान है। जापान और दक्षिण कोरिया में अमेरिका भी मौजूद है। ऐसे में उत्तर कोरिया ख़ुद को असुरक्षित महसूस करता है। कोरिया में रहते हुए आप महूसस कर सकते हैं वो किसी पर निर्भर नहीं होना चाहते हैं। वो हमेशा आत्मनिर्भर होना चाहते हैं।'
 
अमेरिकी प्रस्ताव
उन्होंने कहा, 'उत्तर कोरिया ने जैसी अपनी दुनिया गढ़ी है उसमें बहुत हैरानी नहीं होती है। पिछले 15 सालों में इराक़, लीबिया और अभी सीरिया में जो कुछ भी हो रहा है, ऐसे में उत्तर कोरिया का नेतृत्व ख़ुद को सक्षम बनाकर रखना चाहता है।'
 
सपरा ने कहा, 'अमेरिका और पश्चिम के देशों ने 1994 में उत्तर कोरिया के साथ एक समझौता किया था। अमेरिका ने कहा था कि उत्तर कोरिया परमाणु कार्यक्रम नहीं चलाए। उत्तर कोरिया का कहना था कि वो शांतिपूर्ण इस्तेमाल के लिए परमाणु कार्यक्रम चला रहा है। उसका कहना था कि वह ऊर्जा के लिए ऐसा कर रहा है। इसके बदले अमेरिका ने लाइट वाटर रिएक्टर बनाने की पेशकश की थी।'
 
उत्तर कोरिया को ऊर्जा की ज़रूरत रहती है क्योंकि वहां तापमान माइनस 20 डिग्री तक पहुंच जाता है। उत्तर कोरिया अमेरिका प्रस्ताव पर तैयार हो गया था। हालांकि यह समझौता मुकाम तक नहीं पहुंच पाया क्योंकि अमेरिका में सरकार बदल गई थी। जब यह समझौता हुआ तो सत्ता में बिल क्लिटंन थे। बाद में रिपब्लिकन आए तो यह समझौता ठंडे बस्ते में चला गया।
 
पूरब में शीतयुद्ध अब भी ख़त्म नहीं हुआ
उन्होंने कहा, 'बाद में इराक़ और लीबिया का जो हश्र हुआ उसके बाद उत्तर कोरिया के रुख में भी परिवर्तन आया। ऐसा नहीं है कि अमेरिकी पेशकश पर जो उनका आधिकारिक रुख था वही पर्दे के पीछे भी रहा होगा। संभव है कि उनका परमाणु कार्यक्रम तब भी चल रहा होगा। इसे मिसाल के तौर पर ईरान के साथ देख सकते हैं। ईरान के साथ भी समझौता तो गया है लेकिन वो कर क्या रहा है ये किसी को पता नहीं है।''
 
सपरा कहते हैं, ''यूरोप में भले शीत युद्ध ख़त्म हो गया है लेकिन पूरब में अब भी शीत युद्ध जैसी स्थिति है। चीन और रूस नहीं चाहते हैं कि अमेरिका उनकी सरहद तक पहुंच जाए। नैतिक रूप से चीन और रूस उत्तर कोरिया के साथ हैं।''
 
1980 के दशक की शुरुआत में उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया की स्थिति में कोई फ़र्क़ नहीं था। उस वक़्त दोनों देशों के नागरिकों की हैसियत समान थी। उस वक़्त सोवियत संघ टूटा नहीं था। कम्युनिस्ट शासन था। सबको घर मिल जाता था और खाने-पीने की भी कमी नहीं थी। सोवियत यूनियन से इनके व्यापार काफ़ी थे।
 
1980 के दशक के आख़िर में ही दक्षिण कोरिया का विकास दोहरे अंक में हुआ। दूसरी तरफ़ सोवियत संघ का पतन हो गया। सोवियत संघ के पतन के कारण उत्तर कोरिया पानी के ज़रिए दूसरे कम्युनिस्ट देशों से जो ट्रेड करता था वो भी नहीं रहा। इस स्थिति में उत्तर कोरिया को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा।
भारत को कैसे देखते हैं उत्तर कोरियाई?
सपरा कहते हैं, 'जब हम कोई डिप्लोमैटिक कार्यक्रम करते थे तो वहां के विदेश मंत्रालय को लिस्ट भेजनी होती थी कि कौन-कौन आ रहा है। उन्होंने उस लिस्ट में कभी कोई तब्दीली नहीं की। जो भी आना चाहता था वो आता था।' 'उत्तर कोरियाई अपने नेता के ख़िलाफ़ कभी कोई बात नहीं करते हैं। यहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसी कोई बात नहीं है। किम परिवार के प्रति वहां के नागरिकों का आदर बना हुआ है। यह डर से भी है और लोग मन से मानते भी हैं।'
 
उत्तर कोरियाई नागरिकों के मन में भारत और भारतीयों की छवि कैसी है? इस पर जगजीत सिंह सपरा ने कहा कि उत्तर कोरियाई नागरिकों के मन में भारतीयों के प्रति बहुत प्रेम है। ये राष्ट्र के रूप में भारत की काफ़ी इज़्जत करते हैं। भारत और उत्तर कोरिया दोनों गुटनिरपेक्ष देश रहे हैं। भारत ने अफ़्रीका और दक्षिण-पूर्वी एशिया में छोटे देशों की काफ़ी मदद की है। भारत उत्तर कोरिया को खाना और दवाई हमेशा से मुहैया कराता रहा है।
 
सपरा कहते हैं, 'हमने जो उत्तर कोरिया में किया वो तो ठीक है लेकिन जो नहीं किया वो और ठीक है। जैसे पाकिस्तान के बारे में कहा जाता है कि उसने परमाणु तकनीक बाइपास किया है। हमने ऐसा कोई काम नहीं किया क्योंकि हम इस नीति पर भरोसा नहीं करते कि किसी को चुपके से कुछ दे दिया जाए।''
 
उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रम में पाकिस्तान की भूमिका
सपरा ने कहा, ''उत्तर कोरिया में पाकिस्तान के भी राजदूत हैं। मेरी उनसे भी बात होती थी। अब कोई इस बात को स्वीकार तो करेगा नहीं कि उसने तकनीक ट्रांसफ़र किया है। उत्तर कोरिया में तीन साल रहते हुए मैंने कुछ चीज़ों का अवलोकन किया है जिससे शक पैदा होता है।''
 
'जब मैं उत्तर कोरिया में था तब पाकिस्तान के वहां दोनों राजदूत आर्मी मैन थे। दिलचस्प है कि दोनों उत्तर कोरिया के शीर्ष नेतृत्व के काफ़ी क़रीब थे। अब वो क्या बात करते थे ये तो लिखित है नहीं लेकिन कुछ तो हो रहा था।'
 
उत्तर कोरिया में जुल्फ़िकार अली भुट्टो से बेनज़ीर भुट्टों तक का दौरा हुआ है। सपरा कहते हैं कि इनके बड़े क़रीब के संबंध थे। जब पाकिस्तानी नेता चीन जाते थे तो उत्तर कोरिया भी चले जाते थे। उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रम में पाकिस्तान की भूमिका पर वैजयंति राघवन कहती हैं, 'उत्तर कोरिया के परमाणु प्रोग्राम में पाकिस्तान से काफ़ी मदद मिली है। बेनज़ीर भुट्टो की सरकार में एक्यू ख़ान के ज़रिए उत्तर कोरिया को मदद पहुंचाई गई है। उत्तर कोरिया को पाकिस्तान से रिएक्टर मिले हैं और पाकिस्तान को उत्तर कोरिया से मिसाइल टेक्नॉलजी मिली है।'
 
भारत के परमाणु परीक्षण पर उत्तर कोरिया
राघवन ने कहा, 'पाकिस्तान को गौरी मिसाइल की टेक्नॉलजी उत्तर कोरिया से ही मिली है। पाकिस्तान और उत्तर कोरिया में जो कुछ हो रहा था उससे चीन बेख़बर नहीं था लेकिन उसने नज़र अंदाज किया। बेनज़ीर भुट्टो और उनके पिता उत्तर कोरिया की यात्रा पर जा चुके हैं।'
 
'उत्तर कोरिया का चीन सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर है। उत्तर कोरिया का हमेशा से कहना रहा है कि अगर दुनिया के पांच देशों के पास परमाणु हथियार हैं तो सभी देशों के पास होने चाहिए।'
 
सपरा ने कहा, '1998 में भारत ने जब परमाणु परीक्षण किया था तो मैं वहीं था। उत्तर कोरिया पहला देश था जिसने भारत के इस क़दम का समर्थन किया था। उत्तर कोरिया ने कहा था कि भारत को इसकी ज़रूरत थी। उत्तर कोरिया का रुख यह था कि अगर चीन के पास परमाणु बम है तो भारत के पास परमाणु बम क्यों नहीं होना चाहिए?'
 
देहरादून स्थित द सेटंर फोर स्पेस साइंस एंड टेक्नॉलजी इन एशिया एंड द पैसिफिक में उत्तर कोरियाई छात्रों को मिलने वाली तकनीकी ट्रेनिंग भी घेरे में आई थी। इस पर सपरा का कहना है कि 2006 में भारत ने इस ट्रेनिंग को प्रतिबंधित कर दिया था। भारत में इस ट्रेनिंग को लेकर संयुक्त राष्ट्र ने आपत्ति जताई थी।
 
सपरा ने बताया कि शीत युद्ध के दौरान उत्तर कोरिया ने अपनी सारी फैक्ट्रियां अंडरग्राउंड बनाई थीं। हथियार बनाने की सारी फ़ैक्ट्रिया इनकी अंडरग्राउंड हैं। इस मामले में उन्होंने अपना इन्फ्रास्ट्रक्चर काफ़ी विकसित कर लिया है। सपरा कहते हैं कि उत्तर कोरिया के पास मिसाइल टेक्नॉलजी तो है।
 
लीबिया और इराक़ नहीं है उत्तर कोरिया
उन्होंने कहा कि इस पर किसी को शक नहीं होना चाहिए। प्योंगयांग में चीन और रूस का दूतावास काफ़ी ताक़तवर है। यहां इनके स्कूल हैं, क्लब हैं और सत्ता से सीधा संपर्क है। मॉस्को और बीजिंग से उत्तर कोरिया ट्रेन से जुड़ा हुआ है।
 
सपरा ने बताया, 'अमेरिका ने जिस तरह से इराक़ और लीबिया में कार्रवाई की उतना आसान उत्तर कोरिया में नहीं है। उत्तर कोरिया के पास मुक़ाबले के लिए हथियार हैं। उसकी जो सीमा दक्षिण कोरिया से लगती है वहां बड़ी खादान है। उत्तर कोरिया में पहाड़ काफ़ी हैं।'
 
'इन्होंने काफ़ी सुरंगें भी बना रखीं हैं। इन्होंने अपनी मिसाइलें भी तैनात कर रखी हैं। जहां-जहां टारगेट करना है, सब चिह्नित कर रखा है। हलांकि वहां के नागरिक युद्ध के पक्षधर कतई नहीं हैं। वो चाहते हैं कि अमरीका से संबंध अच्छे हों। चीन और रूस उत्तर कोरिया को युद्ध तक नहीं जाने देंगे। कोई न कोई राजनयिक समाधान निकलेगा।'
 
उत्तर कोरिया एक ख़ूबसूरत देश
उत्तर कोरिया प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न देश है। सपरा ने कहा, 'उत्तर कोरिया में 8 से 16 खरब डॉलर के मिनिरल्स हैं। अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में इनकी क़ीमत काफ़ी ज़्यादा है। अगर इस देश में शांति व्यवस्था कायम हो जाती है तो यहां ख़ुशहाली बहुत दूर नहीं है। यहां की ऑटो इंडस्ट्री शानदार गुणवत्ता वाली है। भारत यहां से ऑटो पार्ट्स ही आयात करता था।'
 
सपरा कहते हैं, 'उत्तर कोरिया दुनिया के ख़ूबसूरत देशों में से एक है। हालांकि हम वहां बाहर निकलने के लिए तब भी स्वतंत्र नहीं थे। विदेश मंत्रालय से अनुमति लेनी पड़ती थी। वहां के पहाड़ बेइंतहा ख़ूबसूरत हैं। यहां के लोग काफ़ी अनुशासित हैं। सफाई बहुत रखते हैं।' 'वीकेंड पर लोग इकट्ठे हो जाते हैं और सफाई में लग जाते हैं। स्वच्छता के मामले में उत्तर कोरिया तो मिसाल है। वो खाने-पीने का सामान बर्बाद नहीं करते हैं। हमारे पास भी उत्तर कोरिया की दो मेड थीं। वो बर्बाद तो बिल्कुल नहीं करती थीं।
 
महिलाओं की स्थिति
जो सक्षम महिलाएं होती हैं उन्हें देश की सेवा लगा दिया जाता है। जब महिलाएं मां बनती हैं तो उन्हें कम्युनिटी हॉल में भेज दिया जाता है। उन महिलाओं को कम्युनिटी हॉल में बच्चों को छोड़कर काम पर जाना होता है। बच्चों को भी मैंने देखा है कि वो बाहर निकलते हैं तो किताब लेकर निकलते हैं या फिर ड्रॉइंग करते हैं। आवारागर्दी जैसी चीज़े तो मैंने देखी ही नहीं।
 
कमाल के स्टेडियम
इनके स्पोर्ट्स स्डेडियम तो कमाल के हैं। जब 1988 में दक्षिण कोरिया में ओलंपिक का आयोजन किया गया तो उन्होंने अपने स्टेडियम भी तैयार कर दिए थे। तब कहा जा रहा था कि ओलंपिक दोनों देशों में खेला जाएगा। फिर ऐसा माहौल बना कि मैच नहीं हो पाया। अभी बेंगलुरू क्लब का उत्तर कोरिया के जिस स्टेडियम में मैच हआ वो शानदार स्टेडियम है। ये ओलंपिक में मेडल भी जीतते हैं। उत्तर कोरिया प्रदूषण मुक़्त देश है।
 
उत्तर कोरिया में कौन सा मजहब?
दक्षिण कोरिया में 50 फ़ीसदी लोग नास्तिक हैं। 25 फ़ीसदी लोग बौद्ध हैं और बाक़ी 25 फ़ीसदी लोग ईसाई और दूसरे मजहब के हैं। उत्तर कोरिया चूकि कम्युनिस्ट मुल्क है इसलिए यहां धर्म पूरी तरह से नेपथ्य में है, लेकिन यहां बौद्ध मंदिर हैं। भारत से 90 के दशक में उपराष्ट्रपति के तौर पर शंकर दयाल शर्मा उत्तर कोरिया गए थे। इसके अलावा कोई और हाई प्रोफाइल दौरा भारत से नहीं हुआ है।
 
2002 दो से 2004 तक उत्तर कोरिया में भारत के राजदूत रहे आरपी सिंह कहते हैं, 'किम जोंग-इल के वक़्त में तो फिर भी ठीक था लेकिन आज का जो नेतृत्व है वो और जनता से दूर हो चुका है। किम जोंग-शुंग तक तो हालात ठीक थे।' ''ऐसा नहीं है कि जनता में इस परिवार के प्रति प्यार है। लोग चुप इसलिए हैं क्योंकि इनके मन में डर है। अभी का जो नेतृत्व है वो दुनिया में अलग-थलग पड़ गया है। वो अपने ही देश को ख़त्म कर रहा है।'

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