वुसत का ब्लॉगः 25 साल के मंज़ूर पश्तीन से क्यों डर रही पाक सरकार

सोमवार, 23 अप्रैल 2018 (12:09 IST)
इन दिनों पाकिस्तान में जिस पार्टी की सबसे ज़्यादा चर्चा है वो है पश्तून ताहफ़ुज मूवमेंट यानी पश्तून रक्षा आंदोलन। इसका जन्म कराची में एक क़बायली युवा नकीबुल्लाह महसूद के पुलिस एनकाउंटर के बाद शुरू होने वाले आंदोलन से हुआ।
 
शुरू में एनकाउंटर स्पेशलिस्ट एसएसपी राव अनवार की गिरफ़्तारी के लिए क़बायली लोगों ने इस्लामाबाद में धरना दिया और फिर इस धरने से एक 25 वर्ष का लड़का निकला मंज़ूर पश्तीन।
 
उसके साथ हो लिए सैकड़ों पश्तून औरतें और मर्द और फिर ये तादाद पहुँच गई हज़ारों में और फिर ख़ैबर पख्तूनख़्वां और वज़ीरिस्तान में जगह-जगह मंज़ूर पश्तीन को सुनने के लिए भीड़ इकट्ठा होनी शुरू हो गई।
 
पश्तूनों की मांगें क्या
मांगें बहुत ही सीधी हैं। यानी पिछले 10 वर्ष में चरमपंथ के ख़िलाफ़ जंग के दौरान जो सैकड़ों पाकिस्तानी शहरी ग़ायब हुए हैं उन्हें ज़ाहिर करके अदालत में पेश किया जाए।
 
अफ़ग़ान सीमा से लगे क़बायली इलाक़ों में अंग्रेज़ों के दौर का काला क़ानून एफ़सीआर ख़त्म कर वहाँ भी पाकिस्तानी संविधान लागू कर वज़ीरिस्तान और दूसरे क़बायली इलाक़ों को वही बुनियादी हक दिए जाएं जो लाहौर, कराची और इस्लामाबाद के नागरिकों को हासिल हैं।
 
तालिबान के ख़िलाफ़ फ़ौजी ऑपरेशन में आम लोगों के जो घर और कारोबार तबाह हुए उनका मुआवज़ा दिया जाए और इन इलाक़ों में चेक पोस्टों पर वहाँ के लोगों से अच्छा सलूक किया जाए। लेकिन राष्ट्रीय संस्थाओं को शक है मंज़ूर पश्तीन इतने सीधा नहीं हैं और उनकी डोरें कहीं और से हिल रही हैं।
 
इसलिए मीडिया को हिदायत दी गई है कि वो मंज़ूर पश्तीन के जलसों की रिपोर्टिंग न करे। जहां-जहां पश्तून ताहफुज़ मूवमेंट के जलसे होते हैं वहां पहले रुकावटें खड़ी की जाती हैं, फिर हटा ली जाती हैं। कल पश्तून ताहफ़ुज मूवमेंट ने लाहौर में जलसा किया, पहले इजाज़त दी गई, फिर इजाज़त वापस ले ली गई।
 
क्या है आंदोलन की ताक़त
फिर आंदोलन के कुछ लोगों को गिरफ़्तार कर लिया गया फिर छोड़ दिया गया। साथ ही साथ जहाँ जलसा होना था, वहाँ पानी छोड़ दिया गया। लेकिन लोग फिर भी आए, सिर्फ़ पश्तून ही नहीं, पंजाब की सिविल सोसाइटी भी मंज़ूर पश्तीन को सुनने आई।
 
मीडिया कवरेज न होने के बावजूद इस आंदोलन को सोशल मीडिया की ताक़त और लाइव स्ट्रीम ज़िंदा रखे हुए है। ताक़त के बल पर निपटना इसलिए मुश्किल हो रहा है क्योंकि एक तो ये आंदोलन अब तक शांतिपूर्ण है, दूसरा उनकी मांगें जिनमें से कोई भी संविधान या राष्ट्र के क़ानून से बाहर नहीं हैं।
 
लोग-बाग पहले की तरह आंखें बंद कर देशद्रोह और गद्दारी के आरोप हज़म करने को तैयार नहीं हैं, वो अब सवाल करते हैं और सबूत मांगते हैं। धीरे-धीरे राजनीतिक गुट भी कहने लगे हैं कि इन नौजवानों को बात करने दी जाए और इनकी बात सुनी जाए, इससे पहले कि अरब स्प्रिंग की तरह ये आंदोलन पाकिस्तानी स्प्रिंग में तब्दील न हो जाए।
 
लेकिन दुनिया का हर देश चलाने वालों की विडंबना ये है कि जो बात आम लोगों को सबसे पहले समझ में आती है, राष्ट्रीय इस्टैब्लिशमेंट को सबसे आख़िर में समझ में आती है और जब तक समझ में आती है, तब तक वक़्त आगे बढ़ चुका होता है।

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