'लोग (उद्योगपति) आपसे (मोदी सरकार) डरते हैं। जब यूपीए-2 की सरकार थी, तो हम किसी की भी आलोचना कर सकते थे। पर अब हमें यह विश्वास नहीं है कि अगर हम खुले तौर पर आलोचना करें तो आप इसे पसंद करेंगे।' भारत के कुछ नामी उद्योगपतियों में से एक और बजाज समूह के प्रमुख राहुल बजाज गृहमंत्री अमित शाह के सामने सार्वजनिक रूप से यह बात कहने की वजह से चर्चा में हैं।
सोशल मीडिया पर 81 वर्षीय राहुल बजाज के बारे में काफ़ी कुछ लिखा जा रहा है। एक तरफ वो लोग हैं, जो उनकी प्रशंसा कर रहे हैं और कह रहे हैं कि एक उद्योगपति ने सरकार के ख़िलाफ़ बोलने की हिम्मत दिखाई और हक़ीक़त को सबके सामने ला दिया है जबकि दूसरी ओर वो लोग हैं, जो उनके बयान को राजनीति से प्रेरित मान रहे हैं और बजाज को 'कांग्रेस-प्रेमी' बता रहे हैं।
सोशल मीडिया पर राहुल बजाज के कुछ वीडियो भी शेयर किये जा रहे हैं जिनमें वो जवाहरलाल नेहरू को अपना पसंदीदा प्रधानमंत्री बताते हैं और पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की तारीफ़ करते दिखाई देते हैं।
लेकिन दक्षिणपंथी विचारधारा वाली बीजेपी सरकार के जो समर्थक इन वीडियो के आधार पर राहुल बजाज को कांग्रेस का 'चापलूस' बता रहे हैं, वो ये भूल रहे हैं कि बीजेपी, एनसीपी और शिवसेना के समर्थन से ही वर्ष 2006 में राहुल बजाज निर्दलीय के तौर पर राज्यसभा मेंबर चुने गए थे। बजाज ने अविनाश पांडे को 100 से अधिक वोटों से हराकर संसद में अपनी सीट हासिल की थी और अविनाश पांडे कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार थे।
जिस समय राहुल बजाज ने देश की आर्थिक स्थिति को लेकर उद्योगपतियों की चिंताओं और उनके कथित भय पर टिप्पणी की तो अमित शाह ने उसके जवाब में कहा था कि 'किसी को डरने की ज़रूरत नहीं है और न ही कोई डराना चाहता है'।
मगर सवाल है कि क्या बीजेपी के समर्थकों ने राहुल बजाज की आलोचनात्मक टिप्पणी पर 'हल्ला मचाकर' गृहमंत्री की बात को हल्का नहीं कर दिया है?
इसके जवाब में वरिष्ठ पत्रकार टीके अरुण ने कहा कि यह एक नया ट्रेंड बन चुका है। आलोचना के पीछे की भावना नहीं देखी जा रही है, सिर्फ़ उन आवाज़ों के ख़िलाफ़ हंगामा किया जा रहा है। बजाज ने जो टिप्पणी की है, वो इसलिए अहम है, क्योंकि किसी ने कुछ बोला तो सही। वरना सीआईआई की बंद कमरे वाली बैठकों में उद्योगपति जो चिताएं बीते कुछ वक़्त से ज़ाहिर कर रहे हैं, उनके बारे में वो खुलकर बात करने से बचते हैं। टीके अरुण को लगता है कि बजाज का ये बयान किसी एक पार्टी के ख़िलाफ़ नहीं है, बल्कि वो पहले भी ऐसे बयान देकर सुर्खियां बटोर चुके हैं।
महात्मा गांधी का 'पांचवां पुत्र'
जून 1938 में जन्मे राहुल बजाज भारत के उन चुनिंदा औद्योगिक घरानों में से एक परिवार से वास्ता रखते हैं जिनकी भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से काफ़ी घनिष्ठता रही।
उनके दादा जमनालाल बजाज ने 1920 के दशक में 20 से अधिक कंपनियों वाले 'बजाज कंपनी समूह' की स्थापना की थी। सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध सूचनाओं के अनुसार राजस्थान के मारवाड़ी समुदाय से आने वाले जमनालाल को उनके किसी दूर के रिश्तेदार ने गोद लिया था। ये परिवार महाराष्ट्र के वर्धा में रहता था इसलिए वर्धा से ही जमनालाल ने अपने व्यापार को चलाया और बढ़ाया। बाद में वो महात्मा गांधी के संपर्क में आए और उनके आश्रम के लिए जमनालाल बजाज ने ज़मीन भी दान की। जमनालाल बजाज के 5 बच्चे थे। कमलनयन उनके सबसे बड़े पुत्र थे। फिर 3 बहनों के बाद रामकृष्ण बजाज उनके छोटे बेटे थे।
राहुल बजाज कमलनयन बजाज के बड़े पुत्र हैं और राहुल के दोनों बेटे राजीव और संजीव मौजूदा समय में बजाज ग्रुप की कुछ बड़ी कंपनियों को संभालते हैं। कुछ अन्य कंपनियों को राहुल बजाज के छोटे भाई और उनके चचेरे भाई संभालते हैं। बजाज परिवार को क़रीब से जानने वाले कहते हैं कि जमनालाल को महात्मा गांधी का 'पांचवां पुत्र' भी कहा जाता था। इसी वजह से नेहरू भी जमनालाल का सम्मान करते थे।
गांधी परिवार और बजाज परिवार का किस्सा
गांधी परिवार और बजाज परिवार के बीच नज़दीकियों को समझाने के लिए एक किस्सा कई बार सुनाया जाता है। ये चर्चित किस्सा यूं है कि जब राहुल बजाज का जन्म हुआ तो इंदिरा गांधी कांग्रेस नेता कमलनयन बजाज (राहुल के पिता) के घर पहुंचीं और उनकी पत्नी से शिक़ायत की कि उन्होंने उनकी एक क़ीमती चीज़ ले ली है। ये था नाम 'राहुल' जो जवाहरलाल नेहरू को बहुत पसंद था और उन्होंने इसे इंदिरा के बेटे के लिए सोच रखा था, लेकिन नेहरू ने यह नाम अपने सामने जन्मे कमलनयन बजाज के बेटे को दे दिया। कहा जाता है कि बाद में इंदिरा गांधी ने राजीव गांधी के बेटे का नाम राहुल इसी वजह से रखा था कि ये नाम उनके पिता को बहुत पसंद था।
बहरहाल, 1920 के दशक में जिनके 'स्वतंत्रता-सेनानी' दादा ने पूरे परिवार समेत खादी अपनाने के लिए विदेशी कपड़ों को आग लगा दी, उनका पोता कैसे आज़ाद भारत में पूंजीवाद के चर्चित चेहरों में से एक बन पाया! ये कहानी भी दिलचस्प है।
'लाइसेंस राज' में बजाज
अपने पिता कमलनयन बजाज की तरह राहुल बजाज ने भी विदेश से पढ़ाई की। दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफ़न कॉलेज से इकोनॉमिक ऑनर्स करने के बाद राहुल बजाज ने क़रीब 3 साल तक बजाज इलेक्ट्रिकल्स कंपनी में ट्रेनिंग की। इसी दौरान उन्होंने बॉम्बे यूनिवर्सिटी से वक़ालत की पढ़ाई भी की। राहुल बजाज ने 60 के दशक में अमेरिका के हॉर्वर्ड बिज़नेस स्कूल से एमबीए की डिग्री ली थी।
पढ़ाई पूरी करने के बाद वर्ष 1968 में 30 वर्ष की उम्र में जब राहुल बजाज ने 'बजाज ऑटो लिमिटेड' के सीईओ का पद संभाला तो कहा गया कि ये मुक़ाम हासिल करने वाले वो सबसे युवा भारतीय हैं।
उस दौर को याद करते हुए अर्थशास्त्री मोहन गुरुस्वामी कहते हैं- जब राहुल बजाज के हाथों में कंपनी की कमान आई तब देश में 'लाइसेंस राज' था यानी देश में ऐसी नीतियां लागू थीं जिनके अनुसार बिना सरकार की मर्ज़ी के उद्योगपति कुछ नहीं कर सकते थे। ये व्यापारियों के लिए मुश्किल परिस्थिति थी। उत्पादन की सीमाएं तय थीं। उद्योगपति चाहकर भी मांग के अनुसार पूर्ति नहीं कर सकते थे। उस दौर में ऐसी कहानियां चलती थीं कि किसी ने स्कूटर बुक करवाया तो डिलीवरी कई साल बाद मिली।
यानी जिन परिस्थितियों में अन्य निर्माताओं के लिए काम करना मुश्किल था, उन्हीं परिस्थितियों में बजाज ने कथित तौर पर निरंकुश तरीक़े से उत्पादन किया और ख़ुद को देश की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक बनाने में सफलता हासिल की। हालांकि बीते 2 दशकों में राहुल बजाज ने जो भी बड़े इंटरव्यू दिए हैं, उनमें 'लाइसेंस राज' को एक ग़लत व्यवस्था बताते हुए उन्होंने उसकी आलोचना ही की है।
वो ये दावा करते आए हैं कि बजाज चेतक (स्कूटर) और फिर बजाज पल्सर (मोटरसाइकल) जैसे उत्पादों ने बाज़ार में उनके ब्रांड की विश्वसनीयता को बढ़ाया और इसी वजह से कंपनी 1965 में 3 करोड़ के टर्नओवर से 2008 में क़रीब 10 हज़ार करोड़ के टर्नओवर तक पहुंच पाई।
बयान का कुछ असर होगा?
राहुल बजाज ने अपने जीवन में जो मुक़ाम हासिल किए हैं, उनका श्रेय वो अपनी पत्नी रूपा घोलप को भी देते हैं। वरिष्ठ पत्रकार करण थापर को वर्ष 2016 में दिए एक इंटरव्यू में राहुल बजाज ने कहा था कि 1961 में जब रूपा और मेरी शादी हुई तो भारत के पूरे मारवाड़ी-राजस्थानी उद्योगपति घरानों में वो पहली लव-मैरिज थी। रूपा महाराष्ट्र की ब्राह्मण थीं। उनके पिता सिविल सर्वेंट थे और हमारा व्यापारी परिवार था तो दोनों परिवारों में तालमेल बैठाना थोड़ा मुश्किल था। पर मैं रूपा का बहुत सम्मान करता हूं, क्योंकि उनसे मुझे काफ़ी कुछ सीखने को मिला।
राहुल बजाज न सिर्फ़ एक बार राज्यसभा के सांसद रह चुके हैं, बल्कि भारतीय उद्योग परिसंघ यानी सीआईआई के अध्यक्ष रहे हैं, सोसायटी ऑफ़ इंडियन ऑटोमोबाइल मैन्युफ़ैक्चरर्स (सियाम) के अध्यक्ष रहे हैं, इंडियन एयरलाइंस के चेयरमैन रह चुके हैं और भारत का तीसरा सबसे बड़ा नागरिक सम्मान 'पद्मभूषण' प्राप्त कर चुके हैं। उनके इसी अनुभव का हवाला देते हुए वरिष्ठ पत्रकार टीके अरुण कहते हैं कि राहुल बजाज की बातों का एक वज़न है जिसे यूं ही दरकिनार नहीं किया जा सकता।
वो बताते हैं कि 1992-94 में हुए इंडस्ट्री रिफ़ॉर्म के ख़िलाफ़ भी राहुल बजाज खुलकर बोले थे। उनका तर्क था कि इससे भारतीय इंडस्ट्री को धक्का लगेगा और देसी कंपनियों के लिए प्रतिस्पर्धा मुश्किल हो जाएगी। राहुल बजाज ने भारतीय उद्योगपतियों की तरफ से यह बात उठाई थी कि विदेशी कंपनियों को भारत में खुला व्यापार करने देने से पहले देसी कंपनियों को भी बराबर की सुविधाएं और वैसा ही माहौल दिया जाए ताकि विदेशी कंपनियां भारतीय कंपनियों के लिए ख़तरा न बन सकें।
हालांकि टीके अरुण कहते हैं कि उस वक़्त भी सरकार से बैर न लेने के चक्कर में कम ही उद्योगपति इस पर खुलकर बोल रहे थे और इस बार भी बजाज का बयान कम ही लोगों में बोलने की हिम्मत डाल पाएगा।
पीएम मोदी से थीं उम्मीदें!
साल 2014 में जब नरेंद्र दामोदर दास मोदी ने भारत के प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी तब राहुल बजाज ने कहा था कि उन्हें पीएम मोदी से काफ़ी उम्मीदें हैं, क्योंकि यूपीए-2 एक बड़ी असफलता रहा और जिसके बाद मोदी के पास करने को बहुत कुछ होगा। लेकिन 5 साल के भीतर राहुल बजाज की यह सोच काफ़ी बदली हुई नज़र आती है।
अर्थशास्त्री मोहन गुरुस्वामी इस पर अपनी राय बताते हैं। वो कहते हैं कि भारतीय उद्योगपतियों को मनमाने ढंग से व्यापार करने की आदतें लगी हुई हैं। भारत में छूट लेकर विदेशों में निवेश करना नया ढर्रा बन चुका है। लोग कर्ज़ लौटाने को लेकर ईमानदार नहीं हैं। कुछ कानून सख़्त किए गए हैं तो उन्हें डर का नाम दिया जा रहा है जबकि डर की बात करने वाले वही हैं जिन्होंने करोड़ों रुपए की फंडिंग देकर ये सरकार बनवाई है।
बीजेपी ने चुनाव आयोग को बताया तो है कि कॉर्पोरेट ने चुनाव में उन्हें कितना फंड दिया। लेकिन ये लोग कभी नहीं कहते कि डोनेशन के लिए हमें डराया जा रहा है, क्योंकि उस समय ये लोग अपने लिए 'संरक्षण' और सरकार में दखल रखने की उम्मीदें ख़रीद रहे होते हैं।
गुरुस्वामी कहते हैं कि लगातार गिर रहे जीडीपी के नंबरों और अर्थव्यवस्था में सुस्ती को आधार बनाकर उद्योगपति पहले ही सरकार से कॉर्पोरेट टैक्स में छूट ले चुके हैं। हो सकता है कि बजाज जिस डर का ज़िक्र कर रहे हैं, उसे आधार बनाकर उद्योगपति फ़िलहाल बैकफ़ुट पर चल रही सरकार से किसी नई रियायत की मांग करें।