कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और यूपीए (यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस) की मुखिया सोनिया गांधी से सोमवार को एचडी कुमारस्वामी मिलने पहुंचे। मुलाक़ात में कर्नाटक के मंत्रिमंडल के स्वरूप पर चर्चा की बातें सामने आई हैं।
आपने राहुल और कुमारस्वामी की एक साथ मुस्कुराते हुए तस्वीरें देखी ज़रूर होंगी पर ये भी सच है कि राहुल ने कर्नाटक चुनाव अभियान के दौरान कुमारस्वामी की पार्टी को 'भाजपा की बी टीम' बताया था। लेकिन, चुनाव नतीजों के बाद भाजपा को रोकने के लिए दोनों दल अब साथ आ चुके हैं।
कुमारस्वामी की पार्टी के महज 37 विधायक हैं और वो कर्नाटक के मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। दूसरी तरफ़ दोगुने से ज़्यादा विधायक वाली कांग्रेस गठबंधन में एक जूनियर साथी के रूप में होगी। और राहुल गांधी की समस्या यहीं से शुरू होती है। उन्हें अब भाजपा का सीधा मुक़ाबला करने के लिए विपक्षी गठबंधन और उसकी एकता के लिए काम करना होगा।
राहुल पर बड़ी जिम्मेदारी : आम चुनावों के लिए राहुल गांधी के पास अब छह महीने से कुछ ही ज़्यादा वक़्त है। उन्हें विरोधियों को वैसे ही एक साथ लाना होगा जैसे वो गुजरात चुनाव के दौरान पाटीदार नेता हार्दिक पटेल और दलित नेता जिग्नेश मेवाणी को साथ लाए थे। राहुल के लिए दोनों को एक मंच पर साथ लाना आसान नहीं था। कर्नाटक चुनाव के बाद सरकार बनाने के लिए बीजेपी ने कोई भी तरीक़ा नहीं छोड़ा, लेकिन उसे कामयाबी नहीं मिली।
कांग्रेस पार्टी भी इस बात को पूरी तरह से समझ गई होगी कि अगर चुनाव से पहले जेडीएस के साथ चुनावी गठबंधन होता तो चुनावी नतीजे कुछ और होते। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मखौल उड़ाते हुए कहा था कि ख़ुद को राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी पार्टी कहने वाली कांग्रेस एक 'पीपीपी पार्टी (पंजाब, पुद्दुचेरी और परिवार)' है। नए गठबंधन की ज़रूरत स्पष्ट है और इसका प्रदर्शन कर्नाटक के शपथ ग्रहण समारोह के दिन किया जाएगा।
इसमें राहुल गांधी, ममता बनर्जी, मायावती, अखिलेश यादव, शरद पवार, सीताराम येचुरी और तेजस्वी यादव मंच पर मौजूद होंगे। हाल ही में एनडीए से खुद को अलग करने वाले आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू की उपस्थिति से अमित शाह को स्पष्ट संदेश देने की कोशिश की जाएगी। राहुल गांधी अपनी पार्टी के सीनियर नेता अहमद पटेल के ज़रिए चंद्रबाबू नायडू और मायावती को भी साथ लाएंगे।
मां से सीखना होगा : कांग्रेस पर अस्तित्व का संकट आने से पहले राहुल गांधी को यह अहसास हो गया है कि उनकी मां तुनकमिज़ाज ममता बनर्जी को भी अपने पाले में लाने में कामयाब रही हैं। अब राहुल के हाथ में पार्टी की कमान है और उनके सामने भी क्षेत्रीय दलों को एकजुट करने की चुनौती है। राहुल गांधी ने कर्नाटक में बीजेपी को बाहर रखने के लिए नाजुक वक़्त में पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा से बात की और कहा कि वो अपने बेटे और पार्टी को बीजेपी से गठबंधन की अनुमति नहीं दें।
राहुल ने कर्नाटक में अपनी रणनीति को अंजाम तक पहुंचाने के लिए युवा और अनुभवी सभी नेताओं का इस्तेमाल किया। राहुल की टीम में उस राजनीतिक नेटवर्क और व्यक्तिगत रिश्तों की कमी है जो सोनिया गांधी का हॉलमार्क हुआ करती थीं। यहां ये समझना ज़रूरी है कि राहुल गांधी ऐसे माहौल में उन लोगों के साथ काम कर रहे हैं, जहां उन्हें ये सुनिश्चित करना है कि कोई भी विपक्षी नेता छूटने न पाए।
ये राहुल गांधी में आया बहुत बड़ा बदलाव है। बिहार और गुजरात में उन्हें पता था कि सहयोगियों का साथ कितना ज़रूरी है, जबकि कर्नाटक में उन्होंने पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के उस वादे पर यकीन किया कि वो भाजपा को हरा देंगे, यही वजह थी कि राहुल गांधी जनता दल (सेक्यूलर) से नहीं मिले। कर्नाटक के नतीजे कांग्रेस और राहुल को नींद से जगाने वाले हैं और अब कांग्रेस सूत्रों का कहना है कि सहयोगी दल आज की ज़रूरत हैं। विपक्षी एकता का दूसरा प्रदर्शन कर्नाटक के बाद अब उत्तर प्रदेश के कैराना उपचुनाव में होगा।
इसका जो नतीजा निकलेगा वो 2019 के आम चुनावों के लिए बड़े संकेत का काम करेगा। अगर विपक्ष ने कैराना में वैसा ही परचम लहराया जैसा कि 'बुआ-भतीजे' की जोड़ी ने गोरखपुर और फूलपुर में किया था, तो कहने की ज़रूरत नहीं कि विपक्षी गठबंधन की राह आसान होगी।
विपक्ष के लिए छुपा संदेश : विपक्ष के लिए संदेश साफ़ है- एकजुट होइए या फिर नतीजे भुगतिए, क्योंकि मोदी और शाह उन्हें चुनौती देने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखने वाले। लेकिन शाह की भयंकर चुनावी भूख ने ये सुनिश्चित किया है कि मौजूदा सहयोगी शिवसेना और चंद्रबाबू नायडू अलग-थलग पड़ गए और दूसरे सभी दलों को अपने ख़त्म होने का डर सताने लगा है।
विपक्षी दलों के लिए ये नया चुंबक है और राहुल गांधी 2019 के चुनाव के लिए इसी फॉर्मूले पर दांव लगा रहे हैं। शाह के 'विपक्ष मुक्त भारत' के नारे ने आख़िर में ये सुनिश्चित कर दिया कि भारत के पास एक विपक्ष है।