साल 1944 में आग़ा ख़ां पैलेस से रिहाई के बाद गांधी पंचगनी जाकर रुके थे, वहां कुछ लोग उनके ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे थे। गांधी ने कोशिश की कि उनसे बात की जाए, उनको समझाया जाए, उनकी नाराज़गी समझी जाए कि वो क्यों ग़ुस्सा हैं?
लेकिन उनमें से कोई बात करने को राज़ी नहीं था और आख़िर में एक आदमी छूरा लेकर दौड़ पड़ा, उसको पकड़ लिया गया। और इसमें भी कुछ हुआ नहीं। साल 1944 में ही पंचगनी के बाद गांधी और जिन्ना की वार्ता बंबई में होने वाली थी।
और कुछ लोग जैसे मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा के लोग इससे नाराज़ थे कि गांधी और जिन्ना की मुलाकात का कोई मतलब नहीं है और ये मुलाकात नहीं होनी चाहिए। वहां भी गांधी पर हमले की कोशिश हुई, वो भी नाकाम रही।
साल 1946 में नेरूल के पास गांधी जिस रेलगाड़ी से यात्रा कर रहे थे, उसकी पटरियां उखाड़ दी गईं और ट्रेन उलट गई, इंजन कहीं जाकर टकरा गया।
साल 1948 में जाहिर है कि दो बार हमले हुए। पहली बार तो जब मदनलाल बम फोड़ना चाहते थे, वो फूटा नहीं और लोग पकड़े गए।
छठी बार का किस्सा ये है कि नाथूराम गोडसे ने 30 जनवरी, 1948 को गोली चलाई और महात्मा गांधी की जान चली गई. गांधी की जान लेने के दो और प्रयास किए गए। वो दोनों प्रयास बहुत रोचक हैं, दोनों के दोनों चंपारण में हुए। साल 1917 में महात्मा गांधी मोतिहारी में थे।
मोतिहारी में सबसे बड़ी नील मिल के मैनेजर इरविन ने गांधी को बातचीत के लिए बुलाया। इरविन मोतिहारी की सभी नील फैक्टरियों के मैनेजरों के नेता थे।
इरविन ने सोचा कि जिस आदमी ने उनकी नाक में दम कर रखा है, अगर इस बातचीत के दौरान उन्हें खाने-पीने की किसी चीज़ में ज़हर दे दिया जाए। ऐसा ज़हर जिसका असर थोड़ी देर बाद होता हो तो न उनके ऊपर आंच आएगी और गांधी की जान भी चली जाएगी।
ये बात इरविन ने अपने खानसामे बत्तख मियां अंसारी को बताई गई। बत्तख मियां से कहा गया कि वो ट्रे लेकर गांधी के पास जाएंगे।
बत्तख मियां का छोटा-सा परिवार था, वे छोटी जोत के किसान थे। नौकरी करते थे। उससे काम चलता था। उन्होंने मना नहीं किया. वे ट्रे लेकर गांधी के पास चले गए। लेकिन जब वे गांधी जी के पास पहुंचे तो बत्तख मियां की हिम्मत नहीं हुई कि वे ट्रे गांधी के सामने रख देते।
वो खड़े रहे ट्रे लेकर, गांधी ने उन्हें सिर उठाकर देखा, तो बत्तख मियां रोने लगे और सारी बात खुल गई। ये किस्सा महात्मा गांधी की जीवनी में कहीं नहीं है।
चंपारण का सबसे प्रामाणिक माना जाने वाला बाबू राजेंद्र प्रसाद की किताब में कहीं नहीं है, किसी और हवाले से इसका जिक्र नहीं है।
लेकिन लोक स्मृति में बत्तख मियां अंसारी काफी मशहूर आदमी हैं और ये कहा जाता है कि वो न तो इस देश का इतिहास क्या होता। बत्तख मियां का कोई नामलेवा ही नहीं बचा था, उनको जेल हो गई, उनकी ज़मीनें नीलाम हो गईं, सबकुछ हो गया। साल 1957 में राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति थे, वो मोतिहारी होते हुए नरकटियागंज जाना था।
राजेंद्र बाबू ने पहचाना
मोतिहारी में एक जनसभा में उन्होंने भाषण दिया, और भाषण देते समय उन्होंने दूर खड़े एक आदमी को देखा। राजेंद्र बाबू को लगा कि वे उसे पहचानते हैं। राजेंद्र बाबू ने वहीं से आवाज़ लगाई कि बत्तख भाई कैसे हो? बत्तख मियां को स्टेज पर बुलाया गया, ये किस्सा लोगों को राजेंद्र बाबू ने बताया और उनको अपने साथ ले आए। बाद में बत्तख मियां के बेटे जान मियां अंसारी को उन्होंने राष्ट्रपति भवन में बुलाकर रखा।
कुछ दिनों के लिए आमंत्रित किया और साथ में राष्ट्रपति भवन ने बिहार सरकार को खत लिखा कि चूंकि इनकी ज़मीनें चली गई हैं, इनको 35 एकड़ ज़मीन मुहैया कराई जाए। ये बात 62 साल पुरानी है। वो ज़मीन बत्तख मियां के खानदान को आजतक नहीं मिली है।
अंग्रेज़ की नील कोठी पर...
दूसरा एक और रोचक किस्सा है कि जब ये कोशिश नाकाम हो गई, गांधी बच गए तो एक दूसरे अंग्रेज़ मिल मालिक को बहुत गुस्सा आया।
उसने कहा कि गांधी अकेले मिल जाए तो मैं उन्हें गोली मार दूंगा। यह बात गांधीजी तक पहुंची। अगली सुबह। महात्मा उसी के इलाके में थे। गांधी सुबह- सुबह उठकर अपनी सोंटी लिए हुए उस अंग्रेज़ की नील कोठी पर पहुंच गए।
और उन्होंने वहां जो चौकीदार था, उससे कहा कि बता दो कि मैं आ गया हूं और अकेला हूं' कोठी का दरवाज़ा नहीं खुला और वो अंग्रेज़ बाहर नहीं आए।