तालिबान की जीत से अमेरिका की छवि अरब देशों में कैसे प्रभावित हुई है
शुक्रवार, 3 सितम्बर 2021 (11:06 IST)
मिस्र के पूर्व राष्ट्रपति होस्नी मुबारक का एक जुमला बड़ा चर्चित था। वे कहते थे, "जिसको अमेरिकी ढक रहे हों वो शख़्स नंगा है।" उनका ये जुमला मिस्र के तत्कालीन विदेश मंत्री और मौजूदा समय में अरब लीग के सेक्रेटरी जनरल अहमद अबुल घयात भी दोहराते थे। उसी तरह से घयात की एक बात मुबारक भी दोहराते थे कि अतीत में अमेरिका उनसे पीछा छुड़ाने की मांग कर चुका है।
दरअसल मिस्र के पूर्व राष्ट्रपति के मुहावरे अमेरिका के सहयोगी अरब देशों की राय को भी व्यक्त करते थे। यह अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी की स्थिति में भी ज़ाहिर हो रहा है।
अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान में 20 साल तक काफ़ी पैसा और संसाधन ख़र्च कर चुका था लेकिन उसकी वापसी से दूसरी स्थिति की झलक मिल रही है जिसे तालिबान प्रचारित कर रहा है। तालिबान कह रहा है कि यह दुनिया के सुपरपावर के ख़िलाफ़ उसकी जीत है।
ऐसे में कई विश्लेषकों के मुताबिक, भविष्य को देखते हुए अमेरिका के अरब देशों के सहयोगियों में भी डर व्याप्त है। दरअसल अमेरिका की अफ़ग़ानिस्तान से वापसी कोई एक दिन का फ़ैसला नहीं है। यह आम लोगों की उस मांग से शुरू हुई थी जो बराक़ ओबामा, ट्रंप और बाइडन के समय में होती रही।
मांग यह थी कि अमेरिका को दुनिया के कई हिस्सों में सीधे दख़ल देने की अपनी रणनीति बदलनी चाहिए, ख़ासकर मध्य पूर्व के देशों में। यह चीन के ख़िलाफ़ संघर्ष के लिए भी ज़रूरी था क्योंकि वॉशिंगटन प्रशासन इन दिनों चीन को अपना दुश्मन नंबर एक मान रहा है।
अरब देशों को सच का अंदाज़ा
इन विश्लेषकों के मुताबिक अरब देशों में अमेरिका के सहयोगी देशों को अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका के बाहर निकलने के बाद के सच का अंदाज़ा है और इसी सच को अभिव्यक्त करने के लिए उन्हें मिस्र के पूर्व राष्ट्रपति होस्नी मुबारका का मुहावरा याद आ रहा है।
इसके साथ ही उन्हें यह भी महसूस हो रहा है कि अमेरिका अपने सहयोगियों को आसानी से छोड़ सकता है इसलिए उन्हें अपने भविष्य की चिंता ख़ुद करनी होगी, नहीं तो उनकी स्थिति भी उन अफ़ग़ानियों की तरह हो सकती है जो अमेरिका के समर्थक हैं।
जो भी लोग अरब क्षेत्र और उसके आसपास की स्थिति पर नज़र रखे हुए हैं, उन्हें इस सच्चाई का एहसास है। यही वजह है कि इस क्षेत्र में देश आपसी संबंधों पर ध्यान देंगे। इन देशों की जब सुरक्षा को लेकर अमेरिका पर से निर्भरता कम होगी वे क्षेत्रीय स्तर पर नए साझीदारों की तलाश करेंगे और पड़ोसी देशों के साथ तनाव को कम करेंगे।
यही स्थिति अरब देशों के बीच भी देखने को मिलेगी। यही वजह है कि इसरायल इन दिनों अरब इसरायल अलायंस बनाने पर ज़ोर दे रहा है। यह एक तरह से अरब देशों को अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद सुरक्षा देने की वैकल्पिक व्यवस्था उपलब्ध कराना है।
इसरायल अरब देशों को ये संदेश दे रहा है ईरान से ख़तरे और तुर्की के विस्तारवादी नीतियों का सामना करने में 'मैं तालिबान से नफ़रत करती हूँ, वो कभी नहीं जीत पाएँगे'वह सबको सुरक्षा देने की स्थिति में है।
अमेरिका की वापसी से कौन ख़ुश?
इससे यह भी संकेत मिल रहा है कि अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद वैसे मुल्क प्रसन्न हैं जो इस क्षेत्र में अमेरिका के बढ़ते दबदबे से ख़ुश नहीं थे। अमेरिका की इस हार से केवल ईरान ख़ुश नहीं है बल्कि अरब जगत के इस्लाम के कट्टर समर्थक भी खुश हैं
वे सोशल मीडिया पर लिख रहे हैं कि तालिबान की अफ़ग़ानिस्तान में वापसी इस्लाम और मुसलमानों की जीत है। इस्लामिक समूहों में लोग लिख रहे हैं कि तालिबान ने उनके लक्ष्य और इच्छाओं को हासिल किया है।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या अमेरिका वास्तव में तालिबान से हार गया है?
अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी का असर भले अरब क्षेत्र के अमेरिकी सहयोगी देशों पर दिख रहा हो, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या अमेरिका वास्तव में हार गया? टेलीविज़न पर जो दृश्य सामने आ रहे हैं, उसमें अमेरिकी और उनके सहयोगी देशों के सैनिक तेजी से अफ़ग़ानिस्तान से निकलते दिखे हैं। तालिबान के बदला लेने की आशंका भी लोगों को है। इसे देखते हुए कई विश्लेषक ये मान रहे हैं कि यह अमेरिका की अब तक की सबसे क़रारी हार है। हालांकि कुछ लोग वियतनाम में मिली हार के बाद इसे सबसे बड़ी हार बता रहे हैं।
हालांकि कुछ विश्लेषकों की राय इससे उलट है। उनके मुताबिक अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान से अपनी मर्ज़ी से बाहर निकला है ताकि वह अपने नए रणनीतिक लक्ष्य को हासिल कर सके। इन लोगों के मुताबिक अमेरिका चीन का मुक़ाबला बेहतर ढंग से करना चाहता है और बहुत संभव है कि आने वाले दिनों में वह तालिबान का इस्तेमाल चीन और ईरान को अस्थिर करने में करे। इस दलील को भी सिरे से ख़ारिज नहीं किया जा सकता है।