विश्वकप 1983: भारत की जीत के बाद मैदान में क्या हुआ था?

BBC Hindi
शनिवार, 25 दिसंबर 2021 (10:23 IST)
वंदना, भारतीय भाषाओं की टीवी एडिटर
25 जून, साल 1983…शनिवार की उस शाम को लंदन के लॉर्डस मैदान पर जो हुआ वो किसी करिश्मे से कम नहीं था। शतरंज की बिसात पर एक तरफ़ था क्रिकेट की दुनिया का बादशाह वेस्टइंडीज़ और दूसरी ओर मामूली सा प्यादा भारत। लेकिन उस मामूली से प्यादे ने कुछ ऐसी चाल चली कि बादशाह चारों खाने चित हो गया। वेस्टइंडीज़ को मात दे 1983 में भारत बना था विश्व क्रिकेट चैंपियन।
 
फ़ाइनल में जिन खिलाड़ियों ने मैच का रुख़ बदलने में अहम भूमिका निभाई थी उनमें मदन लाल, अमरनाथ जैसे खिलाड़ी भी थे। वेस्टइंडीज़ के शीर्ष खिलाड़ियों हेन्स, रिचर्डस और गोम्स को आउट कर मदन लाल ने शीर्ष क्रम की बल्लेबाज़ी धार को पैना कर दिया था। बीबीसी संवाददाता वंदना ने विश्व कप के 25 साल पूरे होने पर 2008 में पूरी टीम से बातचीत की थी। खिलाड़ियों की यादें उन्हीं खिलाड़ियों की ज़बानी।
 
क्या कहते हैं मदन लाल?
1983 वर्ल्ड कप की कई तस्वीरें ज़हन में ताज़ा हैं क्योंकि ऐसी जीत जब हासिल होती है तो हमेशा याद रहती है। सच कहूँ तो हम खिलाड़ियों को ये अहसास बहुत आख़िर में हुआ कि हम वाक़ई वर्ल्ड कप जीत सकते हैं, जब भारत ने सेमीफ़ाइनल में इंग्लैंड को हराया। हम पर कोई दवाब नहीं था और न उस वक़्त किसी को लगा था कि हमारे जीतने का चांस है।
 
इंग्लैंड में सट्टा लगाने वाली कंपनी लैडब्रोक ने भी हमें बस ज़िम्बाब्वे से थोड़ा ऊपर स्थान दिया था। बाक़ी सारे टीमें हमसे ऊपर थीं। जैसे-जैसे मैच जीतते चले गए रोशनी नज़र आती गई कि चलो, अगला मैच जीत सकते हैं।
 
सबसे बड़ी बात ये कि हम कभी हौसला नहीं हारे। वेस्टइंडीज़ और ऑस्ट्रेलिया के हाथों हम हारे भी लेकिन कुछ न कुछ ऐसा होता रहा कि जीतने का ज़ज्बा बना रहा।
 
हाँ, एक मैच था जब लगा था कि अब बाहर हो जाएँगे। ज़िम्बाब्वे के ख़िलाफ़ हम केवल 17 रन बनाकर पाँच विकेट गंवा चुके थे। लेकिन जब वो मैच भी जीत गए तो जीतने का जोश एक बार फिर जाग उठा। क्योंकि हमें लगा कि अगर उस स्थिति में भी वापसी कर सकते हैं तो आगे भी जीत जाएँगे। कपिल देव ने वर्ल्ड कप में वो 175 रन ऐसे समय बनाए थे जब टीम को उनकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी।
 
बीबीसी के लोग उस दिन हड़ताल पर थे। अगर हड़ताल पर नहीं होते तो लोगों को वनडे मैचों के इतिहास की एक बेहतरीन पारी देखने को मिलती। शब्दों में बस यही बयां कर सकता हूँ कि वैसी पारी कभी फिर खेली ही नहीं गई। फ़ाइनल में भारत ने वेस्टइंडीज़ के ख़िलाफ़ केवल 183 रन ही बनाए थे।
 
फ़ाइनल में गेंदबाज़ी कैसे करनी है इसे लेकर मैने कोई रणनीति तो नहीं बनाई थी। बस सोचा था कि भले हमने 183 का स्कोर खड़ा किया है लेकिन ये रन हम बना चुके हैं जबकि विरोधी टीम को अभी बनाने हैं। लेकिन विरोधी टीम को आउट करना भी लाज़मी होता है।
 
1983 के वर्ल्ड कप में वहाँ की कन्डिशन हमें काफ़ी सूट की- रॉजर बिन्नी, मैंने, कपिल, बलविंदर संधू सबने बेहतरीन गेंदबाज़ी की थी। सब के सब स्विंग करते थे। ये एक बड़ी वजह थी कि भारत ने वर्ल्ड कप जीता।
 
जब अमरनाथ जी ने होलडिंग का आख़िरी विकेट लिया और वर्ल्ड कप भारत के नाम हो गया तो पहले यकीन ही नहीं हो रहा था कि भारत वर्ल्ड कप जीत गया है।
 
लोग बस मैदान की ओर भागे। हम भी ऐसे भागे थे मानो हमारे पीछे कोई पड़ गया हो। इस बात का असली एहसास कि वाकई टीम ने कुछ जीता है तब जाकर हुआ जब हम भारत वापस आए।
 
लोगों ने और क्रिकेट बोर्ड ने टीम का जिस तरह से स्वागत किया तो हमें मालूम हुआ कि हमने कुछ किया है। हर साल 25 जून को जब लोग हमें याद करते हैं तो वो एहसास फिर ताज़ा हो जाता है।
 
सुनील वॉल्सन विश्व कप के लिए चुने तो गए थे लेकिन एक भी मैच नहीं खेले। टीम में हर खिलाड़ी की भूमिका रही है चाहे वो ट्वेल्थ मैन हो या बाहर बैठा हो या मैदान पर खेल रहा हो।
 
मैच ऐसे चल रहे थे कि कप्तान को मौका ही नहीं मिला वॉल्सन को मैदान पर उतारने का। जब टीम की बैठक होती थी, फ़ीडबैक देते थे तो बड़ी सूझबूझ से बात करते थे। हम ग्यारह ही किस्मत वाले खिलाड़ी नहीं थे, 12वें वो भी थे।
 
मेरा मानना है कि उनका लक भी हमारे साथ रहना बेहद ज़रूरी था। जो भी हुआ वो टीमवर्क था। इतनी बड़ी प्रतियोगिता आप तभी जीत सकते हैं जब सब खिलाड़ियों का योगदान हो। उस विश्व कप के हर मैच में कोई न कोई खिलाड़ी चला।
 
क्या कहते हैं अमरनाथ
ज़िम्बाब्वे के ख़िलाफ़ मैच में कपिल देव ने बेहतरीन पारी खेली थी। ऐसी पारी कभी-कभी ही कोई इंसान खेलता है अपने करियर में। उससे टीम का उत्साह बढ़ा। वो पारी टीम के लिए टॉनिक साबित हुई।
 
वो ऐसा वक़्त था जब लगने लगा था कि अब कुछ नहीं कर पाएँगे। लेकिन मैच जीतने के बाद ड्रेसिंग रूम में आए तो हमें वाकई लगा कि यहाँ से टीम की किस्मत बदल रही है।
 
सेमीफ़ाइनल इंग्लैंड के साथ था। बड़ा दिन था यहाँ जीतने का मतलब फ़ाइनल में। हम ये सोचकर मैदान पर उतरे थे कि हमारे पास जो भी असलाह मौजूद था उसे इस्तेमाल किया जाए। जब विकेट गिरते रहें तो दुनिया की कोई भी टीम दबाव में आ जाएगी।
 
जब भारत ने इंग्लैंड को 213 रन पर आउट कर दिया तो हमें पता था कि ये लक्ष्य हासिल किया जा सकता है।
 
टीम के कप्तान कपिल देव बेफ़िक्र इंसान थे वो, उनका खेलने का अंदाज़ आक्रामक था और कप्तानी भी वैसे ही करते थे।
 
फ़ाइनल मैच में सबने सोचा कि जो भी होगा देखा जाएगा। बस उस दिन जाकर सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन देना है। सबसे अहम चीज़ थी हिंदुस्तान फ़ाइनल में था।
 
फ़ाइनल में तो भारत का स्कोर केवल 183 रन ही था। लेकिन फिर भी जब गेंदबाज़ी करने उतरे तो सोच यही थी कि वेस्टइंडीज़ को अभी 183 रन बनाने हैं।
 
गेंदबाज़ी के लिए हालात अच्छे थे। हमें पता था कि मूविंग गेंद के कारण वेस्टइंडीज़ की टीम परेशानी में आ जाती है।
 
भारतीय टीम बहुत हैप्पी-गो लकी किस्म की टीम थी। अनुभवी और युवा दोनों तरह के खिलाड़ी मौजूद थे। मैदान पर खेलते थे तो पूरी लगन के साथ और बाहर हैं तो ख़ूब मौज मस्ती।
 
मैदान पर मिलजुल कर इंसान कुछ भी करे तो ताक़त और भी बढ़ जाती है। फ़ाइनल में हर एक विकेट अहम था। बलविंदर सिंह संधू, रॉजर बिन्नी, कपिल देव, मदन लाल सबने कमाल दिखाया। सबने अपना संयम और धैर्य बनाए रखा। जब उनके आठ विकेट गिर गए थो हमें लग गया था कि वर्ल्ड कप हमारे क़ब्ज़े में आ चुका है।
 
जब आख़िरी विकेट बचे थे तो हमें था कि बस जल्दी-जल्दी औपचारिकता पूरी करें। अंतिम विकेट लेते ही हम सब ड्रेसिंग रूम की ओर दौड़े और जश्न शुरू हो गया।
 
हर खिलाड़ी की उन दिनों तमन्ना होती थी कि लॉर्डस पर खेले, फ़ाइनल में खेले... उस दिन सब कुछ वहाँ मिल गया। उम्मीद के विपरीत कोई जीत मिल जाए तो उसका नशा और ही होता है। कुछ उपलब्धियाँ ऐसी होती हैं जो हमेशा याद रहती हैं। घर में उस दिन सबको बहुत खुशी थी।
 
पिताजी चाहते थे कि बेटा क्रिकेट में कुछ ऐसा हासिल करे जैसा उन्होंने किया। विश्व कप जीतना मेरे करियर का सबसे ख़ुशनुमा लम्हा है। उस दिन तो पूरा मु्ल्क जश्न मना रहा था। हिंदुस्तान में वैसे भी हमेशा क्रिकेट का बुख़ार रहा है।
 
जब भारत ने विश्व कप जीता तो ये एक अनहोनी चीज़ थी और पूरा देश खुशी से झूम उठा था। दुनिया भर में जहाँ भी हिंदुस्तानी थे उन्हें लगा था कि जैसे उन्होंने ही विश्व कप जीत लिया हो। हिंदुस्तान में आज जो क्रिकेट है उसकी शुरुआत 25 साल पहले 1983 में हुई थी।
 
1983 की टीम में सबसे बड़ा जादू ये था कि वो टीम ख़ुद पर बहुत निर्भर करती थी, हर खिलाड़ी को पता था कि उसे क्या करना है। ऐसा नहीं है कि आज की टीम अच्छी नहीं है लेकिन 1983 की टीम बहुत अनुभवी थी और बेहतरीन ऑलराउंडर थे टीम के अंदर। जिस टीम के पास ऑलराउंडर होंगे वो हमेशा अच्छा प्रदर्शन करेगी।
 
क्या कहते हैं किरमानी
हमारे बच्चे, पोता-पोती, नाती-नातिन जब भी हमारी जीत से जुड़ा वीडियो देखेंगे तो सोचेंगे कि हमारे दादा, हमारे नाना भारत के लिए खेले थे, आहा वर्ल्ड कप जीते थे। तो उन्हें खुशी होगी और अगर वो कभी भारत का नाम रोशन करना चाहेंगे तो प्रेरणा मिलेगी।
 
'टीम में बस कप्तान और मेरी जगह नहीं बदली'
वर्ष 1983 में भारत को विश्व कप दिलाने वाली क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान कपिल देव ने अपनी टीम के एक खिलाड़ी के बारे में एक बार कहा था कि वे शायद उस टीम के सबसे अहम सदस्यों में से थे क्योंकि बाहर बैठे हुए वे बता सकते थे कि टीम कहाँ ग़लत जा रही है।
 
फ़ाइनल में तीन विकेट लेने वाले मदन लाल उन्हें टीम का लकी चार्म कहते हैं- वो 12वां खिलाड़ी जिसकी किस्मत का साथ होना विश्व कप जीतने के लिए उतना ही ज़रूरी था।
 
यहाँ बात हो रही है सुनील वॉल्सन नाम के उस शख़्स की जो 1983 में भारतीय क्रिकेट की 14 सदस्यीय टीम में शामिल तो थे लेकिन उन्हें एक भी मैच खेलने का मौका नहीं मिला।
 
जब 14 सदस्यीय टीम के लिए 1983 में सुनील वॉल्सन का चयन हुआ तो वे उस समय इंग्लैंड में लीग क्रिकेट खेल रहे थे, डरहम कोस्ट लीग का हिस्सा थे। बुलावा आया तो उन्होंने सीधे लंदन में ही बाक़ी खिलाड़ियों को ज्वाइन किया।
 
उस सुनहरे दौर के बारे में याद करते हुए सुनील वॉल्सन बताते हैं, "विश्व कप जीतने की एक वजह तो ये थी कि प्रतियोगिता से पहले टीम से किसी को कोई उम्मीद नहीं थी। भारतीय टीम को अंडरडॉग कहना भी अंडरस्टेटमेंट होता। हम ये भी नहीं सोच सकते थे कि सेमीफ़ाइनल के भी आस-पास पहुँचेगे।
 
टर्निंग प्वाइंट वहाँ आया जब शुरु में ही भारत ने वेस्टइंडीज़ को हरा दिया। वेस्टइंडीज़ को उस समय हराना नामुमिकन था। फिर लीग मैच में ऑस्ट्रेलिया को हराया। दरअसल टीम में बेहतरीन ऑल राउंडर थे और यही एक फ़र्क था टीम में।"
 
लकी चार्म
विश्व विजेता टीम का हिस्सा होकर एक भी मैच न खेल पाना एक अजीब सी विसंगति थी- पास होकर भी दूर होने वाली विसंगति।
 
इस बात पर भी वॉल्सन ख़ुद पर चुटकी लेने से नहीं चूके, "ये तो उनकी ज़र्रानवाज़ी है वे मुझे लकी मानते हैं। पूरी प्रतियोगिता में भारतीय टीम के तीन खिलाड़ियों की पोज़िशन नहीं बदली- कप्तान, उपकप्तान और 12वां खिलाड़ी। गेंदबाज़ी- बल्लेबाज़ी में कई बदलाव हुए लेकिन 12वें खिलाड़ी के रूप में मेरी जगह स्थाई और पक्की थी। कुल मिलाकर बात यही है कि आप उन 14 खिलाड़ियों में शामिल थे।"
 
वर्ल्ड कप में एक मैच था जब लग रहा था कि सुनील वॉल्सन मैदान पर आख़िरकर उतर पाएँगे। वॉल्सन बताते हैं, "वेस्टइंडीज़ के ख़िलाफ़ मैच था। रॉजर बिन्नी शायद थोड़ा अनफ़िट थे, हैमस्ट्रिंग मसल में खिचांव था। कप्तान ने मुझसे कहा कि शायद मुझे मैदान पर उतरना पड़े। लेकिन सुबह फ़िटनेस टेस्ट हुआ तो रॉजर बिन्नी फ़िट घोषित हुए। ये कोई बड़ा मुद्दा नहीं था।"
 
अंडरडॉग की यही संज्ञा लिए जब टीम फ़ाइनल तक पहुंच गई तो टीम और प्रबंधन के दिमाग़ में क्या खलबली चल रही होगी?
 
वॉल्सन याद करते हैं, "पीआर मान सिंह हमारे मैनेजर थे, और तो अलग से प्रबंधन से कोई नहीं था। जब फ़ाइनल में पहुँचे तो दरअसल हमारे पास खोने के लिए कुछ नहीं था। दबाव हमारे ऊपर नहीं बल्कि वेस्टइंडीज़ के ऊपर था।
 
हमने 183 का स्कोर खड़ा किया, उसने बाद हमने सोचा कि बस दम लगाकर खेलते हैं और संघर्ष करते हैं। शुरुआती विकेट वाली बात थी- बस शुरू में विकेट मिले और वेस्टइंडीज़ पर दवाब बनने लगा। ग़ज़ब का मैच था वो।"
 
जब मैने पूछा कि जब वो पल जब भारत ने विश्व जीत जीत तो मैदान पर क्या माहौल था तो सुनील वॉल्सन ने पल भर में पूरी तस्वीर खींच दी मानो कल की ही बात हो, "हम तो समझिए सातवें आसमान पर थे। मुझसे किसी ने हाल ही में पूछा था कि क्या हम लोगों ने मैदान पर लैप ऑफ़ हॉनर लिया था। लैप ऑफ़ हॉनर का तो सवाल ही नहीं था क्योंकि मैदान पर लोगों का सैलाब उमड़ पड़ा था और खिलाड़ियों को पवेलियिन भागना पड़ा।"
 
तनाव पूर्ण मैच और टोटके
भारत का कोई तनावपूर्ण और अहम क्रिकेट मैच हो और अगर आप कुछ इस तरह के टोटके अपनाते हों कि जो जहाँ बैठा है वो वहीं बैठा रहेगा... तो ऐसा करने वाले आप अकेले नहीं है।
 
सुनील वॉल्सन बताते हैं, "उस समय बॉलकनी में क्रिकेट अधिकारी और खिलाड़ी थे। सब कोई हर तरह का टोटका इस्तेमाल कर रहा था जैसे जो जहाँ बैठा हुआ था वो वहाँ से हिले नहीं और अगर कोई हिल जाए तो ज़बरदस्ती बिठा देते थे। वहाँ एनपीके साल्वे जी, राज साहब, टाइगर पटौदी, विश्वनाथ सब लोग थे। सबको था कि बस जीतना था। खिलाड़ी और ड्रेसिंग रूम में अधिकारी ही नहीं दर्शक भी इस तरह के टोटके करते हैं। "
 
नील वॉल्सन से पूरी बातचीत के अंत में मैने कुछ हिचकिचाते और सकुचाते हुए पूछा कि क्या उस ऐतिहासिक प्रतियोगिता में एक भी मैच न खेलने पाने का रंज या टीस उनके मन में नहीं।
 
तपाक से जवाब आया, "मुझे इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि मैं विश्व कप के किसी मैच में खेल नहीं पाया। सच्चाई ये है कि मैं 14 सदस्यीय टीम का हिस्सा था और भारत के उन 14 खिलाड़ियों ने ही वर्ल्ड कप जिताया। जब विश्व कप की बात होती है तो पूरी टीम की बात होती है न कि किसी एक खिलाड़ी की। मैं गर्व से कहता हूँ कि उन 14 खिलाड़ियों में मैं भी शामिल था।"
 
(बीबीसी संवाददाता वंदना ने ये बातचीत 25 JUNE 2008 में लंदन में लॉर्डस मैदान पर रिकॉर्ड की थी)

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