'पानीपत' का अब्दाली, अफ़ग़ानिस्तान का हीरो क्यों?

Webdunia
बुधवार, 4 दिसंबर 2019 (21:08 IST)
दाऊद आज़मी, बीबीसी पश्तो सेवा
इस सप्ताह पर्दे पर आने वाली फ़िल्म 'पानीपत' एक ऐसी जंग पर आधारित है जिसे इतिहास की बड़ी जंगों में गिना जाता है। ये जंग आज से क़रीब 260 बरस पहले लड़ी गई थी। फ़िल्म के रिलीज़ होने से पहले ही इसे लेकर उत्साह भी है और एक तबक़ा फ़िक्रमंद भी है।
 
हमने इतिहास की किताबों में पढ़ा है कि पानीपत की तीसरी लड़ाई मराठा क्षत्रपों और अफ़ग़ान सेना के बीच हुई थी। 14 जनवरी 1761 को हुए इस युद्ध में अफ़ग़ान सेना की कमान अहमद शाह अब्दाली-दुर्रानी के हाथों में थी।
 
हिंदुस्तान की कई पीढ़ियां इस जंग का ज़िक्र आने पर रोमांचित होती रही हैं। इतिहासकारों में भी इस युद्ध को लेकर बहुत दिलचस्पी रही है।
 
'पानीपत' फ़िल्म में भारतीय उपमहाद्वीप और मध्य एशिया के इतिहास के एक बेहद ही अहम और निर्णायक मोड़ को दिखाया गया है। इस जंग के दूरगामी नतीजे निकले थे, जिनका असर हिंदुस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के साथ साथ कई और देशों पर भी पड़ा था। इस फ़िल्म को लेकर अफ़ग़ानिस्तान के लोग परेशान हैं।
 
उन्हें लगता है कि एक बार फिर से उनके देश के नायक अहमद शाह अब्दाली-दुर्रानी (1722-1772) की वही घिसी-पिटी नकारात्मक और खलनायक वाली छवि को दिखाने की कोशिश की जा रही है।
 
जबकि अफ़ग़ानिस्तान के आम जनमानस के बीच अहमद शाह अब्दाली-दुर्रानी को 'बाबा-ए-क़ौम' या 'फ़ादर ऑफ़ द नेशन' (राष्ट्रपिता) के तौर पर शोहरत हासिल है। सवाल ये है कि आख़िर कौन था अहमद शाह अब्दाली-दुर्रानी और अफ़ग़ानिस्तान में उसे किस नज़र से देखा जाता है?
 
सब से महान अफ़ग़ान
ये बात 1747 की है, जब 25 बरस के सेनानायक और क़बायली सरदार अहमद ख़ान अब्दाली को सर्वसम्मति से अफ़ग़ानिस्तान का शाह (राजा) चुना गया। उन्हें अफ़ग़ान क़बीलों की पारंपरिक पंचायत, जिरगा ने शाह बनाया था, जिसकी बैठक पश्तूनों के गढ़ कंधार में हुई थी।
 
कंधार अब दक्षिणी अफ़ग़ानिस्तान में पड़ता है। अहमद ख़ान अब्दाली को अपनी विनम्रता और करिश्मे के लिए ज़बरदस्त शोहरत और लोकप्रियता हासिल थी।
 
ताजपोशी के वक़्त, साबिर शाह नाम के एक सूफ़ी दरवेश ने अहमद शाह अब्दाली की ख़ूबियों और क़ाबिलियत को पहचान कर उसे दुर-ए-दुर्रान का ख़िताब दिया था जिसका मतलब होता है, मोतियों का मोती।
 
इसके बाद से अहमद शाह अब्दाली और उसके क़बीले को दुर्रानी के नाम से जाना जाने लगा। अब्दाली, पश्तूनों और अफ़ग़ान लोगों का बेहदअहम क़बीला है।
 
अहमद शाह इसी सम्मानित परिवार से ताल्लुक़ रखते थे। उन्होंने अपने शासन काल में उम्मीद से ज़्यादा हासिल किया। किसी को इस बात की उम्मीद नहीं थी कि अहमद शाह इतने कामयाब होंगे।
 
अहमद शाह अब्दाली ने तमाम अफ़ग़ान क़बीलों की आपसी लड़ाई को ख़त्म करके सबको एकजुट किया और एक अफ़ग़ान मुल्क की बुनियाद रखी। अहमद शाह ने तमाम जंगें जीतकर एक विशाल बादशाहत क़ायम की। इतिहासकार इसे दुर्रानी साम्राज्य कहते हैं।
 
अहमद शाह अब्दाली के विशाल साम्राज्य का दायरा पश्चिम में ईरान से लेकर पूरब में हिंदुस्तान के सरहिंद तक था।
 
उनकी बादशाहत उत्तर में मध्य एशिया के अमू दरिया के किनारे से लेकर दक्षिण में हिंद महासागर के तट तक फैली हुई थी। मोटे अनुमान के मुताबिक़, अहमद शाह अब्दाली की सल्तनत क़रीब बीस लाख वर्ग किलोमीटर में फैली हुई थी।
 
अहमद शाह अब्दाली ने अपने देश के लोगों को एक नई पहचान और एक आज़ाद मुल्क दिया। आज हम अब्दाली के क़ायम किए हुए मुल्क को ही अफ़ग़ानिस्तान के नाम से जानते हैं।
 
भले ही पुराने दौर के अफ़ग़ानिस्तान की चमक मिट चुकी हो, लेकिन, सरहद कमोबेश वैसी ही है। पश्तो ज़बान के मशहूर कवि अब्दुल बारी जहानी कहते हैं, "अहमद शाह बाबा सबसे महान अफ़ग़ान थे।"
 
अब्दुल बारी जहानी, अफ़ग़ानिस्तान की हुकूमत में संस्कृति और सूचना मंत्री रह चुके हैं। उन्होंने ही अफ़ग़ानिस्तान का मौजूदा राष्ट्रीय गीत भी लिखा है।
 
बारी कहते हैं, "अफ़ग़ानिस्तान के पांच हज़ार साल लंबे इतिहास में हमें अहमद शाह बाबा जैसा ताक़तवर, मशहूर और लोकप्रिय शासक नहीं मिलता।"
 
सबसे असरदार और निर्णायक घटना
अहमद शाह अब्दाली ने बादशाह बनने के पहले भी और बाद में भी कई निर्णायक जंगें लड़ी थीं। लेकिन जनवरी 1761 में दिल्ली के पास पानीपत के मैदान में लड़ा गया युद्ध, एक सेनापति और बादशाह के तौर पर अहमद शाह अब्दाली की ज़िंदगी की सबसे बड़ी जंग थी।
 
ये वो दौर था जब एक तरफ़ मराठा और दूसरी तरफ़ अब्दाली, दोनों ही अपनी बादशाहत का दायरा बढ़ाने में जुटे थे और ज़्यादा से ज़्यादा लोगों और इलाक़े को अपनी सल्तनत का हिस्सा बनाना चाहते थे। मराठा साम्राज्य लगातार जंगें जीतकर बेहद महत्वाकांक्षी हो रहा था।
 
मराठा क्षत्रपों ने अपने साम्राज्य का तेज़ी से विस्तार किया था। मराठा साम्राज्य के विस्तार से अहमद शाह अब्दाली को अपनी सल्तनत के लिए ख़तरा महसूस हो रहा था।
 
अब्दाली को लग रहा था कि मराठों की बढ़ती ताक़त उनके हिंदुस्तानी सूबों के साथ-साथ अफ़ग़ान प्रांतों के लिए भी ख़तरा बन रही है।
 
उत्तरी भारत के जो सूबे उस वक़्त अब्दाली के साम्राज्य का हिस्सा थे, वो अब्दाली के नए अफ़ग़ान साम्राज्य के लिए सामरिक तौर पर बेहद अहम थे इसीलिए आम अफ़ग़ान नागरिक मानते हैं कि अहमद शाह अब्दाली के लिए पानीपत की तीसरी लड़ाई आत्मरक्षा के लिए ज़रूरी हो गई थी।
 
अब्दाली के लिए इस जंग का मक़सद अपने साम्राज्य के एक बहुत बड़े ख़तरे को दूर करना था ताकि वो अपनी सल्तनत के साथ-साथ अपने क्षेत्रीय साथियों की भी हिफ़ाज़त कर सकें।
 
हालांकि इस जंग में अफ़ग़ान सेना की निर्णायक जीत हुई लेकिन दोनों ही ख़ेमों के हज़ारों लोग जंग में मारे गए थे।
 
अफ़ग़ानिस्तान के एक बड़े इलाक़े में इस जंग को आज भी 'मराटाई वहाल' (यानी मराठों को शिकस्त देना) को याद किया जाता है। कंधार इलाक़े में आज भी ये पश्तो ज़बान की एक कहावत के तौर पर मशहूर है।
 
इस कहावत को आम तौर पर किसी की ताक़त या उपलब्धियों को चुनौती देने या व्यंग करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
 
पश्तूनों के बीच आज भी आम बोलचाल में ये कहा जाता है, "तुम तो ऐसे दावे कर रहे हो, जैसे तुमने मराठों को शिकस्त दे दी है।" या फिर सवालिया तरीक़े से पूछा जाता है कि "तुमने किस मराठा को हरा दिया है?"
 
इतिहास से इंसाफ़?
कुछ लोगों, ख़ास तौर पर अफ़ग़ानों के एक तबके का कहना है कि पानीपत फ़िल्म में अहमद शाह अब्दाली की नकारात्मक छवि पेश करने का असर भारत और अफ़ग़ानिस्तान के दोस्ताना ताल्लुक़ पर भी पड़ सकता है। इस फ़िल्म की वजह से दोनों देशों की जनता में एक दूसरे के प्रति नकारात्मक भाव पैदा होगा।
 
पाकिस्तान ने तो अपनी एक बैलिस्टिक मिसाइल का नाम ही अहमद शाह अब्दाली के नाम पर रखा है।
 
इसी वजह से कई जानकार ये भी कहते हैं कि फ़िल्म पानीपत में अहमद शाह अब्दाली-दुर्रानी की नकारात्मक छवि पेश की गई तो पाकिस्तान इसका सियासी फ़ायदा उठाने की कोशिश कर सकता है।
 
फ़िल्म पानीपत के क़रीब तीन मिनट लंबे ट्रेलर में दिखीं तीन तथ्यात्मक ग़लतियों ने इस चिंता को और भी बढ़ा दिया है।
 
फ़िल्म पानीपत में अहमद शाह अब्दाली का किरदार साठ बरस के संजय दत्त ने निभाया है जबकि 1761 में अहमद शाह अब्दाली की उम्र महज़ 38 साल थी इसलिए अफ़ग़ान बादशाह की उम्र और किरदार हक़ीक़त से मेल नहीं खाते हैं।
 
फ़िल्म के ट्रेलर में दो बार ये कहते दिखाया गया है, "अहमद शाह अब्दाली एक लाख फ़ौजियों के साथ हमला करने आ रहा है।"
 
लेकिन इस जंग के चश्मदीद और इतिहासकारों के मुताबिक़, पानीपत की तीसरी लड़ाई में अफ़ग़ानिस्तान की सेना में 80 हज़ार के क़रीब घुड़सवार और तोपख़ाने थे।
 
अहमद शाह अब्दाली, अफ़ग़ानिस्तान से 30 से 40 हज़ार सैनिक लेकर आया था जबकि बाक़ी सैनिक उसके स्थानीय सहयोगी शासकों के थे। इनमें भारत में रह रहे अफ़ग़ान भी शामिल थे।
 
फ़िल्म पानीपत की कास्टिंग, लिबास, अफ़ग़ानी सेना का झंडा और प्रतीक चिह्न देखकर ये साफ़ हो जाता है कि ये फ़िल्म हक़ीक़त से ज़्यादा कल्पना पर आधारित है।
 
मसलन, फ़िल्म के कुछ सीन में अहमद शाह अब्दाली को जो पगड़ी या साफ़ा पहने दिखाया गया है, वो न तो पहले अफ़ग़ान पहनावे का हिस्सा था, न आज है।
 
बाबा-ए-अफ़ग़ान
अपने 25 बरस के राज में अहमद शाह अब्दाली ने अपने मुल्क और अपने लोगों की तरक़्क़ी में बेशक़ीमती योगदान दिया।
 
हालांकि उसके बारे में कहा जाता था कि वो हमेशा हड़बड़ी में रहता था लेकिन अहमद शाह अब्दाली ने अपनी हुक़ूमत कभी भी बेपरवाह नौजवान के तौर पर नहीं चलाई बल्कि उसने बड़ी समझदारी से राज किया।
 
अपने दौर से लेकर आज तक अहमद शाह अब्दाली, अफ़ग़ान लोगों में आत्मसम्मान और क़ौमी एकता का भाव जगाता है।
 
प्रसिद्ध भारतीय इतिहासकार गंडा सिंह (1900-1987) ने अपनी किताब 'अहमद शाह दुर्रानी: आधुनिक अफ़ग़ानिस्तान के निर्माता' में लिखा है, "अहमद शाह अब्दाली सिर से लेकर पांव तक, शुरू से लेकर आख़िर तक विशुद्ध रूप से एक अफ़ग़ान था जिसने अपनी पूरी ज़िंदगी मुल्क की बेहतरी के नाम कर दी थी।"
 
गंडा सिंह ने लिखा है, "अहमद शाह अब्दाली आज भी आम अफ़ग़ान लोगों के दिलों में ज़िंदा है। फिर चाहे वो नौजवान हो या बुज़ुर्ग। हर अफ़ग़ान इस महान विजेता की इबादत करता है। वो उसे एक सच्चा और सादादिल इंसान मानते हैं जो जन्मजात नेता था। जिसने पूरे अफ़ग़ानिस्तान को आज़ाद कर के एकजुट किया और ख़ुदमुख़्तार मुल्क बनाया इसीलिए आम अफ़ग़ान अब्दाली को अहमद शाह बाबा, अहमद शाह महान कहते हैं।"
 
एक फ़क़ीर, एक कवि भी
अफ़ग़ानिस्तान के लोग अहमद शाह अब्दाली को एक संत की तरह पूजते हैं। उन्हें अब्दाली पर अभिमान है और पूरा मुल्क अब्दाली का शुक्रगुज़ार है।
 
अहमद शाह अब्दाली को दीन-ए-इस्लाम का सच्चा सिपाही माना जाता है। उसकी ये छवि न केवल अफ़ग़ानिस्तान में है बल्कि पाकिस्तान के पश्तून इलाक़ों के लोग भी अब्दाली के बारे में यही राय रखते हैं। यही नहीं, मध्य और दक्षिण एशिया के मुसलमानों की बड़ी तादाद अब्दाली का नाम अदब से लेती है।
 
अहमद शाह अब्दाली-दुर्रानी का मकबरा कंधार में है। कंधार ही अब्दाली के साम्राज्य की राजधानी था।
 
तीर्थयात्रियों और अक़ीदतमंदों के लिए कंधार एक महत्वपूर्ण ठिकाना है। आज भी पूरे देश से लोग अब्दाली के मज़ार पर फ़ातिहा पढ़ने के लिए कंधार आते हैं।
 
अहमद शाह अब्दाली केवल तलवार का बाज़ीगर नहीं था। वो क़लम और हर्फ़ों का भी उस्ताद था। अब्दाली बहुत अच्छी नज़्में लिखा करता था।
 
सिर्फ़ नज़्में ही क्यों, अब्दाली शानदार लेख भी लिखा करता था। अहमद शाह अब्दाली ने अपनी मादरी ज़बान पश्तो के अलावा दारी-फ़ारसी और अरबी भाषा में भी रचनाएं लिखी हैं।
 
उसकी तमाम साहित्यिक कृतियों का एक दीवान पश्तो भाषा में इकट्ठा किया गया है। जिसे आज भी हर उम्र के अफ़ग़ान पढ़ते और गाते हैं।
 
भारत में ब्रिटिश साम्राज्य से ताल्लुक़ रखने वाले एक इतिहासकार और नेता माउंटस्टार्ट एल्फ़िंस्टन (1779-1859) ने 1808 में अफ़ग़ानिस्तान का दौरा किया था।
 
इस के बाद उन्होंने अपने इस सफ़र को एक किताब की शक़्ल में बयान किया है, जिसका नाम है, 'एकाउंट ऑफ़ द किंगडम ऑफ़ काबुल ऐंड इट्स डिपेंडेंसीज़ इन पर्सिया तातारी एंड इंडिया।' इसमें एल्फ़िंस्टन ने लिखा है, "अहमद शाह अब्दाली का ज़िक्र आम तौर पर दया और विनम्रता के दूत के तौर पर होता है।"
 
एल्फ़िंस्टन ने ये भी लिखा है, "अब्दाली की ख़्वाहिश हमेशा ही एक संत बनने की रही थी। वो आध्यात्मिक रुझान वाले व्यक्ति थे और वो एक जन्मजात लेखक थे।"
 
लेकिन पानीपत फ़िल्म का ट्रेलर देखकर लगता है कि अहमद शाह अब्दाली एक क्रूर हत्यारा था। जो बहुत आक्रामक था और हमेशा ग़ुस्से में ही रहता था।
 
अब्दाली की नज़्म
ब्रिटिश भारतीय सेना के एक अधिकारी और भाषाविद् हेनरी जी रैवर्टी (1825-1906) ने अहमद शाह अब्दाली के किरदार का वर्णन कुछ इस तरह किया है- वो एक बेहद क़ाबिल शख़्स थे उनका धर्म और साहित्य का ज्ञान डॉक्टरेट स्तर का था।
 
अपनी एक नज़्म में अब्दाली ने लिखा-
 
ऐ अहमद, अगर लोगों को अपनी इबादत पर ग़ुरूर है
 
तो तू ग़रीबों की मदद करके उनकी इबादत हासिल कर।
 
पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों को शिकस्त देने के बाद अहमद शाह अब्दाली चाहता तो हिंदुस्तान में ही रुक सकता था और वो दिल्ली से पूरे देश पर राज कर सकता था।
 
लेकिन उसने कंधार वापस जाना बेहतर समझा ताकि अपनी सल्तनत की सरहदों को महफ़ूज़ रख सके। वो अफ़ग़ान साम्राज्य को अफ़ग़ान क़बीलों और संस्कृति की सरहदों के दायरे में ही सीमित रखना चाहता था।
 
शायद यही वजह थी कि उसने अपनी सबसे लोकप्रिय नज़्मों में से एक में लिखा था कि-
 
मैं दिल्ली के तख़्त को भूल जाता हूं,
 
जब मुझे अपनी ख़ूबसूरत अफ़ग़ान सरज़मीं की पहाड़ियां याद आती हैं।।।

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