यह कोई पहली बार नहीं है जब नई दिल्ली और बीजिंग प्रशासन ने अपने साथ सीमा साझा करने वाले देश नेपाल के प्रधानमंत्री को यात्रा पर आमंत्रित किया है। नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दाहाल प्रचंड ने अपने तीसरे कार्यकाल की शुरुआत में भारत की अपनी पहली विदेश यात्रा की घोषणा की थी। हालांकि उन्होंने बीते सप्ताह उच्च सदन नेशनल असेंबली को बताया कि पहली यात्रा का निमंत्रण चीन से आया था।
वे यहीं तक नहीं ठहरे। उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें आमंत्रित करने के बाद चीनी राजदूत ने स्वयं नेपाल की आंतरिक स्थिति का हवाला देते हुए बताया कि वे चीन यात्रा की संभावना नहीं देख रहे हैं।
प्रचंड ने कहा कि राजदूत ने उनको किसी दूसरे समय पर यात्रा करने की सलाह दी थी और इसके लिए उन्होंने चीनी राजदूत को धन्यवाद भी दिया।
कूटनीतिक मामलों में दिलचस्पी रखने वाले कुछ विशेषज्ञों की राय है कि प्रधानमंत्री के बयान से कूटनीतिक संबंधों में नुक़सान हो सकता है। वहीं एक माओवादी नेता ने कहा कि प्रधानमंत्री का बयान उनके 'मुखर स्वभाव' के मुताबिक ही है।
नई दिल्ली में मौजूद एक विशेषज्ञ ने इस बात पर ज़ोर दिया है कि नेपाली नेताओं को भारत के साथ अपने संबंधों में चीनी कार्ड का उपयोग करने की इच्छा से मुक्त होना चाहिए।
भारत और नेपाल, दोनों देशों के अधिकारियों ने शनिवार को घोषणा की कि प्रधानमंत्री प्रचंड 31 मई से तीन जून तक भारत का दौरा करेंगे।
प्रचंड ने क्या कहा था
पांच महीने पहले प्रचंड ने प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेने के तुरंत बाद भारतीय मीडिया को दिए एक साक्षात्कार में कहा था कि उनकी पहली विदेश यात्रा भारत की होगी।
लेकिन इस सप्ताह होने वाली यात्रा की तारीख़ की घोषणा से पहले उन्होंने नेशनल असेंबली को बताया कि चीन ने उन्हें मार्च के अंत में आयोजित 'बोआओ फोरम फॉर एशिया' में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया था।
प्रचंड ने कहा, "आमंत्रण आया था, लेकिन मौजूदा परिस्थिति में यात्रा नहीं करने का फ़ैसला नेपाल की ओर से नहीं लिया गया।"
उन्होंने यह भी बताया कि चीनी राजदूत ने उनसे कहा कि राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनावों के दबाव और गठबंधन सरकार बनाने और तोड़ने की प्रक्रिया को देखते हुए नेपाल के इस सम्मेलन में भाग लेने की संभावना नहीं दिख रही है।
उन्होंने कहा, "वो हमारी बोआओ फोरम की यात्रा सम्भव नहीं देख रहे थे और कुछ समय बाद यात्रा का सुझाव दिया। मैंने हमारी मुश्किल समझने लिए उनको धन्यवाद दिया।"
हालांकि बाद में ऐसी खबरें आईं कि 'काठमांडू में चीनी राजदूत ने प्रधानमंत्री प्रचंड से मुलाकात कर अपनी शिकायतें दर्ज कराई।'
प्रचंड और चीनी राजदूत के बीच मुलाकात और इस दौरान हुई बातचीत की पुष्टि के लिए बीबीसी न्यूज़ नेपाली ने चीनी दूतावास से संपर्क किया। वहां से अब तक कोई जवाब नहीं मिला है।
प्रचंड पर भारत को कितना भरोसा?
'नेपाल एंड द जियोस्ट्रेटजिक राइवलरी बिटवीन चाइना एंड इंडिया' किताब के लेखक संजय उपाध्याय कहते हैं कि नई दिल्ली में प्रचंड को अभी भी कई लोग चीन समर्थक नेता मानते हैं।
हालांकि प्रचंड घरेलू राजनीति में खुद को प्रासंगिक बनाए हुए हैं लेकिन संजय उपाध्याय का दावा है कि बाहरी संबंधों में उनकी विश्वसनीयता कम हुई है।
संजय कहते हैं, "दिल्ली ने बोआओ फोरम में भाग नहीं लेने के प्रचंड के बयान को तथ्य के बजाय बीजिंग का बचाव माना। किसी भी स्थिति में भारत के साथ बातचीत करते समय नेपाल के प्रधानमंत्री आरामदायक स्थिति में नहीं होंगे।"
उपाध्याय का मानना है कि सार्वजनिक बयानों में सशस्त्र संघर्ष के कुछ वामपंथी मुद्दों को लगातार उठाने, उनके सहयोगियों और पार्टी के नेताओं के बीजिंग दौरे के कारण भी प्रचंड को लेकर भारत कभी आश्वस्त नहीं दिखा।
हालांकि सीपीएन माओवादी सेंटर के अंतरराष्ट्रीय विभाग के सदस्य युवराज चौलगई ने कहा कि प्रचंड का स्वभाव कुछ भी छिपाने का नहीं है।
उन्होंने कहा, "उन्होंने संसद में इस संदर्भ (चीन की यात्रा) के बारे में अपनी भावनाओं को भी व्यक्त किया है। हम सभी जानते हैं कि उस समय वे नेपाल में विभिन्न कार्यों में व्यस्त होने के कारण जाने में सक्षम नहीं थे। इस बात को मुद्दा बनाने की जरूरत नहीं है कि पहले चीन जाना है या भारत।"
उन्होंने कहा कि प्रचंड ने राष्ट्रहित में किसी के साथ समझौता नहीं किया, "हमें चीन के साथ संबंधों को समान रूप से सुचारू रखते हुए भारत की यात्रा स्वभाविक रूप से करनी चाहिए।"
प्रचंड और भारत के संबंधों में उतार-चढ़ाव
प्रचंड ने 10 साल के सशस्त्र संघर्ष के दौरान अधिकांश समय भारत में बिताया था। तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पहले संविधान सभा चुनाव के बाद प्रचंड के प्रधानमंत्री बनने के कुछ ही मिनटों के भीतर उन्हें बधाई दी थी।
भारत ने अपने बधाई संदेश में उन्हें दिल्ली आने का निमंत्रण दिया, लेकिन प्रचंड ने बीजिंग ओलंपिक के समापन में भाग लेने के लिए चीन की ओर से मिले निमंत्रण को स्वीकार किया और बीजिंग गए।
उन्होंने बाद में बीबीसी को दिए एक साक्षात्कार में बताया, "मुझसे पूछा गया था कि खेलकूद मंत्री के बजाय प्रधानमंत्री को वहां क्यों जाना पड़ा। हफ्तों तक कई तरह का दबाव भी था।"
साल 2008 में जब वो राष्ट्रपति हू जिंताओ से मिले तब 20 मिनट की बैठक तय थी लेकिन वो मीटिंग 35 मिनट तक चली।
तत्कालीन चीनी राष्ट्रपति हू ने उस समय नेपाल को मिलने वाली आर्थिक सहायता बढ़ाने का वादा किया था।
प्रचंड ने अपने पहले कार्यकाल के दौरान दो बार भारत का दौरा किया लेकिन कहा जाता है कि चीन के साथ उनकी निकटता और नेपाली सेना के साथ टकराव के कारण भारत सरकार उनसे असंतुष्ट हो गयी।
साल 2009 में जब तत्कालीन सेनाध्यक्ष को प्रधानमंत्री प्रचंड ने अपदस्थ किया तो भारत और उनके रिश्तों में ख़ासा ठंडापन देखने को मिला। जब नेपाल के राष्ट्रपति रामबरन यादव ने सेना प्रमुख को हटाने के उनकी सरकार के फ़ैसले पर रोक लगा दी तब प्रचंड ने इस्तीफ़ा दे दिया।
वापसी के लिए इंतज़ार
उसके बाद सत्ता में वापसी के लिए प्रचंड को सात साल इंतज़ार करना पड़ा। सितंबर 2016 में प्रचंड की भारत की राजकीय यात्रा के बाद, नेपाल और भारत की ओर से जारी संयुक्त बयान में, सीमा अतिक्रमण और 1950 की संधि में संशोधन जैसे मुद्दे, जो उनकी पार्टी द्वारा लंबे समय से उठाए गए हैं, स्पष्टता से नहीं उठाए गए थे।
उसके एक साल बाद प्रचंड के नेतृत्व वाली सीपीएन माओवादी सेंटर और केपी शर्मा ओली के नेतृत्व वाली सीपीएन यूएमएल ने चुनावी समन्वय के लिए एकजुट हुए।
संविधान की घोषणा के समय ओली ने भारतीय रुख़ का कड़ा विरोध किया था, उस समय उन्होंने खुद को चीन का क़रीबी दिखाने की कोशिश की।
कई लोग नेपाल की दो प्रमुख कम्युनिस्ट पार्टियों के एक साथ आने के लिए चीन के अघोषित समर्थन की भी चर्चा कर रहे हैं।
वो एकता लंबे समय तक कायम नहीं रही। उसके बाद प्रचंड की पार्टी ने नेपाली कांग्रेस से हाथ मिला लिया और पिछले साल हुए आम चुनाव में तीसरी पार्टी बन गई।
चुनाव से पहले बीजेपी अध्यक्ष के आमंत्रण पर प्रचंड दिल्ली गए थे। उस समय उनको भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाक़ात का मौका नही मिला।
पहले ओली और फिर कांग्रेस अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा के समर्थन से प्रचंड सत्ता में हैं और इस बार दिल्ली यात्रा पर निकलने से पहले चीन दौरे का ज़िक्र वो स्वयं कर रहे हैं।
भारत को प्रचंड के दौरे से कितनी उम्मीद?
नई दिल्ली में 'सेंटर फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक प्रोग्रेस' में 'फॉरेन पॉलिसी एंड सिक्योरिटी स्टडीज' के फेलो कॉन्स्टैंटिनो ज़ेवियर का कहना है कि नई दिल्ली को नेपाल से कुछ उम्मीदें छोड़ देनी चाहिए।
उन्होंने कहा, "यह सही समय है कि भारत इस अपरिपक्व उम्मीद को छोड़ दे कि नेपाल के प्रधानमंत्री को कहीं और जाने से पहले भारत का दौरा करना चाहिए।"
"ऐसी प्रतीकात्मक बातों के बजाय, मुख्य बात राजनीतिक भागीदारी बढ़ाना और माइक्रो मैनेजमेंट को कम करना है, सीमा पार कनेक्टिविटी को बढ़ाना है, नेपाल के आर्थिक विकास का समर्थन करना है और भारत के साथ आपसी निर्भरता वाले संबंध को प्रगाढ़ बनाना है।"
उन्होंने कहा कि वैकल्पिक हवाई मार्ग प्रदान करने के लिए नेपाल के वर्तमान अनुरोध जैसी मांगों को पूरा करने के लिए दिल्ली की तत्परता भविष्य के द्विपक्षीय संबंधों को एक दिशा प्रदान करेगी।
लेकिन कई महत्वपूर्ण विकास साझेदारियों के एजेंडे के साथ नई दिल्ली जा रहे प्रधानमंत्री की यात्रा पर कई लोगों की नजर है।
प्रचंड के दौरे की तारीख से लगभग एक हफ्ते पहले, भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने बहुप्रतीक्षित बैठक के लिए नेपाली राजदूत शंकर शर्मा को समय दिया।
ज़ेवियर को लगता है कि यह यात्रा प्रचंड की भी परीक्षा लेगी। उन्होंने कहा, "यह दौरा यह भी दिखाएगा कि क्या प्रधानमंत्री प्रचंड नेपाल-भारत संबंधों पर फिर से तालमेल बिठाने और दिल्ली के साथ विश्वास बढ़ाने की दिशा में आगे बढ़ने के इच्छुक हैं।"
इसके लिए रणनीतिक सोच की आवश्यकता है जो 'राष्ट्रवादी राजनीति' का उपयोग करने की इच्छा से मुक्त हो और भारत से रियायतें निकालने के लिए 'चीन कार्ड' का उपयोग करे।"
पूर्व प्रधानमंत्री और सीपीएन-यूएमएल नेता केपी शर्मा ओली के कार्यकाल में नक्शे के विवाद के बीच नेपाल-भारत के रिश्तों में ठंडक आ गई थी।
कॉन्स्टेंटिनो का मानना है कि प्रधानमंत्री ओली की अतीत की 'अदूरदर्शी नीति' ने उन्हें और नेपाल की विकास क्षमता को नुक़सान पहुँचाया।
यह देखते हुए कि प्रचंड नेपाल के अधिकांश दूसरे नेताओं की तुलना में भारत को अधिक समझते हैं, उन्होंने कहा, "इसलिए यह उनके लिए आसान है। लेकिन दिल्ली इस बात पर क़रीब से नज़र रखेगी कि क्या वह अपने शब्दों को व्यवहार में बदल सकते हैं और स्पष्ट कर सकते है कि भारत, नेपाल के विकास और देश के भीतर स्थिरता के लिए एक अनिवार्य भागीदार क्यों है?"
रिश्तों को संभालने की चुनौती है पुरानी
चीन के संवेदनशील पठारी तिब्बत से जुड़े नेपाल के प्रधानमंत्री के साथ दिल्ली और बीजिंग प्रशासन की ओर से अच्छे संबंध रखने की ख्वाहिश नयी नहीं है। नेपाली प्रधानमंत्री सत्ता संभालने के बाद भारत और चीन दोनों देशों का दौरा करते रहे हैं।
नेपाल के पहले लोकप्रिय निर्वाचित प्रधानमंत्री बीपी कोइराला ने भी उल्लेख किया है कि सत्ता संभालने के बाद उनको पहली यात्रा का निमंत्रण चीन से आया था लेकिन दिल्ली की सरकार चाहती थी कि वो पहले भारत की यात्रा करें।
जैसा कि कोइराला की आत्मकथा में उल्लेख किया गया है, चीनी पक्ष ने अप्रैल के महीने का सुझाव दिया क्योंकि सर्दियों में बीजिंग जाना मुश्किल होता।
आत्मकथा में उल्लेख किया गया है कि भारतीय मीडिया में उनके निमंत्रण की स्वीकृति का विवरण सामने आने के बाद भारत के तत्कालीन राजदूत भगवान सहाय ने उनसे मुलाकात की और कहा कि नेपाल और भारत के बीच एक विशेष संबंध है और 'भारत आने से पहले चीन का दौरा करना अच्छा नहीं होगा।'
उसके जवाब में जब उन्होंने कहा कि वह भारत आते जाते रहे हैं तो भारतीय राजदूत ने कहा कि उन्हें राजकीय यात्रा पर आमंत्रित किया जाएगा।
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 26 जनवरी, 1960 को गणतंत्र दिवस समारोह में भाग लेने के लिए कोइराला को आमंत्रित किया।
उसी वर्ष अप्रैल में कोइराला ने चीन का दौरा किया और चीनी नेता माओत्से तुंग और प्रधानमंत्री चाउ एन-लाई के साथ विचार-विमर्श किया।
उस समय भारत ने नेपाल को 18 करोड़ रुपये की मदद दी थी। कोइराला ने चीन से इसी तरह की सहायता की उम्मीद के साथ प्रस्ताव दिया जिस पर चीनी प्रधानमंत्री ने कहा, 'हम उससे थोड़ा कम देंगे।'
कोइराला ने उस समय के चीनी प्रधानमंत्री के शब्दों का हवाला देते हुए लिखा, "अगर हम आपको बहुत अधिक मदद देंगे तो भारत चिंतित होगा। यह हमारे लिए उपयुक्त नहीं होगा क्योंकि अंतरराष्ट्रीय समुदाय को लगेगा कि हम भारत के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। हम आपके साथ मैत्रीपूर्ण संबंध रखना चाहते हैं, इसलिए हम भारत से थोड़ी कम मदद करेंगे। इसे अन्यथा न लें।"
प्रधानमंत्री कोइराला की सरकार, जो लगभग दो-तिहाई वोटों से चुनी गई थी, को तत्कालीन राजा महेंद्र ने दिसंबर 1960 में अपदस्थ कर दिया था।
क़रीब दो साल बाद भारत और चीन के बीच युद्ध छिड़ गया। लेकिन उपाध्याय जैसे विदेशी मामलों के विशेषज्ञ कहते हैं कि नेपाल में भारत को अहमियत देने वाली चीन की नीति लंबे समय तक चली।
चीन का बढ़ता प्रभाव
नेपाल में राजशाही की समाप्ति और गणतंत्र की स्थापना के बाद यह माना जाता है कि नेपाल में चीन का प्रभाव बढ़ रहा है। काठमांडू को अपने दो बड़े पड़ोसी देशों भारत और चीन के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए चुनौतियों का सामना करना पड़ता है और इसके कई उदाहरण हैं। अब भारत चीन रिश्तों में जो अविश्वास दिख रहा है, नेपाल में उसका प्रभाव साफ़ दिख रहा है।
हाल ही में अमेरिका की नेपाल में रुचि और अमेरिकी अधिकारियों की उच्चस्तरीय यात्राएं बढ़ रही हैं। चीनी सरकार के मुखपत्र में इसे संदेह की दृष्टि से देखने वाले लेख प्रकाशित हुए हैं।
लेखक संजय उपाध्याय कहते हैं कि भारत को दिल्ली के मूल हितों की रक्षा करने के लिहाज से काठमांडू की क्षमता पर भरोसा नहीं है।
ऐसे भी लोग हैं जो मानते हैं कि सीमा विवाद समेत कई मुद्दों को लेकर नेपाल और भारत के बीच भरोसे का संकट अब भी कायम है। उनमें से एक पूर्व राजनयिक दिनेश भट्टराई हैं, जो नेपाल के दो प्रधानमंत्रियों के विदेशी मामले के सलाहकार रह चुके हैं। उन्होंने कहा, "नीति में निरंतरता के बिना विदेशी संबंधों में विश्वसनीयता बनाए नहीं रखी जा सकती है।"
नेपाल के पूर्व राजनयिकों में से एक, यदुनाथ खनाल के शब्दों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा, "यदि भारत या चीन में से कोई भी हम पर विश्वास खो देता है और सोचता है कि द्विपक्षीय संबंधों में हमारे व्यवहार से उनके महत्वपूर्ण राष्ट्रीय हितों और संवेदनशीलताओं को पर्याप्त रूप से संबोधित नहीं किया गया है तो नेपाल की विदेश नीति विफल हो जाएगी।"