प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक बार फिर 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' की ज़रूरत पर ज़ोर दिया है। उन्होंने पीठासीन अधिकारियों के 80वें अखिल भारतीय सम्मेलन के समापन सत्र को वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के ज़रिए सम्बोधित करते हुए फिर इसकी चर्चा की।
उन्होंने कहा कि वन नेशन वन इलेक्शन सिर्फ़ चर्चा का विषय नहीं बल्कि भारत की ज़रूरत है। हर कुछ महीने में भारत में कहीं न कहीं चुनाव हो रहे हैं। इससे विकास कार्यों पर प्रभाव पड़ता है। ऐसे में वन नेशन, वन इलेक्शन पर गहन मंथन आवश्यक है।
प्रधानमंत्री ने पिछले वर्ष जून में भी 'एक देश, एक चुनाव' के मुद्दे पर एक सर्वदलीय बैठक बुलाई थी। वो काफ़ी समय से लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एकसाथ कराने पर ज़ोर देते रहे हैं। लेकिन इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों की राय बंटी हुई रही है।
प्रधानमंत्री मोदी कई बार कह चुके हैं कि अगर लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होंगे तो इससे पैसे और समय की बचत होगी। उनका कहना है कि बार-बार चुनाव होने से प्रशासनिक काम पर भी असर पड़ता है। अगर देश में सभी चुनाव एक साथ होते हैं तो पार्टियां भी देश और राज्य के विकास कार्यों पर ज़्यादा समय दे पाएंगी।
पहली औपचारिक बैठक
प्रधानमंत्री ने पिछले साल जून में पहली बार औपचारिक तौर पर सभी पार्टियों के साथ इस मसले पर विचार विमर्श के लिए बैठक बुलाई थी। इसके लिए उन्होंने सभी पार्टियों के प्रमुखों को आमंत्रित किया। तब केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ बीजेपी नेता रवि शंकर प्रसाद ने इस बारे में कहा कि इस देश में ये स्थिति है कि हर महीने चुनाव होते हैं। हर बार चुनाव होता है तो उसमें खर्चा होता है। आचार संहिता लगने के कारण कई प्रशासनिक काम भी रुक जाते हैं और हर प्रदेश के चुनाव में बाहर के पदाधिकारी पोस्टेड होते हैं जिसकी वजह से उनके अपने प्रदेश के काम पर असर पड़ता है।
पार्टियों की राय अलग-अलग
लेकिन राजनीतिक दलों की राय इस मसले पर बंटी हुई है। पिछले साल जब लॉ कमिशन ने इस मसले पर राजनीतिक पार्टियों से सलाह की थी तब समाजवादी पार्टी, तेलंगाना राष्ट्र समिति, शिरोमणि अकाली दल जैसी पार्टियों ने 'एक देश, एक चुनाव' की सोच का समर्थन किया था। हालांकि डीएमके, तृणमूल कांग्रेस, सीपीआई, AIUDF और गोवा फॉर्वर्ड पार्टी ने इस विचार का विरोध किया था।
कांग्रेस का कहना था कि वो अपना रुख़ तय करने से पहले बाक़ी विपक्षी पार्टियों से चर्चा करेगी। सीपीआईएम ने कहा था कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराना अलोकतांत्रिक और संघवाद के सिद्धांत के ख़िलाफ़ होगा। वाम दलों का कहना है कि ये एक अव्यावहारिक विचार है, जो जनादेश और लोकतंत्र को नष्ट कर देगा। राजनीतिक विज्ञान के प्रोफ़ेसर सुहास पलशिकर भी कुछ ऐसा ही मानते हैं।
वो कहते हैं कि नियमों में बदलाव कर लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जा सकते हैं। लेकिन उनका कहना ये भी है कि इस तरह के बदलाव से देश के संविधान के दो तत्वों- संसदीय लोकतंत्र और संघवाद के ख़िलाफ़ होगा।
सुहास पलशिकर कहते हैं कि एक देश, एक चुनाव कराने का मतलब ये है कि पांच साल के बाद ही चुनाव होंगे। उसके पहले नहीं हो पाएंगे। इसे ऐसे समझिए कि अगर किसी विधानसभा में किसी पार्टी का बहुमत किसी वजह से ख़त्म हो गया तो आज का सिस्टम ये है कि वहां दोबारा चुनाव होते हैं, पांच साल के पहले भी। लेकिन एक देश एक चुनाव सिस्टम में वैसा नहीं होगा।
उनका कहना है कि एक देश कि एक चुनाव में ज़रूरी है कि जब लोकसभा के चुनाव आएंगे, तभी विधानसभा चुनाव के भी आने चाहिए। कई सालों से ये मामला चल रहा है। अब एक बार इसे फिर उठाया गया है, लेकिन मेरा मानना है कि ये संविधान के तत्वों के ख़िलाफ़ है।
सुहास पलशिकर कहते हैं कि उन्हें नहीं लगता कि इससे पैसा बचेगा। उनका कहना है कि मान लीजिए अगर पैसा बच भी रहा है तो क्या पैसा बचाने के लिए लोकतंत्र को ख़त्म कर दिया जाएगा। उन्होंने कहा कि तो मेरे ख्याल से ये सवाल पैसे का नहीं होना चाहिए। सवाल ये है कि क्या हम अपनी अपने गणतंत्र से समझौता करने के लिए तैयार हैं?
समर्थकों के तर्क
कहा जाता है कि लोकसभा चुनाव के दौरान मतदाता अलग तरीक़े से वोट करता है और विधानसभा चुनाव के दौरान अलग तरीक़े से। 'एक देश, एक चुनाव' के विचार का विरोध करने वालों का कहना है कि अगर ये दोनों चुनाव एक साथ होंगे तो मतदाता केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी के लिए वोट कर देगा।
लेकिन इस विचार और मुद्दे का समर्थन करने वाले ओडिशा का उदाहरण देते हैं। समर्थकों का कहना हैं कि ओडिशा में 2004 के बाद से चारों विधानसभा चुनाव, लोकसभा चुनाव के साथ हुए और उसमें नतीजे भी अलग-अलग रहे। ऐसा ही आंध्र प्रदेश में भी हुआ, जहां लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव साथ कराए गए लेकिन नतीजे अलग-अलग रहे। समर्थन करने वालों का तर्क ये भी है कि ओडिशा में आचार संहिता भी बहुत कम देर के लिए लागू होता है जिसकी वजह से सरकार के कामकाज़ में दूसरे राज्यों के मुक़ाबले कम व्यवधान आता है।
कब-कब एक साथ हुए चुनाव
आज़ादी के बाद देश में पहली बार 1951-52 में चुनाव हुए थे। तब लोकसभा चुनाव और सभी राज्यों में विधानसभा चुनाव एक साथ कराए गए थे। इसके बाद 1957, 1962 और 1967 में भी चुनाव एक साथ कराए गए, लेकिन फिर ये सिलसिला टूटा। साल 1999 में विधि आयोग ने पहली बार अपनी रिपोर्ट में कहा कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ हों।
साल 2015 में कानून और न्याय मामलों की संसदीय समिति ने एक साथ चुनाव कराने की सिफ़ारिश की थी। मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक देश एक चुनाव की सोच का समर्थन करते हैं। पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव से पहले यह कहा भी जा रहा था कि मोदी सरकार लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के बारे में सोच सकती है, हालांकि ऐसा नहीं हुआ।
मोदी सरकार पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव के साथ हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड के विधानसभा के चुनाव भी कराना चाहती थी लेकिन कहा जाता है कि इन राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने ही अपनी सहमति नहीं जताई थी। इन राज्यों में बीजेपी की सरकार होने के बावजूद वहां के मुख्यमंत्रियों ने कहा था कि वो समय से पहले अपनी विधानसभा भंग नहीं कर सकते हैं। ऐसे में सवाल उठे कि भाजपा अपने ही लोगों को इस मुद्दे पर सहमत नहीं कर पाई तो दूसरी पार्टियों को कैसे एकमत कर पाएगी।