कभी पूजा गया आलू कभी प्रतिबंधित हुआ

बचपन में एक खिलौना बड़ा आकर्षित करता था। 'मिस्टर पटेटो हैड'। आलू के आकार का प्लास्टिक का खिलौना अलग-अलग अटैचमेंट लगाने पर तरह-तरह के चेहरों का रूप ले लेता। मूल चीज वही रहती लेकिन संगत बदलते ही मानो वह एक अलग ही शख्‍सियत प्राप्त कर लेती। पता नहीं इसको बनाने के पीछे क्या सोच रही होगी लेकिन जो भी हो, मूल तत्व के रूप में आलू का चयन बड़ा ही सटीक था। आखिर आलू की ख्‍याति ही ऐसे हरफनमौला के रूप में है जो किसी भी सब्जी में डालकर सामंजस्य बना लेता है।

वह सब्जी में डले या दाल में या फिर चावल में, बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना कभी नहीं लगता। अपना खुद का वजूद तो खैर उसका है ही। बघार लो, तल लो, भून लो, उबाल लो, गर्ज यह कि जो चाहे कर लो, आलू हर स्थिति के लिए तैयार है। इसके इस लचीलेपन में जुड़ गई इसकी सर्वसुलभता ने इसे एक तरह से सर्व-स्वीकार्य भी बना दिया है। इसके इस प्रभाव को देखते हुए लगता है मानो यह हमेशा से मनुष्य के प्रिय तथा मूलभूत खाद्य पदार्थों में से एक रहा हो लेकिन ऐसा है नहीं।

भारत में तो आलू एक तरह से नया-नया ही आया है। इससे पहले उसने योरप में अपना साम्राज्य फैलाया। वैसे उसकी उत्पत्ति दक्षिण अमेरिकी देश पेरू में हुई मानी जाती है। 8000 से 5000 ईसा पूर्व पेरू में इसकी खेती किए जाने के प्रमाण मिले हैं। कहा जाता है कि वहां के महान इनका साम्राज्य के दौरान यही मुख्‍य आहार था। कोई आश्चर्य नहीं कि आज पेरू के लोग आलू को अपनी संस्कृति का अभिन्न अंग मानते हैं और इसे अपने धर्म और अध्यात्मक तक से जोड़ते हैं।

आलू को लेकर विशेष गीत और नृत्य रचे गए हैं, इसके सम्मान में विशेष अनुष्ठान किए जाते हैं। आलू देवता की पूजा की जाती है। यहां आलू की इतनी प्रजातियां विकसित कर उगाई जाती रही हैं कि देखने वाला दंग रह जाए। यही नहीं, अलग-अलग अवसरों पर कुछ खास प्रजातियों के आलू का उपयोग विशेष तौर पर किया जाता है। मसलन, बच्चे का मुंडन होने पर घर वालों को एक विशेष प्रजाति का आलू परोसा जाता है। एक और प्रजाति अपने आप में अनूठी है। यह आलू दिखने में अंगूर के गुच्छे जैसा लगता है।

जाहिर है, इसे छीलना बहुत दुष्कर है। अत: यहां के कुछ समुदाय बेटे के लिए दुल्हन का चुनाव करते वक्त परीक्षा के तौर पर भावी वधू से यह आलू छीलने को कहते हैं। यदि वह इसे कुशलतापूर्वक छील ले तो माना जाता है कि वह घर-गृहस्थी अच्छी तरह संभाल लेगी...।

पेरू के पड़ोसी देश बोलीविया में आलू की उत्पत्ति को लेकर एक कथा प्रचलित है। इसके अनुसार कई शताब्दियों पहले सपाला नामक एक शांतिप्रिय जाति बोलीविया में रहती थी। एक दिन पड़ोसी कारी जाति के लोगों ने उन पर हमला कर‍ दिया और उन्हें अपना गुलाम बना लिया। वे शासन करने लगे और सपालाओं पर खूब जुल्म करने लगे। अंतिम सपाला राजा के बेटे राजकुमार चोके ने गुलामी में जीने से इंकार कर‍ दिया और सृष्टि निर्माता भगवान से मदद की गुहार की।

भगवान ने प्रकट होकर उसे एक अज्ञात पौधे के बीज दिखाए और कहा कि अपने लोगों से ये बीज बोने को कहो। जब पौधे उग आएं, तो इनकी जड़ का सेवन करना लेकिन शेष पौधे का सेवन भूलकर भी मत करना। सपाला लोगों ने ये अनूठे बीज बोए और उनसे निकल पौधों की देखभाल करने लगे।

जब कारियों ने ये नए पौधे देखे, तो उन्हें अपने कब्जे में ले लिया और जड़ों को छोड़ शेष लगभग सारे पौधे का भक्षण कर डाला। नतीजा यह कि देखते ही देखते वे सब बीमार पड़ गए। मौका पाकर सपालाओं ने विद्रोह कर दिया और उन पर हमलावरों को अपने देश से भगा दिया। इस प्रकार भगवान से उपहार के रूप में प्राप्त पौधे ने सपालाओं को आजादी बख्शी। यह पौधा आलू का ही था और कोई आश्चर्य नहीं कि आलू उनके लिए पवित्र हो गया।

सोलहवीं सदी में जब स्पेन के लोगों ने दक्षिण अमेरिका में अपने उपनिवेश स्थापित किए, तो आलू उन्हें बड़े भा गए। वापसी में वे कुछ आलू अपने देश ले गए और इस प्रकार देवताओं से प्राप्त यह दौलत योरप पहुँच गई। योरप में जहाँ-जहाँ आलू पहुँचा, पहले-पहल उसे शक की निगाह से देखा गया। दिखने में बेढंगा आलू बेचारा तरह-तरह की विचित्र धारणाओं का शिकार हुआ।

कहा गया कि इसे खाने से कुष्ठ रोग हो जाता है, नपुंसकता आ जाती है, जहाँ इसे बोया जाए वह धरती बंजर हो जाती है आदि! यहाँ तक कि कहीं-कहीं तो इसे उगाने पर प्रतिबंध तक लगाया गया। कुल मिलाकर योरप के श्रेष्ठि वर्ग ने तय कर लिया कि मिट्टी से निकलने वाला यह पदार्थ उनके खाने योग्य नहीं हो सकता। हाँ, निचले तबके के लोग चाहें तो इसे खा सकते हैं...।

उधर आयरलैंड में इसे काफी बड़े पैमाने पर उगाया जाने लगा। जब महारानी एलिजाबेथ प्रथम को आलू के पौधे उपहार में दिए गए, तो उनके रसोइये आलू और इसे पकाने के तरीके से अनजान थे। नतीजा यह हुआ कि शाही दावत के लिए उन्होंने आलू के तने और पत्तों की सब्जी बना डाली। इसे खाकर शाही मेहमान बीमार पड़ गए और आलू का उपयोग राजमहल में प्रतिबंधित कर दिया गया।

रूस में भी यह हाल था कि आम लोग आलू से परहेज करते थे। यहाँ तक कि अट्ठारहवीं सदी में जब अकाल पड़ा और सम्राट ने पीड़ितों के लिए आलू भिजवाए तब भूख से तड़पते ग्रामीणों ने भी आलू खाने से मना कर दिया! सैनिकों के बहुत समझाने पर ही वे माने। आलू को अपने बारे में फैली भ्रांतियाँ दूर करने में काफी समय लगा लेकिन आखिरकार जब उसने सबको अपना मुरीद बनाया तो कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। देखने की जरूरत ही नहीं रही...।

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