4 अगस्त जयंती विशेष : अभय छजलानी, पत्रकारिता के तपस्वी साधक

डॉ. अर्पण जैन 'अविचल'

शनिवार, 3 अगस्त 2024 (09:26 IST)
Abhay Chhajlani Naidunia : इंदौर आज समूचे भारत में पत्रकारिता की नर्सरी माना जाता है। महनीय सम्पादकीय परम्परा की नींव माने जाने वाले शहर इंदौर की इमारत की बुलंदी को खड़ा करने में जिन साधकों के श्रम दर्ज हैं, ऐसे योद्धाओं में एक नाम अभय छजलानी भी है।
 
मां अहिल्या की नगरी इंदौर में छजलानी परिवार में 4 अगस्त 1934 को जन्म लेने वाले अभय जी ने हिन्दी पत्रकारिता की नर्सरी माने जाने वाले अखबार 'नईदुनिया' को वटवृक्ष बनाने में अहम भूमिका निभाई। आपने वर्ष 1955 में पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया। 1963 में कार्यकारी संपादक का कार्यभार संभाला। बाद में, लंबे अरसे तक आप 'नईदुनिया' के प्रधान संपादक भी रहे।

वर्ष 1965 में पत्रकारिता के विश्व प्रमुख संस्थान थॉम्सन फाउंडेशन, कार्डिफ (यूके) से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र से इस प्रशिक्षण के लिए चुने जाने वाले आप पहले पत्रकार थे। परिवार में पत्नी पुष्पा छजलानी, पुत्र विनय छजलानी और पुत्रियां शीला और आभा हैं।
 
हिन्दी पत्रकारिता के कर्मठ सूत्रधार, जिनके नेतृत्व ने भारतीय पत्रकारिता जगत् को कई मूर्धन्य संपादक सौंपे, जिनमें राजेन्द्र माथुर जी, राहुल बारपुते जी, प्रभाष जोशी जी, शरद जोशी जी आदि हैं। हिन्दी पत्रकारिता की कोंपलो को आपने बहुत करीने से सहेजकर पल्लवित होने में मदद की है। अभय जी नईदुनिया के संपादकीय बोर्ड के अध्यक्ष के रूप में कार्य करने के अलावा कई महत्वपूर्ण सामाजिक दायित्व भी निभा रहे थे। 
 
वे भारतीय भाषाई समाचार पत्रों के शीर्ष संगठन इलना के 3 बार अध्यक्ष रह चुके हैं। वे 1988, 1989 और 1994 में संगठन के अध्यक्ष रहे। वे इंडियन न्यूज पेपर सोसायटी (आईएनएस) के 2000 में उपाध्यक्ष और 2002 में अध्यक्ष रहे। 2004 में भारतीय प्रेस परिषद् के लिए मनोनीत किए गए, जिसका कार्यकाल 3 वर्ष रहा।

उन्हें 1986 का पहला श्रीकांत वर्मा राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किया गया। 1995 में मप्र क्रीड़ा परिषद् के अध्यक्ष बने। ऑर्गनाइजेशन ऑफ़ अंडरस्टैंडिंग एंड फ्रेटरनिटी द्वारा वर्ष 1984 का गणेश शंकर विद्यार्थी सद्भावना अवॉर्ड वर्ष 1986 में राजीव गांधी ने प्रदान किया। 
 
पत्रकारिता में विशेष योगदान के लिए उन्हें वर्ष 1997 में जायन्ट्स इंटरनेशनल पुरस्कार तथा इंदिरा गांधी प्रियदर्शिनी पुरस्कार मिला था। पत्रकारिता में अतुलनीय अवदान के लिए भारत सरकार ने उन्‍हें वर्ष 2009 में पद्मश्री प्रदान किया था।

छजलानी जी को इंदौर में इंडोर स्टेडियम अभय प्रशाल स्थापित करने के लिए भोपाल के माधवराव सप्रे समाचार पत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थान ने सम्मानित किया था। उन्हें पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय योगदान के लिए ऑल इंडिया एचीवर्स कॉन्फ्रेंस ने दिल्ली में 1998 में राष्ट्रीय गौरव पुरस्कार प्रदान किया। साथ ही, इसी वर्ष लाल बाग ट्रस्ट इंदौर का अध्यक्ष बनाया गया।
 
अभय जी का हिन्दी भाषा के प्रति गहरा प्रेम और लगाव भी रहा, यहां तक कि अपने अखबार में वर्तनी दोष भी न जाएं इस बात की चिंता अभय जी अधिक करते थे। कुछ एक बार तो अख़बार में एक शब्द की गलती हेडिंग में गलत छप जाने के कारण उन्होंने अख़बार में इंक से सुधार करवाएं और प्लेट्स भी बदलवा कर नई छपाई करवाई। ऐसे हिन्दी आग्रही का सम्पूर्ण जीवन हिन्दी भाषा की सेवा में रत रहा।
 
‘मातृभाषा उन्नयन संस्थान’ द्वारा वर्ष 2020 में आपको ‘हिन्दी गौरव अलंकरण’ से विभूषित किया गया। संस्थान ने पहला हिन्दी गौरव अलंकरण समारोह इंदौर में आयोजित कर अभय जी को अलंकृत किया था। आप मध्य प्रदेश टेबल टेनिस संगठन के अध्यक्ष रह चुके हैं। इसके अलावा अभय जी ने शहर के कई खास मुद्दों को भी उठाया। छजलानी जी की खेल गतिविधियों में खास रुचि के चलते ही नईदुनिया प्रकाशन ने हिन्‍दी की पहली खेल पत्रिका ‘खेल हलचल’ का प्रकाशन भी आरंभ किया था।
 
सामाजिक सरोकारों की बात करें तो अभय जी नर्मदा को इंदौर लाने की मुहिम के अगुआ थे। इंदौर के पेयजल संकट को दूर करने के लिए नर्मदा का पानी लाने के आंदोलन में उन्होंने पुरजोर तरीके से कार्य किया। इंदौर में अभय प्रशाल जैसा भव्य इनडोर स्टेडियम बनवाने में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
 
इसके अतिरिक्त सामाजिक और राजनीतिक दखलंदाजी भी बेजोड़ रही। एक समय मंत्रिमंडलों का खाका नईदुनिया तय करता था, और अभय जी कई बार निर्णायक भी होते थे। यहां तक कि वे अख़बार की हर विधा, हर क्षेत्र में दक्ष थे। अख़बार की डिजाइनिंग, रिपोर्टिंग, संपादन, मार्केटिंग या कोई भी पद हो, हर पद पर उन्होंने काम किया।
 
उन्होंने सोवियत संघ, जर्मनी, फ़्रांस, जॉर्डन, यूगोस्लाविया, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, थाईलैंड, इंडोनेशिया, तुर्की, स्पेन, चीन आदि कई देशों की यात्रा कर उस अनुभवों को अपनी कार्यशैली में शामिल किया।
 
अभय जी ने 'विकास की व्यथा-कथा-कारवां भाग -1', 'छटपटाता शहर -भाग -2', 'शहर अकेला इस भीड़ में -कारवां -3', 'पीड़ा -ज्यों की त्यो -भाग -कारवां -4', 'अपना इंदौर -चार भागों में', 'मंथन', 'चिंतन', 'धड़कन', 'देखा सुना' किताबों को लिखा एवं आपके संपादन में 'सन्दर्भ-2003', 'सृष्टि का स्वर लता', 'भोपाल आज और कल', 'जब गांधी आए' एवं 'अमर सेनानी' पुस्तक प्रकाशित हुई। इनमें 'अपना इंदौर' बड़ी चर्चित और महनीय पुस्तक रही, जिसमें इंदौर का समग्र इतिहास समाया है।
 
अभय जी को अब्बू जी नाम राहुल बारपुते जी ने ही दिया था, प्यार से उनके बेहद खास लोग अब्बू जी कहते थे। अब्बू जी न केवल इंदौर के लिए बल्कि प्रदेश और देश के लिए कृत संकल्पित व्यक्तित्व रहे। दृष्टि संपन्नता में उनका कोई सानी नहीं था। हिन्दी भाषा की सतत् सेवा का ध्येय और साधारण से साधारण व्यक्ति के लिए भी सहज भाव से आदर सहित मिलने वाले चंद लोगों में अभय जी भी शामिल रहे।
 
एक बार मातृभाषा उन्नयन संस्थान के सम्मान के लिए आग्रह हेतु उनसे जब मैं मिलने गया तो उन्होंने इतना आदर दिया, संस्थान की गतिविधियों के बारे में जानकारी ली और यह तनिक भी महसूस नहीं होने दिया कि उनकी और मेरी उम्र में लगभग आधी शताब्दी का अंतर है। विनीत भाव से सम्मान ग्रहण करने का आग्रह स्वीकार किया। यही सहजता अभिभूत करती रही।
 
ऐसा भी नहीं रहा कि अभय जी का कभी विवादों से सामना न हुआ हो, लता अलंकरण हो अथवा अन्य मसले, इनके बावजूद भी अभय जी एक महानायक जैसे, हमेशा की तरह सूट-बूट पहने उजले ही नजर आए। एक उम्र गुजार कर नईदुनिया को अपने पसीने से सींचने के कारण ही अभय जी ने इंदौर की वैश्विक पहचान में नईदुनिया को दर्ज करवाया।
 
अपने छोटों से भी असीम नेह रखने वाले अभय जी ने 23 मार्च 2023 को इंदौर में आखिरी सांस ली। उनका अंतिम संस्कार इंदौर के रीजनल पार्क मुक्तिधाम पर किया गया। उनके साथ न केवल नईदुनिया युग ठहर गया बल्कि हिन्दी पत्रकारिता ने एक योद्धा को खो दिया।

जीवन के अंतिम दौर में बीमारी के कारण उनकी स्मृतियां धुंधली जरूर हो रही थीं किंतु चेतना और जिजीविषा वैसी ही बनी रही। लोगों से मिलने की चेष्टा हो अथवा शहर हितार्थ कार्य करने की प्रणाली, साहित्य में रुचि हो अथवा लेखनी को सतत् भाव से बहने देने का कार्य, अभय जी हमेशा से जीवंत व्यक्तित्व के रूप में नजर आए। निश्चित रूप से अभय जी पत्रकारिता का चलता-फिरता विश्वविद्यालय या यूं कहें कि पत्रकारिता के तपस्वी साधक रहे।

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)



 
 

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