Meera Bai Jayanti 2024: मीराबाई की जयंती आज, जानें उनके जीवन से जुड़ीं खास बातें

WD Feature Desk

गुरुवार, 17 अक्टूबर 2024 (13:25 IST)
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Meera Bai Jayanti 2024 In Hindi : आज भगवान श्री कृष्ण की उपासिका मीराबाई की जयंती मनाई जा रही है। हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार प्रतिवर्ष मीराबाई जयंती आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तथा शरद पूर्णिमा तिथि पर मनाई जाती है। वर्ष 2024 में इनकी जयंती 17 अक्टूबर, दिन गुरुवार को मनाई जा रही है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार प्रत्येक वर्ष आश्विन महीने की पूर्णिमा के दिन मीराबाई की जयंती मनाई जाती है। इसी दिन कोजागिरी पूर्णिमा, रास पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा और वाल्मीकि जयंती भी रहती है। कैलेंडर के मतातंर के चलते तारीख में बदलाव संभव है। 
 
आइए जानते हैं यहां मीरा बाई के बारे में रोचक जानकारी...
 
मीराबाई के परिवार जन्म और विवाह के बारे में जानें : वैसे तो मीराबाई के जन्म समय का कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिलता है, लेकिन कुछ मान्यताओं के अनुसार यह कहा जाता है कि मीराबाई का जन्म 1448 के लगभग जोधपुर में हुआ था। वे राठौड़ रतन सिंह की इकलौती पुत्री थीं। मीराबाई के संबंध में यह कहा जाता है कि वे भगवान श्री कृष्ण की उपासिका तथा अपने पिछले जन्म में कृष्ण जी की सखी थीं, जो मोक्ष प्राप्त करने से चूक गई थीं। 
 
उनके बचपन के एक प्रसंग के अनुसार मीराबाई के पड़ोस में एक बारात आई तो उनकी सभी सखी-सहेलियां छत पर खड़ी होकर बारात देखने लगी। जिज्ञासावश मीरा ने अपनी मां से पूछ लिया कि मेरा दुल्हा कौन है? तो माता ने हंसते हुए श्री कृष्‍ण की मूर्ति की ओर इशारा करते हुए कहा कि ये है। तभी से मीराबाई के बालमन में यह बात बैठ गई और उन्होंने श्री कृष्ण को अपना पति मान लिया। विवाह की उम्र होने पर मीराबाई की इच्छा के विरुद्ध उनका विवाह मेवाड़ के राजकुमार भोजराज से कर दिया गया।

विवाह के बाद भी मीराबाई नित्य कृष्‍ण भक्ति करती और मंदिरों में जाकर नृत्य भी करती थीं। यह बात उनके ससुराल वालों को पसंद नहीं थी। चित्तौड़ के महाराजा संग्राम सिंह के पुत्र भोजराज की मृत्यु के पश्चात मीराबाई कृष्‍णभक्ति में पूरी तरह से लीन हो गई और एक दिन मीराभाई कृष्णभक्ति के लिए 1524 ईस्वी में वृंदावन आ गई थीं और वे वहीं पर कृष्ण भक्ति में लगी रही। 
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जब सुसराल वालों ने उन्हें जान से मारना चाहा, लेकिन कृष्णभक्त मीराबाई हर बार बच गईं: ऐसा कहा जाता है कि विवाह के पश्चात मीराबाई ने तुलसीदास जी को एक पत्र लिखा था कि उनके परिवार के सदस्य उन्हें कृष्ण की भक्ति नहीं करने देते हैं। तब गुरु तुलसीदास के कहने पर मीराबाई ने श्री कृष्ण भक्ति के भजन लिखने लगी। मीरा के इस आचरण से उसके ससुराल वाले बहुत नाराज थे। एक राजवंश की कुल-वधु साधु-संतों के साथ घूमे और मंदिरों में भजन-कीर्तन करे तथा नृत्य करे यह बात उन्हें अच्छी नहीं लगती थी। 
 
परिवार के लोग मीरा से छुटकारा पाना चाहते थे। मीरा को समाप्त करने के लिए मीरा के देवर राणा विक्रमाजीत ने विष का भरा प्याला मीरा को पीने के लिए भेजा। मीरा से यह बताया गया कि इस प्याले में सुगंधित मधुर रस है। मीरा ने प्याले को उठाया और एक सांस में सारा विष पी गई, उसके चेहरे पर विष का तनिक भी प्रभाव न दिखाई दिया। वह विष मीरा के लिए अमृत हो गया। यह सूचना जब राणा को दी गई तो उन्हें बड़ी निराशा हुई। 
 
उनके देवर राणा विक्रमाजीत ने इसके बाद एक नया उपाय सोचा। उन्होंने सपेरे से एक काला जहरीला सर्प मंगवाया। उस जहरीले नाग को राणा विक्रमाजीत ने अपनी दीवान महाजन वीजावर्गी द्वारा एक सजे हुए पिटारे में रखवाकर मीरा के पास भेजा। दीवान वीजावर्गी पिटारा लेकर मीरा के पास पहुंचा।

पिटारा को मीरा के समक्ष रखते हुए उसने कहा- यह पिटारा भेंटस्वरूप राणा ने आपके पास भेजा है। मीरा सब कुछ समझ गई थीं। उन्होंने मुस्कुराते हुए उस पिटारे को खोला। उन्होंने क्या देखा कि पिटारे के भीतर एक सुगंधित तुलसी की माला रखी है। उन्होंने माला को उठाकर माथे से लगाया और चूमकर अपने गले में डाल लिया। राणा का यह दांव भी खाली गया। माला पहन कर मीरा गिरधर गोपाल के मंदिर में गईं और कीर्तन करने लगीं।
 
कौन थीं मीराबाई : मीराबाई बचपन से ही श्री कृष्ण भक्ति में डूबी हुई थी। अत: सन् 1539 तक 15 वर्ष तक वृंदावन में रहने के पश्चात अपने आराध्य की खोज में द्वारिका चली गई और अंत समय तक वहीं रही थीं। वृंदावन में ठाकुर शाहबिहारी मंदिर के निकट एक पतलीसी गली में राजस्थानी स्थापत्य में बने ठाकुर सालिगराम जी के मंदिर को मीराबाई का मंदिर माना जाता है। मान्यताओं के अनुसार, सन् 1547 में उनका निधन हो गया था। अत: उनके निधन के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने जीवन भर कृष्ण भक्ति की और अंतिम समय में भगवान श्री कृष्ण भक्ति करते हुए उनकी मूर्ति में समा गईं।

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