(अभी हाल ही में एक सज्जन ने मुझसे किंचित आवेशपूर्वक पूछा कि जो आप लिखते हैं वो निबंध है, या समीक्षा, या आलेख है। यह निहायत ग़ैरज़रूरी सवाल था सो जवाब नहीं दिया। लेकिन अगर कोई एक शब्द का इस्तेमाल करना चाहूं तो कहूंगा कि यह "पाठेतर" है - "अ नोट ऑन द सबटेक्स्ट" - जिसमें अव्वल तो जो चीज़ें "सबटेक्स्ट" होती हैं, उनका अवलोकन होता है, या फिर जो चीज़ें "मूलपाठ" होती हैं, उनके "अंतर्पाठों" का अन्वेषण और पुनरीक्षण होता है और यही वह कारण है कि मैं यह पोस्ट लिख रहा हूं, क्योंकि जब मैंने "रेडिफ़", "टाइम्स", "एक्सप्रेस", "हिंदू" पर फ़िल्म "डियर ज़िन्दगी" के "रिव्यूज़" पढ़े तो पाया कि "पाठेतर" को लगभग सभी ने, हमेशा की तरह, छोड़ दिया है )
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लिहाज़ा, इस तक़रीर की शुरुआत में ही अपना यह "ऑब्ज़र्वेशन" शेयर करना चाहूंगा कि अगर एक फ़िल्म को हम उसमें निहित उपस्वरों और उसके समग्र प्रभाव के आधार पर एक "सिम्फ़नी" कहें ( "डियर ज़िन्दगी" के संदर्भ में वह शब्द होगा "ककोफ़नी", क्योंकि इसमें नोट्स बहुत "हाई पिच" पर हैं) तो हमें यह देखना होगा कि इसमें एक "विपर्यय स्वर" कहां पर है, जो कि फ़िल्म की पूरी संरचना को बनाए रखता है, एक धुरी या अक्ष की तरह।
और यही कारण है कि "डियर ज़िन्दगी" के बारे में सोचते हुए मुझे एक अन्य फ़िल्म "पीकू" की याद आती है। आप कह सकते हैं कि "पीकू" में दीपिका पादुकोण और "डियर ज़िन्दगी" में आलिया भट्ट ने बहुत अच्छा काम किया है और मैं कहूंगा यक़ीनन, लेकिन अच्छे काम से आशय मेरा यह नहीं रहेगा कि उन्होंने बहुत अच्छा अभिनय किया, बल्कि यह रहेगा कि उन्होंने बहुत अच्छा अभिनय "नहीं" किया, और वो इसलिए, क्योंकि इन फ़िल्मों में वे स्वयं को अभिनीत कर रही थीं : "दे वर प्लेइंग देमसेल्व्ज़"!
जब मैं "पीकू" देख रहा था तो प्रारंभ में मुझे बार बार ये ख़याल आ रहा था कि फ़िल्म में कुछ बहुत संगीन रूप से मिसिंग है और एक "हाइपर", आत्मविश्वस्त, "इंडिपेंडेंट" स्त्री ( मुझे नहीं मालूम इन शब्दों का मतलब क्या है) के रूप में दीपिका पादुकोण के समक्ष अमिताभ बच्चन अपने "मैलोड्रमेटिक" व्यवहार के कारण फ़िल्म के समग्र प्रभाव को कुछ ऐसा निर्मित कर रहे हैं, जैसे "सी-शॉर्प" में ट्यून किए गए दो पियानो एकसाथ एक "हायर ऑक्तेव" के नोट पर ठहरे हुए हैं और फ़िल्म अपनी तमाम ख़ूबियों के बावजूद कहीं नहीं जा पा रही है।
और तभी इरफ़ान ख़ान फ्रेम में प्रवेश करते हैं, "अंडरप्ले" के अपने तमाम चरित्रगत गुणों के साथ, और एक क्षण में पूरी फ़िल्म "ट्यून्ड" हो जाती है, कि वह अपने अंशों का संकलन होने के बावजूद एक पूर्ण कृति के रूप में सामने आने लगती है, जिसमें सभी अंश अब एक-दूसरे के पूरक हैं। "डियर ज़िन्दगी" में ऐन यही घटना तब घटती है, जब शाहरुख़ ख़ान अपने "चार्म", अपनी "ईज़", अपनी "अंडरटोन्स" और अपने किंचित संभले हुए उम्रदराज़ "मैनरिज़्म" के साथ फ़िल्म में दाख़िल होते हैं, और सहसा फ़िल्म, जो कि ढह रही थी, अब "सम" पर आ जाती है।
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इस "उपोद्घात" के बाद अब हम अपने मूल "प्रिमाइस" पर आते हैं, और वह यह कि यह फ़िल्म इसलिए पसंद की गई थी, क्योंकि वह एक नए परिप्रेक्ष्य को संबोधित करती थी। वो नया परिप्रेक्ष्य यह नहीं है कि एक युवा लड़की सिनेमैटोग्राफ़र के रूप में अपना कैरियर बना चुकी है। बल्कि वह यह है कि क्या एक युवा लड़की और एक परिपक्व पुरुष के बीच "रोमांटिक रिलेशनशिप" संभव है। ज़ाहिर है, फ़िल्म इस सवाल से कतरा जाती है, क्योंकि यह एक भारतीय फ़िल्म है और इसमें शाहरुख़ ख़ान जैसे मुख्यधारा के सुपरस्टार हैं, और यह ख़ुद शाहरुख़ की कंपनी "रेड चिलीज़" का प्रोडक्शन है। अगर यह मिलान कुन्देरा का कोई नॉवल होता तो इसकी शुरुआत ही उस रिलेशनशिप की संभावनाओं की तलाश के साथ होती, जिसे कि अपने कुन्देरा ने अपने नॉवल "इम्मोर्टलिटी" में "इरोटिक इंबिग्विटी" की संज्ञा दी है, और केवल और केवल मिलान कुन्देरा ही इंबिग्विटी के उस इलाक़े में तफ़रीह करके आ सकते थे।
तो, "प्रिमाइस" यह है कि ऊपर से "कांफ़िडेंट", "इंडिपेंडेंट" नज़र आने वाली लड़की भीतर से "इनसिक्योरिटीज़" और "वल्नरेबिलिटीज़" का पुलिंदा है, जिसकी वजह से उसकी तमाम रिलेशनशिप्स नाक़ामयाब साबित हो रही हैं। वह डॉ. जहांगीर ख़ान, जिसे कि वह "जग" कहकर पुकारती है, के पास इसलिए नहीं जाती है कि वह "रिलेशनशिप्स" के बारे में उसे कोई सुझाव दे सकता है। वह उसके पास यह पता करने जाती है कि उसे नींद क्यों नहीं आ रही है। ज़ाहिर है, नींद नहीं आने के पीछे छिपे कारणों की पड़ताल में "जग" उन बिंदुओं तक पहुंचते हैं, जो कि समस्या के मूल में थे। बहुत जल्द वे एक पेशेवर मनोचिकित्सक के बजाय एक "मेंटर" की भूमिका में आ जाते हैं, जिसका सदाशय मक़सद यह है कि काइरा यानी आलिया अपनी रिलेशनशिप्स में अधिक सहज हो सके।
लेकिन जैसा कि कहते हैं, कि हक़ीम मर्ज़ का इलाज करता है, लेकिन अगर हक़ीम ही कोई मर्ज़ दे जाए तो उसका इलाज कैसे होगा।
और ऐन यही वह सवाल है, जिससे यह फ़िल्म कतरा जाती है और अंत में यह "प्रिटेंड" करती है कि "जग" ने काइरा को दुरुस्त कर दिया है, जबकि वास्तव में होना यह था कि "जग" ने काइरा को एक दूसरे स्तर पर बेचैन कर देना था, जो कि निश्चित ही भावनात्मक रूप से पहले वाली बेचैनियों की तुलना में ज़्यादह मज़बूत होता!
कल ही मैं स्त्री-पुरुष संबंधों के अनेक आयामों और समीकरणों की बात कर रहा था। उसी में एक कोण यह है : युवा लड़की और परिपक्व पुरुष का संबंध : जिसमें प्रवेश करने को लेकर गौरी शिंदे की फ़िल्म भयभीत है।
एक रिलेशनशिप की वजह से काइरा की दूसरी रिलेशनशिप टूटती है! जब वह "जग" से मिलती है, उसी दौरान वह तीसरी रिलेशनशिप में दाख़िल होती है और एक समय ऐसा आता है, जब वह "रूमी" (अली जाफ़र) को "डेट" भी कर रही होती है और उसी समय "जग" से अपनी थैरेपी के "सेशन्स" भी ले रही होती है। यह लगभग असंभव है कि वह दोनों में तुलना करने को विवश ना हो गई हो। और यह भी लगभग असंभव है कि उसने यह नहीं पाया हो "जग" की तुलना में रूमी कुछ भी नहीं है, कि जहां जग के पास चीज़ों को लेकर एक "नैरेटिव पर्सपेक्टिव" है, वहीं रूमी केवल एक "इम्पल्सिव सेड्यूसर" है। और अगर काइरा रिलेशनशिप्स में जाने को लेकर व्याकुल नहीं है, जो कि वह निश्चित ही नहीं है, तो ऐसे में उसके लिए यह देख पाना ज़्यादा कठिन नहीं है। लिहाज़ा, अब हम तीसरे बिंदु पर आते हैं वो यह है कि यह लगभग असंभव है कि काइरा ने ख़ुद से यह नहीं पूछा हो कि, "व्हाय नॉट "जग"? व्हाय कान्ट आई डेट "जग" इनस्टेड?"
और फ़िल्म में काइरा ऐन यही करती है। जब उनके "सेशन्स" पूरे होते हैं, तब अंतिम दिन वह "जग" से कहती है, वह उसे पसंद करती है, और क्या वे कहीं "डेट" पर जा सकते हैं। "जग" तुरंत समझ जाता है कि नौजवान लड़की के दिल में क्या है और वह बहुत शालीन सदाशयता से उसके इस प्रस्ताव को निरस्त करता है, उससे हाथ मिलाता है और आगे बढ़ जाता है। कियारा तड़पकर मुड़ती है और उसे "हग" करती है। फ़िल्म इस बिंदु पर अपनी "सेंट्रल फ़िलॉस्फ़ी" को लेकर क़तई सशंक नहीं है।
लेकिन वह अपने निष्कर्षों में ज़रूर डगमगाती है, क्योंकि वह अपने साथ सुक़ूनदेह समझौते कर लेती है। फ़िल्म इस नोट पर ख़त्म होती है, "जग" के साथ "सेशन्स" लेने के बाद अब काइरा भावनात्मक रूप से "स्टेबल" हो चुकी है और रिलेशनशिप्स को लेकर अब वह सहज है, जबकि होना यह था कि चूंकि रिलेशनशिप्स को लेकर उसकी मांगें बढ़ गई हैं, इसलिए यह संभव ही नहीं है कि अब वह रूमी जैसों के साथ सहज हो सके। यानी रिलेशनशिप्स में होना अब उसके लिए पहले से और मुश्किल हो गया है!
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एक उम्रदराज़ "जीनियस" को प्यार करने के बाद गिटार बजाने वाले "सेडक्टिव" शोहदों के साथ निबाह करना अब काइरा के लिए संभव नहीं रह जाना है, इसलिए भी, क्योंकि वह एक "कॉम्प्लिकेटेड" कैरेक्टर है और शाहरुख़ ख़ान जैसे के साथ गोवा के समुद्रतट पर शाम बिताने के बाद आप अपने भीतर जिस तरह की अच्छी फ़ीलिंग्स महसूस करते हैं, उतने भर से आपकी जटिलताओं की गांठें गल नहीं जाती हैं।
और यह भी कि ज़िन्दगी में कभी भी कुछ ऐसे फ़ॉर्मूले नहीं होते हैं, जो कि आपको ख़ुशी दे सकें और वास्तव में ज़िन्दगी से आपको ख़ुशी का ही दोहन करना है, यह अपने आपमें एक "प्रॉब्लेमैटिक पर्सपेक्टिव" है।
जब हम किसी ख़त में किसी को संबोधित करते हैं तो हम "डियर" से अपनी बात शुरू करते हैं। अगर आप ज़िन्दगी के नाम वैसे किसी संबोधन के साथ वैसी कोई चिट्ठी लिखेंगे, तो बहुत संभव है कि दूसरी तरफ़ से आपको कोई जवाब नहीं मिलने वाला है।
लेकिन जैसा कि "जग" कहता है, "जीनियस इज़ टु नो व्हेन टु स्टॉप", सो आई मस्ट स्टॉप हियर, क्योंकि पहले ही बहुत कह चुका हूं! अस्तु।