यदि साहित्य समाज का आईना होता, तो बेशक सिनेमा को भी कमोबेश यही ऊंचाई मिलनी चाहिए। फिल्में मनोरंजन ही नहीं करती, वे समाज की मनोव्याधियों से परिचित भी कराती हैं। एक जिम्मेदार और संवेदनशील फिल्मकार को इस मामले में किसी सेनापति की भूमिका निभानी पड़ती है।
ग्रेट शो मैंन स्व. राजकपूर ने इस जिम्मेदारी को निभाने की पूरी कोशिश की, लेकिन उनकी फिल्मों में कुछ अनावश्यक बातों का अपचनीय तड़का था, जो पैसा तो खूब बटोरती थी, लेकिन जब दर्शक हॉल से बाहर निकलता था तो भविष्य के भारत का संभव न हो सकने वाला सपना उसकी आंखों में दफन हो जाया करता था। इस मामले में श्याम बेनेगल अलग कबीले के मालिक थे। वे पूरे नब्बे साल जिए और 23 दिसंबर 2024 को मुंबई में किडनी की लंबी बीमारी से उनका निधन हो गया। लेकिन जैसे देवानंद साहब ने एक पत्रकार से वादा किया था कि 'देखना मैं काम करते हुए मरूंगा।' वैसा ही उनके साथ लंदन में हुआ भी।
हालांकि श्यामजी ने किसी पत्रकार को ऐसा कोई इंटरव्यू नहीं दिया था, मगर जब वे पिछली 14 दिसंबर को मुंबई में जब अपना 90 जन्मदिवस मना रहे थे, तो उन्होंने साथी कलाकारों शबाना आज़मी, नसीरुद्दीन शाह, कुणाल कपूर, अतुल तिवारी, कुलभूषण खरबंदा, रंजित कपूर आदि से कहा था कि 'वे अभी भी दो-तीन प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं।'
जिस किसी ने उनकी 1988 में पण्डित जवाहरलाल नेहरू की पुस्तक 'द डिस्कवरी ऑफ इंडिया' पर बनी टीवी सीरियल 'भारत एक खोज' देखी है, वो व्यक्ति कह सकता है कि श्याम बेनेगल वर्तमान समय से आगे बढ़कर भविष्य के वक्त को पढ़ने वाले ज्योतिष दार्शनिक फिल्मकार थे। यह उनकी प्रखर और प्रगल्भ दृष्टि का ही कमाल था कि कमर्शियल एवं कला फिल्मों में सरीखी धमाल मचाने वाली अभिनेत्री स्व. स्मिता पाटील को सबसे पहले उन्होंने ही फिल्मों के लायक समझा था। वर्ना स्मिता तो एक थियेटरकर्मी होकर मराठी दूरदर्शन पर महज़ एक समाचार वाचिका थी।
स्मिता को देखकर ही श्याम बेनेगल ने गज़ब की बात कही थी कि 'भारतीय नारियां, दुनिया की अन्य सभी स्त्रियों से सुंदर होती हैं।' इस बयान के पीछे राज यह था कि स्मिता पाटील के रूप रंग को देखकर बॉलीवुड में पहले-पहल उनका (स्मिता पाटील) खूब मज़ाक उड़ाया गया था। यदि गुरुदत्त ने फिल्म प्यासा बनाकर उस वक्त के बॉलीवुड का व्याकरण बदला तो सत्यजीत रे के साथ श्याम बाबू को यह श्रेय जाता है कि इन दोनों की वजह से कला फिल्मों ने सिर्फ कमाने के लिए सिनेमा बनाए जाने वाले बी-टाउन में अर्थ पूर्ण फिल्मों को पहली बार इज्जत बक्शे जाने का माहौल तैयार किया। संयोग ही है कि गुरुदत्त रिश्ते में श्याम बाबू के भाई भी लगते थे और श्याम बाबू गुरुदत्त से मज़ाक में अक्सर कहा करते थे कि तुमसे मुझे ईर्ष्या होती है।
पिछले करीब डेढ़ दशकों में संजय लीला भंसाली सच्ची और ऐतिहासिक कहानियों पर सिनेमा बनाने में मशहूर हुए हैं। यह जोखिम भरा काम था, लेकिन देवदास फिल्म को जब देखो, तब और ज़्यादा नई लगती है, लेकिन उनकी देवदास फिल्म और ताजा टीवी वेब सीरीज हीरामंडी जब देखो तब नई लगती है। लेकिन यह माहौल तो श्याम बेनेगल ने 1974 में ही अंकुर फिल्म बनाकर शुरू कर दिया था। अंकुर की कहानी हैदराबाद के इतिहास में कहीं खो गई थी, मगर शबाना आजमी को अनंतनाग के साथ लाकर श्याम बाबू ने उस गुमनाम कहानी को फिर ज़िंदा कर दिया। इस मूवी को ही पहली आर्ट फिल्म भी कहा जाता है।
जुबैदा फिल्म का विचार उनके मन में आया, तो वे तब के हिट हीरो अनिल कपूर, आमिर खान और सलमान खान के पास लीड रोल के लिए गए। तीनों को काम रिस्की लगा। वे पीछे हट गए थे। श्याम बेनेगल फिर भी इनसे आगे निकल गए। उन्होंने न्यू कमर मनोज बाजपेयी और करिश्मा कपूर को साथ लेकर जुबैदा नामक ऐसी फिल्म बनाई, जिसके कारण उनकी पहचान एक प्रयोगवादी फिल्मकार के रूप में भी स्थापित होने लगी। वजह थी कि मनोज बाजपेयी तब तक अपनी स्पष्ट पहचान नहीं बना पाए थे। उधर, करिश्मा की इमेज भी अलग थी, मगर शाम बेनेगल ने इन दोनों को ही एक संपूर्ण कलाकार बनाने की सफल कवायद की। रेखा भी थी इस फिल्म में, किंतु वे तो नैसर्गिक रूप से अभिनय की एक मुकम्मिल यूनिवर्सिटी हैं।
मंडी फिल्म में श्याम जी ने स्मिता पाटील के साथ शबाना आजमी को लेने का जोखिम उठाया। जान लें कि अपने सनातन अंदाज़ में दूसरों से चिढ़ने में भी नाम कमा चुकी शबाना स्मिता पाटील के लिए भी मुंह बिचकाया थी, लेकिन क्रिटिक्स और दर्शकों ने तस्दीक क्या कि स्मिता ने अकेले अपने दम पर मंडी फिल्म को कामयाब किया। ये कमाल श्याम बाबू का ही था कि उस वक्त वास्तव में 27 बरस की हो चुकी स्मिता पाटील से उन्होंने मात्र 17 साल की वैश्या का सफल रोल उन्होंने करवा लिया था। इस फिल्म में कुलभूषण खरबंदा, नसीरुद्दीन शाह, नीना गुप्ता भी थे। और अपने पूरे करियर में श्याम बाबू ने सत्यदेव दुबे, गोविंद निहलानी आदि सरीखो को अपना हमजोली बनाया। इस फिल्म को सात फिल्मफेयर अवॉर्ड विजेताओं की फिल्म होने का गौरव हासिल हुआ था।
हिंदी कविता में स्वर्गीय अज्ञेय जी का नाम प्रयोगवादी कवि के रूप में आज भी याद किया जाता है। उन्होंने प्रयोगवादी कवियों की बकायदा एक पूरी फसल उगाई। बॉलीवुड में ये श्रेय श्याम बेनेगल को जाता है। हालांकि प्रयोग करना खालिस रिस्की काम है। ये सही है कि श्याम बेनेगल ने कई इंग्लिश फिल्मों का सहारा भी लिया लेकिन यह चलन तो बॉलीवुड में महेश भट्ट जैसों ने बाद में चलाया। एक मान्यता बी टाउन में यह भी है कि पुस्तकों और असली कहानियों पर बनी फिल्मों के पिट जाने की ज्यादा शंका रहती है, किंतु श्याम जी ने इस फिलोसॉफी को खारिज करने की भी भरपूर कोशिश की। उनके पिताजी श्रीधर बेनेगल खुद एक निपुण फोटोग्राफर थे। उन्हीं ने अपने इस बेटे को सबसे पहले कैमरा लाकर दिया था और मात्र बारह साल की उम्र में श्यामबाबू ने कैमरा थाम लिया।
यदि असली भारत से मिलना हो तो श्यामबाबू की बनाई नेताजी सुभाष चंद्र बोस : द फॉरगॉटन हीरो, वेल डन अब्बा, भूमिका, त्रिकाल जैसी फिल्मों से गुजरना चाहिए, ताकि पता चल सके कि इस फिल्मकार के पास अपने समाज के गहरे मुद्दों को समझने के लिए कैसी अलग और नई दृष्टि थी। यदि पुरस्कारों के शास्त्र के आधार पर ही किसी निदेशक, निर्माता की हैसियत तय की जाए, तो श्याम बेनेगल को पद्मश्री, पद्मभूषण और फिल्मों के भारत रत्न कहे जाने वाले दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाजा गया था और उन्हें कुल 18 राष्ट्रीय पुरस्कार मिले।
समाज में व्याप्त जातिवाद, अंधविश्वास और स्त्री पुरुषों के संबंधों की पेचीदगियों को उन्होंने बखूबी दर्शाया। इतना ही नहीं 2019 में तो श्यामबाबू ने पीएम नरेंद्र मोदी को एक खुला पत्र लिख दिया था, जो हिंसा और जय श्री राम के नारे के गलत उपयोग के संबंध में था। इस पत्र के कारण श्याम बेनेगल के खिलाफ राजद्रोह की एक एफआईआर भी दर्ज की गई थी।