राजनीति पर लगातार फिल्में बना रहे प्रकाश झा का चुनाव लड़ने का ऐलान ऐसा है, जैसे कोई अंपायर कहे कि अब मैं भी बैटिंग करूँगा। रचनाकारों का काम चुनाव लड़ना नहीं है। उनका काम है रैफरी बनकर खेल को ठीक से चलाना और कहीं कोई बेईमानी या धाँधली हो तो उसे रोकना, उसे उजागर करना। प्रकाश झा क्या वैसे ही चुनाव लड़ेंगे जैसे उनकी फिल्मों के पात्र लड़ते हैं? अगर वे ईमानदारी से चुनाव लड़ेंगे तो क्या जीत पाएँगे? पश्चिमी चंपारन जिले के बरहारवा गाँववासी प्रकाश झा पहले भी एक बार अपने गृह क्षेत्र बेतिया से चुनाव लड़ कर हार चुके हैं। फर्क ये है कि पहले वे निर्दलीय लड़े थे और इस बार किसी दल का टिकट चाहते हैं। उन्हें कोई भी दल टिकट दे सकता है। सुनते हैं कि लोक जनशक्ति पार्टी से उनकी बात चल रही है। जब उन सितारों को पकड़-पकड़ कर चुनाव लड़ाया जा रहा है, जो राजनीति को नहीं जानते, फिर प्रकाश झा तो रुचि रखते हैं। मगर सवाल फिर यही है कि क्या वे जीत पाएँगे?
जाहिर है कि प्रकाश झा इस बार जीतना ही चाहते हैं, वरना वे फिर निर्दलीय रहकर लड़ने का इरादा जाहिर करते। जीतने के लिए ही वे किसी पार्टी का टिकट चाहते हैं। अगर ये मान भी लिया जाए कि प्रकाश झा ईमानदारी से ही चुनाव लड़ना चाहते हैं, तो ये कैसे माना जा सकता है कि जिस पार्टी से झा खड़े होंगे, वह अपनी एक सीट के लिए "दंद-फंद" नहीं करेगी? निर्दलीय चुनाव लड़कर अनुभव लेना एक बात है और खुद पर किसी पार्टी का ठप्पा लगवा लेना दूसरी बात। फिलहाल प्रकाश झा की सियासी फिल्में इसलिए विश्वसनीय हैं क्योंकि झा साहब निष्पक्ष समझे जाते हैं। उनकी बँधी मुट्ठी लाख की है। खुलकर खाक की भी हो सकती है। फर्ज कीजिए कि भाजपा, कांग्रेस, कम्युनिस्ट या लालू यादव की ही पार्टी में से किसी एक का टिकट उन्हें मिल गया है। इन तमाम पार्टियों के विरोधी भी कम नहीं हैं। क्या वे प्रकाश झा की फिल्मों पर एक खास विचारधारा को बढ़ाने का आरोप नहीं लगाएँगे?
महान लेखक फणीश्वरनाथ रेणु भी बिहार से चुनाव लड़कर देख चुके हैं। बिहार के जिस जिले पूर्णिया को उन्होंने साहित्य के जरिए अमर कर दिया उसी जिले के विधानसभा चुनाव में रेणु चुनाव हार गए थे और हारकर दुखी भी बहुत हुए थे। रेणु ने ही अपने संस्मरणों में लिखा है कि मुझे चुनाव लड़ना ही नहीं था। मैं लेखक हूँ और मेरा काम लिखना है। ठीक इसी तरह प्रकाश झा फिल्मकार हैं। वे अगर अनुभव और भीतरखाने की खबरें लेने किसी पार्टी के भीतर जा रहे हैं, तो ठीक है, वरना उनकी भी सही जगह माइक के आगे नहीं कैमरे के पीछे ही है। अच्छे लोगों को राजनीति में जरूर जाना चाहिए, पर प्रकाश झा जैसे फिल्मकार का जाना शायद ज्यादा ठीक न हो। सियासत पर भरोसेमंद फिल्म बनाने वाले हिन्दी में वे अकेले हैं।