यह होता है और कई बार होता है कि किसी रचनाकार को अपनी कमतर रचना के लिए पुरस्कार मिल जाता है। मुझे लगता है गीतकार स्वानंद किरकिरे के साथ ऐसा ही हुआ है जिन्हें हाल ही में फिल्म 'लगे रहो मुन्नाभाई' के गीत 'बंदे में था दम' के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया है, लेकिन इस बहस में पड़े बिना यह बिना झिझक कहा जाना चाहिए कि इस बहाने एक बेहतरीन गीतकार की रचनात्मकता का नोटिस लिया गया है। हालाँकि यह बात भी उतनी ही खास है कि इसके पहले ही वे अपने गीतों से खासी ख्याति हासिल कर चुके हैं। शायद लोगोंको उस फिल्म का नाम भी याद नहीं होगा जिसमें पहले-पहल गीत लिखते हुए स्वानंद किरकिरे ने बता-जता दिया था कि युवा और अच्छे गीतकारों की छोटी-सी फेहरिस्त में उनका नाम भी शुमार होगा। और यह हुआ।
उस फिल्म का नाम था 'हजारों ख्वाहिशें ऐसी' और निर्देशक थे सुधीर मिश्रा। तत्कालीन राजनीति और उसकी तिकड़में, कम्युनिस्ट और नक्सलवादी राजनीति के प्रति समर्पित युवा, प्रेम, दोस्ती, रिश्ते और अंततः आदर्श तथा यथार्थ के द्वंद्व को यह फिल्म अपनी बारीक बनावट में बहुतसारी परतों के साथ इतनी खूबसूरती से बुनती है कि हम एक खास समय के टुकड़े की छोटी-बड़ी सचाइयों से रूबरू होते हैं।
इसी फिल्म में स्वानंद का लिखा गीत था और उन्होंने इसे गाया भी था जिसके कई स्तरों पर पाठ किए जा सकते हैं। यह गीत स्वानंद अपने थिएटर के दिनों में लिख चुके थे, लेकिन जब सुधीर मिश्रा ने इसके बोल सुने तो उन्हें लगा कि यह गीत उनकी इस फिल्म के लिए बहुत अर्थवान है।
गीत सादा है, बोल सरल, लेकिन फिल्म की संरचना में जब यह खुलता-खिलता है तो हम इसमें थरथराती सघनता और गहनता को महसूस करते हैं। 'बावरा मन देखने चला एक सपना' जैसी सरल पंक्ति से गीत शुरू होता है और फिर उसमें बावरी-सी धड़कनें हैं, बावरी साँसे, बावरे से नैन जो बावरे झरोखों से, बावरे नजारों को तकना चाहते हैं। और यही नहीं फिर एक बावरी-सी धुन हो कोई बावरा-सा राग हो तक आप को ले जाता है और आप पाते हैं कि यह फिल्म की घटनाओं के प्रसंग में सिर्फ एक प्रेमगीत ही नहीं किसी व्यापक सपनों, रिश्तों औरख्वाहिशों के बारे में अभिव्यक्ति का एक खूबसूरत अंदाज है।
इसके बाद स्वानंद ने परिणीता के गीतों से अपनी पुख्ता पहचान बनाई जिसमें उन्होंने अपनी खास पोएटिक सेंसेबिलिटी से लबरेज गीत लिखे जिसमें 'पियू बोले और रात हमारी तो चाँद की सहेली है' जैसे गीत हैं जो फिल्म के चरित्र की मनस्थितियों और मनोभावों का ही सुंदर प्रकटीकरण है। 'खोया खोया चाँद' फिल्म में तो उनकी गीतकारी का नया अंदाज मिलता है क्योंकि इसके गीत साठ के दशक के उन रूमानी गीतों की याद दिलाते हैं जिनमें उम्दा शायरी है। चूँकि इस फिल्म का एक चरित्र खुद शायर है लिहाजा स्वानंद ने उसी के रंग में अपना हुनर दिखाते हुए गीत लिखा-
क्यूँ खोए खोए चाँद की फिराक में तलाश में उदास है दिल क्यूँ अपने आप से खफा-खफा जरा जरा सा नाराज है दिल।
इस पूरे गीत की बनावट और शब्द चयन पर ध्यान देंगे तो पाएँगे कि इसमें फिराक और मजाज का हल्का रंग मिलेगा जो इश्क को एक अवसाद के रंग में अभिव्यक्त करता लगता है और फिल्म में रचे गए माहौल में एकदम फिट। फिर अपनी गीतकारी की नई जमीन को तलाश करते हुए उन्होंने 'लगे रहो मुन्नाभाई' के गीत लिखे और ये गीत भी फिल्म की संचरना और उसके चरित्रों से इतने घुले-मिले हैं कि इन्हें अलग नहीं किया जा सकता। एक बानगी देखिए-
ख्वाबों में वो अपुन के रोज रोज आए खोपड़ी के खोपचे में खलबली मचाए खाली-पीली भेजा साला यूँ ही फड़फड़ाए।
इस गीत में जिस मुंबइया भेलपुरी भाषा का इस्तेमाल किया गया है, वह सिर्फ तुक मिलाने की बाजीगरी या कौशल ही नहीं है बल्कि चरित्र और उसकी स्थानीयता को अभिव्यक्त करने की रचनात्मकता है।
'लागा चुनरी में दाग' फिल्म के गीत में इस गीतकार की रेंज और वैरायटी देने की ताकत का अंदाजा लगा सकते हैं। इसके एक गीत में जो पंक्तियाँ लिखी, वह बनारस जैसे शहर की खासियत को खूबसूरती जता जाती है। 'हम तो ऐसे हैं भय्या' गीत में पंक्तियाँ आती हैं- 'एक गली में बमबम बोले, दूजी गली में अल्ला मियाँ,' 'एक गली में गूंजे अजान, दूजीगली में बंसी बजैय्या।' है न स्वानंद का कमाल कि कितने कम शब्दों में, सही शब्दों में वे बनारस ही नहीं हिन्दुस्तान के गंगा-जमुना कल्चर को इस तरह गुनगुनाता है। कहा जाना चाहिए कि स्वानंद बावरी-सी धुन और बावरे से एक राग पर सवार होकर हमारे लिए बेहतरीन तराने लेकर आते रहेंगे।