कपूर खानदान के वारिस होने के नाते यह तय था कि राजकपूर के मझले साहबजादे ऋषि उर्फ चिंटू फिल्मों में ही अपनी तकदीर आजमाएँगे। पहले-पहल राज साहब ने अपनी सबसे महत्वाकांक्षी फिल्म "मेरा नाम जोकर" में उन्हें पेश किया, अपने ही द्वारा निभाए गए हीरो के गोल-मटोल किशोर रूप में। बचपन की दहलीज लाँघकर जवानी की ओर बढ़ रहे राजू के रोल में ऋषि दर्शकों के दिल में जगह बना गए। अफसोस, यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर पिट गई।
राज कपूर को यह इतना बड़ा आर्थिक आघात पहुँचा गई कि कर्जे उतारने के लिए उन्होंने फटाफट अपनी स्थापित लीक से हटकर एक फिल्म बनाने का निर्णय लिया। इस टीन-एज लव स्टोरी के लिए हीरोइन तलाशने में तो उन्होंने खासे स्क्रीन टेस्ट लिए मगर हीरो उन्हें घर बैठे मिल गया। 1973 में आई "बॉबी" ने ऋषि और डिम्पल को रातों-रात स्टार बना दिया।
इस फिल्म की रेकॉर्ड-तोड़ कामयाबी के बाद ऋषि के सामने चुनौती थी दर्शकों की गगनचुंबी हो चुकी अपेक्षाओं पर खरा उतरने की। अपने चॉकलेटी चेहरे और "बॉबी" वाले रोमांटिक रोल की बदौलत उन्होंने प्रशंसकों का एक बड़ा वर्ग खड़ा कर लिया था, लेकिन इस दर्शक समूह को बनाए रखना मुश्किल भरा था।
ऋषि का नायक के रूप में पदार्पण हिन्दी सिनेमा के एक महत्वपूर्ण मोड़ पर हुआ, जब राजेश खन्ना नामक सनसनी का जादू उतार पर आ गया था और "जंजीर" के साथ अमिताभ बच्चन का "एंग्री यंग मैन" वाला तूफानी दौर शुरू हो रहा था।
दर्शकों की बदलती पसंद के इस दौर में ऋषि को अपने लिए स्थान बनाना और फिर उसे मजबूत आधार देना था। यहाँ एक बात उनके पक्ष में जाती थी। वह यह कि उनके पहले आए चॉकलेटी हीरो, जैसे बिश्वजीत या जॉय मुखर्जी के खाते में सलोने चेहरे के अलावा मामला ठन-ठन गोपाल था, जबकि ऋषि के पास अभिनय क्षमता का भंडार भी मौजूद था।
अनेक फिल्म रसिकों का मानना है कि जहाँ तक शुद्ध अभिनय क्षमता की बात है, ऋषि अपने भाइयों ही नहीं, चाचाओं तथा पिता पर भी भारी पड़ते हैं। उन्हें कपूर खानदान का सबसे प्रतिभाशाली अभिनेता कहा जा सकता है। हाँ, यह बात और है कि इस प्रतिभा के साथ न्याय करने वाले सशक्त रोल उन्हें नहीं मिल पाए।
"बॉबी" के बाद 1975 में आई "खेल-खेल में" ऋषि के खाते में दर्ज बड़ी सफलता थी। इस रोमांटिक-म्यूजिकल-सस्पेंस फिल्म ने ऋषि के करियर को पुनः गति दी। अगले ही साल वे "कभी-कभी" जैसी मल्टी स्टारर में अमिताभ, शशि कपूर, वहीदा और राखी जैसे वरिष्ठों के साथ चमके, तो "लैला मजनू" जैसी सोलो हिट भी दी और "बारूद" के जरिए एक्शन हीरो की छवि बनाने की कोशिश भी की।
"हम किसी से कम नहीं" ने एक बार फिर रोमांटिक म्यूजिकल फिल्म में ऋषि की बादशाहत सिद्ध की, तो "अमर अकबर एंथोनी" ने उन्हें मल्टी हीरो फिल्म में कॉमेडी और रोमांस के तड़के के लिए मुफीद पाया। "दूसरा आदमी" में उन्होंने उम्र में अपने से बड़ी स्त्री के प्रति आकर्षित विवाहित पुरुष की जटिल भूमिका की।
अमिताभ के करियर के शिखर काल में धर्मेंद्र और कुछ हद तक संजीव कुमार के अलावा ऋषि ही ऐसे नायक थे, जिन्होंने अपने दम पर लगातार हिट फिल्में दीं और अपनी फैन फॉलोइंग को थामे रखा। उनकी विशेषता यह थी कि वे रोमांटिक रोल में खूब फबते थे, कॉमेडी अच्छी कर लेते थे और एक्शन सीन में भी मिसफिट नहीं लगते थे।
"सरगम" और "कर्ज" जैसी हिट फिल्में देने के बाद 1982 में वे एक बार फिर अपने पिता के निर्देशन में "प्रेम रोग" में नजर आए। इस नायिका प्रधान फिल्म में पद्मिनी कोल्हापुरे पूरे फॉर्म में थीं मगर ठाकुर की बेटी को खामोशी से चाहने वाले गरीब ब्राह्मण पुत्र के रोल में ऋषि ने अंडरप्ले करते हुए गजब का प्रभाव डाला।
1985 में वे एक बार फिर अपनी पहली को-स्टार डिम्पल के साथ "सागर" में आए और दोनों की केमिस्ट्री देखते ही बनती थी। "नगीना", "चाँदनी", "हिना", "बोल राधा बोल", "दीवाना", "दामिनी" आदि से होते हुए वे नब्बे के दशक तक हीरो की पारी खेलते रहे।
नई सदी में "हम-तुम", "फना", "नमस्ते लंदन" जैसी फिल्मों में वे पिता की भूमिका में आने लगे। "लक बाय चान्स" में उन्होंने हैरान-परेशान फिल्म प्रोड्यूसर के रोल में गुदगुदाया, तो "लव आजकल" में अपने पहले प्यार को याद कर रहे बुजुर्ग सिख की भूमिका में यादगार अभिनय कर अपनी धाक जमाई।
यह उनकी अभिनय क्षमता का ही प्रमाण है कि कभी रोमांटिक चॉकलेटी हीरो कहे जाने वाले ऋषि आज बुजुर्ग चरित्र भूमिकाओं में भी अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। - देवेश खत्री