निर्माता-निर्देशक बीआर चोपड़ा बड़ी फिल्मों के साथ-साथ 'क्विकी' भी बनाया करते थे। क्विकी उन फिल्मों को कहा जाता है जो कम बजट में दो-तीन महीने में तैयार हो जाती है। 1976 में चोपड़ा ने 'छोटी सी बात' नामक क्विकी बनाई। इस फिल्म के निर्देशन की जिम्मेदारी बसु चटर्जी को सौंपी। बसु दा ने 1960 में रिलीज हुई ब्रिटिश मूवी 'स्कूल फॉर स्काउण्ड्रल्स' को आधार बना कर स्क्रीनप्ले लिखा। इसमें प्रसिद्ध लेखक शरद जोशी का भी सहयोग लिया।
फिल्म अरुण (अमोल) नामक ऐसे युवक की कहानी है जो बेहद शर्मीला है। जो अपने अंदर के भाव को व्यक्त नहीं कर पाता। वह जो करने की सोचता है उसे तुरंत कोई दूसरा कर लेता है। आत्मविश्वास की भी उसमें कमी है। मुंबई के एक ऑफिस में वह काम करता है। रोजाना बस स्टॉप से बस पकड़ता है। उसी बस स्टॉप से प्रभा (विद्या सिन्हा) भी बस पकड़ती है, जो दूसरे ऑफिस में काम करती है। प्रभा को अरुण मन ही मन चाहता है। कभी-कभी पीछा भी करता है। प्रभा यह बात ताड़ जाती है। वह भी उससे दोस्ती करना चाहती है, लेकिन चाहती है कि अरुण पहल करे।
प्रभा के ऑफिस में काम करने वाला नागेश (असरानी) एक तेज तर्रार व्यक्ति है। उसके पास स्कूटर (उस जमाने में बड़ी बात हुआ करती थी) है। वह जहां जाता है अपना सिक्का जमा लेता है। वह कई बार अरुण की प्लानिंग गुड़-गोबर कर देता है।
अरुण और नागेश के व्यक्तित्व में जमीन-आसमान का अंतर है। नागेश में आत्मविश्वास है तो अरुण में इसकी कमी है। नागेश बोल्ड है तो अरुण संकोची है। नागेश स्ट्रीट स्मार्ट है तो अरुण बस सपने ही देखता रहता है।
प्रभा को इम्प्रेस करने के चक्कर में अरुण ज्योतिष, टैरो कार्ड आदि की मदद लेता है, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकलता। आखिर में उसे कर्नल जूलियस नागेन्द्रनाथ विल्फ्रेड सिंह (अशोक कुमार) का पता चलता है जो खण्डाला में लड़कियों का दिल जीतने की तरकीबें बताते हैं। कर्नल से अरुण मिलता है। उनके पास कुछ दिन रूकता है और फिर मुंबई बदले हुए अरुण के रूप में लौटता है। उसके इस नए अवतार से सभी चकित रह जाते हैं।
बसु चटर्जी ने इस कहानी को हास्य की चाशनी में डूबो कर पेश किया है। सत्तर के दशक का मुंबई देखना आंखों को सुकून देता है। उस जमाने के ऑफिस, वर्किंग कल्चर को देखना नया अनुभव है। मुंबई की बसें, बस स्टॉप, फिल्म के पोस्टर्स, पुरानी कारें और स्कूटर्स को देखना सुखद है। उस समय ऑफिस में काम करना कितना आरामदायक होता था। लंच में आप किसी रेस्तरां में जाकर घंटा भर गुजार सकते थे। ऑफिस में खेलों के लिए भी जगह होती थी। शतरंज, टेबल-टेनिस की चैम्पियनशिप होती थी। शाम को पांच बजे ऑफिस का समय खत्म हो जाया करता था और आप शामें सुहानी हुआ करती थी। आजकल तो ज्यादातर लोगों के जीवन में शाम का नाम ही खत्म हो गया है।
फिल्म की कास्टिंग परफेक्ट है। अमोल पालेकर और विद्या सिन्हा लुक के मामले में बिलकुल साधारण थे, जिसके कारण कहानी की विश्वसनीयता बढ़ गई। ये बिलकुल आम लोगों जैसे दिखते थे इसलिए लोगों को अपना अक्स इनमें नजर आया।
बसु चटर्जी ने फिल्म की शुरुआत में अच्छा माहौल बनाया। अरुण और प्रभा के कैरेक्टर को डेवलेप किया। फिर नागेश की एंट्री दिखाई जिससे कॉमेडी का स्तर ऊंचा हो गया। बाद में कर्नल वाला दमदार कैरेक्टर फिल्म में इंट्रोड्यूस किया। फिर हमारा नायक 'हीरो' बनकर सामने आता है। अच्छी बात यह रही कि प्रभा का दिल जीतने में अरुण किसी तरह की ट्रिक का इस्तेमाल नहीं करता और प्रभा का दिल नहीं टूटता। फिल्म के अंत में इसी उत्सुकता को उन्होंने बढ़ाया।
फिल्म में कई मजेदार सीन हैं, जैसे पुरानी खटारा मोटर साइकल अरुण खरीद लेता है और स्मार्ट बनने के बाद उसी मोटर साइकल को महंगे दाम में उसी गैरेज को बेचता है। जिस रेस्तरां में अरुण पर नागेश भारी पड़ता है, उसी रेस्तरां में वह उसी को मात देता है।
फिल्म लगातार आपको गुदगुदाती है। 'फील गुड' वाला फैक्टर भी फिल्म में है। फिल्म के संवाद बढ़िया हैं, खासतौर पर अशोक कुमार द्वारा बोले गए संवादों में कई गंभीर और प्रेरक बातें भी हैं।
फिल्म में तीन गाने हैं। इन्हें योगेश ने लिखा और सलिल चौधरी ने संगीतबद्ध किया है। योगेश और सलिल चौधरी का यह दुर्भाग्य रहा कि उन्होंने उस दौर में जन्म लिया जब फिल्म-संगीत में प्रतिभाशाली लोगों की भरमार थी। इस कारण इन्हें भरपूर मौके नहीं मिले वरना प्रतिभा में ये किसी से कम नहीं थे।
जानेमन जानेमन तेरे ये दो नयन (येसुदास, आशा भोंसले) आज भी पॉपुलर है। इस गाने में धर्मेन्द्र और हेमा मालिनी नजर आते हैं जो उस दौर के बड़े सितारे थे। गाने का पिक्चराइजेशन उम्दा है। अरुण फिल्म देखने जाता है और फिल्म में यह गाना आता है। अरुण उस समय परेशान हो जाता है जब वह अपनी कल्पना में विद्या सिन्हा के साथ धर्मेन्द्र को देखता है। अमिताभ बच्चन भी एक सीन में नजर आते हैं। कितना अच्छा दौर था वो जब अमिताभ, धर्मेन्द्र, हेमा जैसे सितारे अपने स्टारडम की रोशनी इन छोटी फिल्मों को भी दिया करते थे।
'ना जाने क्यूं होता है ये जिंदगी के साथ' लता मंगेशकर द्वारा गाए श्रेष्ठ गीतों में से एक है। फिर भी इस गीत को योगेश का माना जा सकता है। कितनी बढ़िया और छोटी सी बात उन्होंने इसमें लिखी है, जो हम-आप आमतौर पर फील करते हैं, लेकिन समझ ही नहीं पाते।
ये दिन क्या आए, फिल्म का एक और बेहतरीन गीत है जिसे मुकेश ने गाया है। गीतों की सिचुएशन बेहतरीन बनाई गई है और फिल्म की कहानी को तो वे आगे ले ही जाते हैं साथ में किरदारों के अंदर घुमड़ रहे भावों को भी अभिव्यक्ति देते हैं।
अभिनय सभी का उच्च स्तर का है। अमोल पालेकर बिलकुल किरदार में डूबे रहते हैं, मानो उनका जन्म अरुण का रोल निभाने के लिए ही हुआ हो। उन्हें एक ही किरदार में दो रंग भरने को मिले जो यू-टर्न लेता है। विद्या सिन्हा ने अपने किरदार को जरूरी चुलबुलापन दिया। असरानी तेज-तर्रार लगे और नागेश के रूप में दर्शकों को उन्होंने अपनी भाव-भंगिमाओं के जरिये खूब हंसाया। अशोक कुमार का किरदार वैसा ही है जैसे घर में 'डैडी' होते हैं। जिन्हें सब पता होता है और वे रौबदार भी होते हैं। जिनकी हर बात मानना ही होती है।
यह फिल्म यू-ट्यूब पर उपलब्ध है, एचडी प्रिंट के साथ। छोटी सी बात कितनी बड़ी और सटीक होती है यह मनोरंजक तरीके से यह फिल्म खूब दर्शाती है।