विनोद मेहरा : अमिताभ-धर्मेन्द्र-जीतेन्द्र के रहते नहीं मिले ज्यादा मौके

समय ताम्रकर

सोमवार, 13 फ़रवरी 2023 (17:40 IST)
हिन्दी सिनेमा के आकाश में कब कौन सितारा उदित होकर अस्त हो जाएगा, इस बारे में कोई ज्योतिष किसी प्रकार की भविष्याणी नहीं कर सकता। चॉकलेटी-दौर के नायकों में एक सुदर्शन चेहरा लेकर 1971 में फिल्म एक थी रीटा में विनोद मेहरा यकायक चमक गए थे। उनकी नायिका थी तनूजा। 
 
मुम्बई के चर्चगेट इलाके में गेलार्ड नामक एक रेस्तरां में पचास-साठ के दशक में संघर्ष कर रहे फिल्मी कलाकारों का अड्डा हुआ करता था। वहाँ रूप के. शोरी नामक फिल्म डायरेक्टर अक्सर आया-जाया करते थे। उनकी निगाह विनोद मेहरा पर ऐसी जमी कि उन्होंने अपनी फिल्म में सीधे नायक की भूमिका सौंप दी। 
 
इसके पहले विनोद बाल कलाकार के रूप में कैमरा फेस कर चुके थे। फिल्म रागिनी में किशोर कुमार के बचपन का रोल उन्होंने निभाया था। आई.एस. जौहर की फिल्म बेवकूफ (1960) और विजय भट्ट की फिल्म अंगुलिमाल (1960) में छोटे-मोटे रोल में भी विनोद दिखाई दिए थे। 
 
मौसमी ने बदला मौसम 
13 फरवरी 1945 को जन्मे विनोद के फिल्म करियर के मौसम को खुशनुमा बनाने में अभिनेत्री मौसमी चटर्जी का जबरदस्त हाथ है। शिक्त सामंत की फिल्म अनुराग (1972) में मौसमी-विनोद पहली बार साथ आए। मौसमी ने एक दृष्टिहीन युवती का रोल संजीदगी के साथ किया था। विनोद एक आदर्शवादी नायक थे और अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध वह मौसमी से शादी करना चाहते थे। 
 
इसके बाद फिल्म उस पार (बसु चटर्जी), दो झूठ (जीतू ठाकुर) तथा स्वर्ग नरक (दसारी नारायण राव) में मौसमी के नायक बने। विनोद को स्वतंत्र रूप से नायक बनने और हीरोइन से रोमांस लड़ाने अथवा पेड़ों के इर्दगिर्द गाना गाने के अवसर ए ग्रेड के बजाय बी ग्रेड फिल्मों में ज्यादा मिले क्योंकि बड़े निर्देशकों की फिल्मों में उन्हें ज्यादातर दूसरी लीड का नायक माना गया। 
 
उस वक्त मल्टीस्टारर फिल्मों का दौर था। विनोद खन्ना, राजेश खन्ना, संजीव कुमार, धर्मेन्द्र, जीतेन्द्र या अमिताभ के रहते हुए विनोद मेहरा को फिल्म में ज्यादा अवसर नहीं मिलते थे। 
 
हमेशा हाशिए में रहे 
विनोद मेहरा के करियर की यह ट्रेजेडी मानी जाएगी कि उन्हें बड़े बैनर्स से ज्यादा ऑफर नहीं आए। बी.आर. चोपड़ा की फिल्म द बर्निंग ट्रेन में वे सवार थे। लेकिन इस फिल्म में ट्रेन के मुसाफिरों की भीड़ के समान कलाकार थे। इसके बावजूद बर्निंग ट्रेन बॉक्स ऑफिस पर भी बुरी तरह जल गई थी। कोई सफल सितारा अपने इंटरव्यू में बर्निंग ट्रेन का जिक्र तक नहीं करना चाहता। लिहाजा इस फिल्म में विनोद मेहरा का होना नहीं जैसा था। 
 
उन्हें दक्षिण भारतीय फिल्म डायरेक्टर्स ने भी मौके दिए जो उन दिनों हिन्दी फिल्में लगातार निर्देशित कर रहे थे। ऐसे फिल्मकारों में कृष्णन्‌ पंजू (शानदार), आर.कृष्णमूर्ति (अमरदीप), एस. रामानाथन्‌ (दो फूल तथा सबसे बड़ा रुपैया) तथा दसारी नारायण राव (स्वर्ग नरक) के नाम उल्लेखनीय हैं। 
 
दक्षिण भारतीय फिल्मकारों की पसंद बनने से अभिनेता का सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि उसके पैर तले से बॉलीवुड की जमीन खिसक जाती है। 
 
अस्सी के दशक में विनोद मेहरा को वैरायटी की फिल्में और वैरायटी भरे रोल मिले, लेकिन इन फिल्मों में जो मुख्य नायक-नायिका थे, वे सारी लोकप्रियता बटोर कर ले गए। मोहन सहगल निर्देशित फिल्म कर्तव्य की सफलता धर्मेन्द्र और रेखा के खाते में लिखी गई। 
 
बेमिसाल (ऋषिकेश मुखर्जी) और खुद्दार (रवि टंडन) की कामयाबी का लाभ अमिताभ को मिला। लाल पत्थर में राजकुमार-हेमा मालिनी का स्क्रीन प्रजेंस विनोद पर भारी पड़ा। शोले के गब्बरसिंह उर्फ अमजद खान को जब अपार लोकप्रियता मिली, तो उन्होंने चोर पुलिस फिल्म बनाकर हाथ साफ किए। इसमें विनोद को उन्होंने मौका दिया मगर वह कोई काम नहीं आ सका।
 
रेखा से रोमांस और शादी!
विनोद मेहरा और रेखा की नजदीकियाँ और रोमांस की चर्चाएँ बॉलीवुड में कई दिनों तक सुर्खियों में रही। कहा जाता है कि दोनों ने शादी भी की थी। विनोद और रेखा ही जानते हैं कि असलियत क्या है? वैसे विनोद मेहरा ने तीन शादियाँ की। 
 
मीना ब्रोका उनकी पहली पत्नी थी। शादी-शुदा विनोद का दिल बिंदिया गोस्वामी पर आ गया जिनके साथ विनोद उन दिनों कई फिल्मों में काम कर रहे थे। विनोद और बिंदिया की शादी भी लंबे समय तक टिक नहीं पाई और बिंदिया से वे अलग हो गए। 
 
इसके बाद किरण से उन्होंने विवाह रचाया। किरण और विनोद की एक बेटी सोनिया और एक बेटा रोहन है। सोनिया मेहरा पिछले दिनों कुछ फिल्मो में भी नजर आईं। 
 
गुरुदेव भी नहीं हो पाई पूरी
बॉलीवुड में अपनी प्रतिभा को प्रतिष्ठा नहीं मिलने से विनोद अक्सर उदास रहा करते थे। जब अभिनेता के रूप में उनके पास ज्यादा कुछ करने को नहीं रहा तो वे निर्देशन के मैदान में उतरे। उन्होंने ऋषिकपूर-अनिल कपूर और श्रीदेवी को लेकर फिल्म 'गुरुदेव' शुरू की जो उस वक्त के कामयाब सितारे थे, लेकिन गुरुदेव को बनने में लंबा वक्त लगा। 
 
कहा जाता है कि इन सितारों ने डेट्स देने में विनोद को बेहद सताया और विनोद तनाव में रहने लगे। फिल्म के रिलीज होने के पूर्व ही वे चल बसे। 30 अक्टोबर 1990 को तमाम बातों पर विनोद की मौत ने फुलस्टाप लगा दिया। अचानक दिल का दौरा आ जाने से वे असमय मात्र 45 वर्ष की उम्र में ही बिदा हो गए। 
 
उनकी मौत के बाद प्रतीक्षा (1993, लॉरेंस डिसूजा), सरफिरा (1992), इंसानियत (1994, टोनी जुनेजा) जैसी कुछ फिल्में रिलीज हुईं, लेकिन पंछी पिंजरा छोड़ चुका था। दरअसल देखा जाए तो विनोद मेहरा हिंदी सिनेमा में अपना कोई विशेष मकाम नहीं बना पाए। एक अभिनेता के रूप में वे हवाओं पे लिख दो हवाओं के नाम जैसे रहे।
 
प्रमुख फिल्में 
लाल पत्थर (1972), अनुराग (1972), सबसे बड़ा रुपैया (1976), नागिन (1976), अनुरोध (1977), साजन बिना सुहागन (1978), घर (1978), दादा (1979), कर्तव्य (1979), अमर दीप (1979), जानी दुश्मन (1979), बिन फेरे हम तेरे (1979), द बर्निंग ट्रेन (1980), टक्कर (1980), ज्योति बने ज्वाला (1980), प्यारा दुश्मन (1980), ज्वालामुखी (1980), साजन की सहेली (1981), बेमिसाल (1982), स्वीकार किया मैंने (1983) लॉकेट (1986, प्यार की जीत (1987) 

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