किसी फिल्म की विषयवस्तु को उसकी परिणति तक ले जाने वाला क्लाइमेक्स बहुत हद तक तय करता है कि दर्शकों पर फिल्म का कुल जमा क्या प्रभाव पड़ेगा। अनेक दिग्गज पटकथा लेखक और निर्देशक क्लाइमेक्स की रूपरेखा पर विशेष तौर पर काम करते हैं।
हिन्दी फिल्मों के यादगार क्लाइमेक्सों की बात करें, तो 'प्यासा' (1957) का जिक्र अनिवार्य हो जाता है। हल्की-फुल्की क्राइम थ्रिलर और कॉमेडी फिल्में बनाने वाले गुरुदत्त ने 'प्यासा' बनाकर सबको चौंका दिया था। इसी फिल्म से गुरुदत्त अपने असल फॉर्म में आए और एक बेहद संवेदनशील फिल्मकार के रूप में सदा के लिए इतिहास में दर्ज हो गए।
' प्यासा' का गीतमय क्लाइमेक्स कथा कथन, अभिनय और फोटोग्राफी की उत्कृष्टता का संगम है। साथ ही बेहतरीन गीत, संगीत और गायन तथा इस सबके ऊपर अद्भुत कल्पनाशील निर्देशन...। कह सकते हैं कि फिल्ममेकिंग की किताब है 'प्यासा' और इस किताब का महत्वपूर्ण अध्याय है इसका क्लाइमेक्स।
स्थिति कुछ यूँ बनती है कि जिस प्रतिभाशाली शायर विजय (गुरुदत्त) को जमाने ने ठुकरा दिया था, उसी को मुर्दा समझकर वही जमाना सर आँखों पर बैठाने को तत्पर है। दुनिया की नजरों में विजय मरा ही रहे, इसी में उसके लालची भाइयों का भी फायदा है और उसकी किताब छापने वाले प्रकाशक घोष बाबू (रहमान) का भी।
खचाखच भरे सभागार में मंच से विजय की महानता के गुण गाए जा रहे हैं। इनमें घोष बाबू भी हैं, जो न केवल विजय की रचनाओं से व्यवसायिक लाभ कमाना चाहते हैं, बल्कि निजी तौर पर भी विजय के रूप में एक काँटा अपने रास्ते से हटने से खुश हैं... वह घोष बाबू की पत्नी का पूर्व प्रेमी जो था...! उनकी पत्नी मीना (माला सिन्हा) भी मंच पर मौजूद है, वहीं दर्शकों में गुलाबो (वहीदा रहमान) बैठी है, जिसके तिरस्कृत जीवन में विजय के रूप में आस की किरण ने प्रवेश किया था- आस हमदर्दी की, सच्चे प्यार की।
... लेकिन विजय जिंदा है और वहीं आ पहुँचता है। हॉल के प्रवेश द्वार पर खड़ा विजय यह देख हतप्रभ है कि उसके जिंदा रहते जिन लोगों ने उसे खारिज किया था, प्रताड़ित किया था, वे ही उसकी महानता पर भाषण दे रहे हैं, उसकी मौत पर घड़ियाली आँसू बहा रहे हैं।
मंच से कार्यक्रम चल रहा है कि तभी दरवाजे के पास की परछाइयों में से एक धीमी-सी आवाज उठती हैः'ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया, ये इंसाँ ने दुश्मन समाजों की दुनिया, ये दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है...'।
फुसफुसाहट से शुरू हुई आवाज हर पंक्ति के साथ ऊँची होती जाती है। हॉल में बैठे तमाम श्रोताओं की नजर पीछे की ओर मुड़ती है, जहाँ दोनों हाथ दरवाजे पर टेकते हुए एक आकृति उठ खड़ी हुई हैः 'मृत' विजय की आकृति। गुलाबो के रुँआसे चेहरे पर अविश्वास मिश्रित खुशी फैल जाती है। माइक थामे खड़े घोष बाबू भौंचक्क हैं, अपने बने-बनाए खेल के बिगड़ने के ख्याल से भयभीत हैं और अपने गुस्से को जैसे-तैसे काबू में रखने का प्रयास कर रहे हैं।
अपने कॉलेज के समय के प्यार को जीवित देखकर मीना राहत भी महसूस करती है और अपने पति द्वारा कोई घृणास्पद खेल खेले जाने की आशंका से क्रुद्ध भी है। उधर विजय मुर्दापरस्तों की भौतिकतावादी दुनिया को आईना दिखाते हुए उस संसार को ही ठुकराने का ऐलान करता है जिसने जीते जी उसे ठुकराया थाः'जला दो इसे फूँक डालो ये दुनिया, मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया, तुम्हारी है तुम ही संभालो ये दुनिया...।' हॉल में कोहराम मच जाता है, लोग विजय पर टूट पड़ते हैं... और विजय खुद को विजय मानने से ही इंकार कर देता है,'साहिबान, मैं विजय नहीं हूँ...।'
इस पूरे क्लाइमेक्स को गुरुदत्त ने जिस तरह से रचा है, वह 'न भूतो, न भविष्यति' है। छायाकार वीके मूर्ति की मदद से उन्होंने भारतीय सिनेमा की सबसे यादगार फ्रेमों में से एक को गढ़ा हैः अंधेरे सभागार के दरवाजे से आ रहे प्रकाश के बीच, सलीब पर टँगे ईसा की मुद्रा में दरवाजे पर खड़े विजय की छवि हिंदुस्तानी सिनेमा की धरोहर है।