यदि कहानी, निर्देशन, संगीत वगैरह अच्छा है तो सितारे की उपस्थिति इस अच्छाई की वेल्यू में बढ़ोतरी ही करती है। फिर सितारे ज्यादा हों, मसलन एक की बजाय दो या तीन हीरो व इतनी ही हीरोइनें, तो फिल्म का रुतबा उसी अनुपात में बढ़ जाता है। एक गणित यह भी होता है कि फिल्म में दो की बजाय चार सितारे होंगे तो दो की बजाय चार फैन समूह फिल्म के दर्शक बनेंगे। यानी ज्यादा टिकटों की बिक्री और ज्यादा कमाई। इसी कारण मल्टीस्टारर फिल्मों का लंबा इतिहास रहा है।
मेहबूब खान ने 1949 में 'अंदाज' में जब दिलीप कुमार और राज कपूर दोनों को साइन किया था तो इसे मल्टीस्टारर माना गया था। समान दर्जे वाले दो बड़े हीरो को एकसाथ फिल्म में लेने का यह शायद पहला अवसर था। तिस पर हीरोइन नरगिस! बस, हो गई मल्टीस्टारर।
यूँ कई लोग 'वक्त' (1965) को हिन्दी सिनेमा की पहली मल्टीस्टारर फिल्म का दर्जा देते हैं। इस फिल्म से शुरू हुई तीन हीरो की परंपरा अस्सी के दशक तक बखूबी चली। यहाँ बचपन में बिछड़े भाइयों के रोल में राज कुमार, सुनील दत्त और शशि कपूर थे तो उनमें से दो की प्रेमिकाओं के रोल साधना और शर्मिला टैगोर ने निभाए थे। फिर माता-पिता के रोल में भी बलराज साहनी और अचला सचदेव थे और खलनायक रहमान...। यानी सितारे ही सितारे।
सत्तर और अस्सी के दशकों को मल्टीस्टारर फिल्मों का शिखर काल कहा जा सकता है। 'अमर अकबर एंथोनी', 'शोले', 'रोटी कपड़ा और मकान', 'मुकद्दर का सिकंदर', 'कभी-कभी', 'काला पत्थर', 'त्रिशूल', 'नागिन', 'जानी दुश्मन', 'नसीब', 'क्रांति', 'द बर्निंग ट्रेन', 'राजपूत' आदि... सूची बहुत लंबी है।
गौर करने वाली बात है कि अमिताभ बच्चन जब अपने एंग्री यंग मैन वाले अवतार में बॉलीवुड पर राज कर रहे थे, तब भी उनकी आधी से अधिक फिल्में मल्टीस्टारर थीं। न बॉक्स ऑफिस के शहंशाह को अन्य सितारों के साथ काम करने से गुरेज था और न ही निर्माताओं की यह सोच थी कि अमिताभ को साइन कर लिया तो और सितारों को लेने की जरूरत नहीं, फिल्म यूँ ही चल जाएगी।
हम कह सकते हैं कि उस दौर में मल्टीस्टारर फिल्म बनाना अपने आपमें एक फॉर्मूला बन गया था। हाँ, सितारों से जड़ी फिल्म का बॉक्स ऑफिस पर सफल होना सुनिश्चित कतई नहीं था। 'ईमान धरम', 'राजपूत', 'द बर्निंग ट्रेन' आदि पिटी भी थीं।
नब्बे के दशक के आरंभ में रोमांटिक फिल्मों की वापसी वाले दौर में कुछ समय तक एकल हीरो-हीरोइन वाली फिल्मों का चलन रहा, लेकिन मल्टीस्टरर फिल्में बनना बंद हो गई हों, ऐसा नहीं था। जेपी दत्ता की युद्ध फिल्म 'बॉर्डर' में सितारों की भीड़ थी, वहीं राजश्री की 'हम साथ-साथ हैं' में भी साथ-साथ दिखाने के लिए कई सितारों की दरकार थी।
इक्कीसवीं सदी में 'कभी खुशी कभी गम', 'नो एंट्री', 'वेलकम' आदि मल्टीस्टारर आईं। प्रमुख रोल में न सही, एक-दो मिनट के लिए ढेर सारे सितारों की झलक अपनी फिल्म में दिखाने की होड़ भी फिल्मकारों में लग गई। फराह खान ने 'ओम शांति ओम' में कहानी की फिल्मी पृष्ठभूमि का लाभ लेते हुए अवॉर्ड समारोह और पार्टी के दृश्य में सितारों का सैलाब दर्शकों पर छोड़ दिया।
' लक बाय चांस' जैसी फिल्मी पृष्ठभूमि वाली अन्य फिल्मों में भी यह उपाय आजमाया गया। जिन कहानियों का फिल्म इंडस्ट्री से कोई संबंध नहीं होता, उनमें भी किसी बहाने कई सितारों की चंद सेकंड की उपस्थिति दर्ज करा ही दी जाती है।
अब इसी कड़ी में साजिद खान 'हाउसफुल-2' से नई लकीर खींचने जा रहे हैं। देखना है कि मल्टीस्टारर फिल्मों के रूप में सितारों का घड़ा आखिर कब भरता है...।