उनकी कहानी एकदम फिल्मी है। सारे मसाले उनके निजी जीवन का हिस्सा रहे हैं...कुछ तीखे और दुख देते तो कुछ मीठे भी। ग्लैमर जगत फिर भी जीवन के हर मोड़ पर उनके साथ ही रहा है..किसी साये की तरह। कभी चाहे तो कभी अनचाहे। लेकिन अब ग्लैमर का एक और रंग उनकी जिंदगी में शुमार है... और ये रंग उनकी कलम के जरिए से पन्नों पर उतरता चला जा रहा है।
शगुफ्ता रफीक... एक ग्लैमरस जिंदगी जीने वाली लड़की, जिसके रास्ते में आए एक हादसे ने न केवल जीने के सहारे पर प्रश्नचिह्न खड़ा किया बल्कि तमाम सुख-सुविधाओं से दूर उसे कड़वी सच्चाइयों के काँटों भरे रास्ते पर जाने के लिए मजबूर कर दिया।
शगुफ्ता एक गोद ली हुई बच्ची हैं जिन्हें अनवरी बेगम के रूप में माँ और परिवार मिला था। अनवरी बेगम पचास के दशक में हिन्दी फिल्मों में अभिनेत्री रहीं। शगुफ्ता की सौतेली बहन थीं सईदा जिन्होंने फिल्म प्रोड्यूसर ब्रिज सदाना से शादी की। ये वही ब्रिज सदाना थे जिन्होंने अचानक एक दिन अपने बीवी और बच्चों को गोली मारकर खुद भी आत्महत्या कर ली थी।
संजोग से उस घटना में केवल उनका पुत्र अभिनेता कमल सदाना बच गए थे। तो उस घटना के पूर्व तक शगुफ्ता और उनकी माँ, दोनों के साथ सईदा नाम का सहारा था। जिंदगी बेहद मजे के साथ बीत रही थी। असुविधाओं, तंगी या ऐसी किसी भी चीज़ से दूर-दूर तक शगुफ्ता का पाला नहीं पड़ा था। फिर अचानक वो काली रात आई जब सईदा के साथ ही शगुफ्ता के सर से सुखों का साया भी उठ गया। फिर शुरू हुआ सिलसिला पैरों की बिवाइयों के फटने का। अब तक सारी सुविधाओं से घिरी शगुफ्ता के सामने रोजी-रोटी का सवाल खड़ा हो गया।
इस तरह पहली बार वे महेश भट्ट से जुड़ी और उनकी असिस्टेंट डायरेक्टर बन गईं। यहीं काम करते-करते उनका रुझान फिल्मों की कहानी लिखने की ओर हुआ। उर्दू और हिन्दी में उनका हाथ अच्छा था और वे फिल्में देखने के बाद इस काम को और भी अच्छे से समझने लगी थीं।
यही नहीं उन्होंने टॉल्सटॉय जैसे नामी लेखकों को भी पढ़ना शुरू किया लेकिन दिक्कत थी सबूत की। फिल्म इंडस्ट्री में जहाँ भी वे लेखन का काम माँगने जातीं, लोग उनसे पहले लिखे किसी काम का नमूना माँगते ताकि वे देख सकें कि शगुफ्ता की लिखावट स्क्रीन पर क्या असर पैदा करती है..लेकिन शगुफ्ता के पास वह नमूना कहाँ से आता भला।
बस इस तरह यह रास्ता बंद होता चला गया। थोड़ा-बहुत काम जो दूरदर्शन के धारावाहिकों आदि के रास्ते मिल रहा था वह जीवनयापन के लिए काफी नहीं था। इसी दौरान उनकी माँ को कैंसर जैसी घातक बीमारी हो गई। तब एक मित्र ने उन्हें दुबई के एक बार में गाने के काम का ऑफर दिया और शगुफ्ता ने तुरंत स्वीकार कर लिया। दुबई में काम करके, अच्छा पैसा जोड़कर फिल्मी लेखन के क्षेत्र में वापसी का सपना लेकर शगुफ्ता बार में काम करने चली गईं।
कुछ ही सालों में शगुफ्ता के पास इतना पैसा हो गया कि वे अब रोटी की चिंता छोड़, लेखक बनने के लिए समय दे सकती थीं। तब शगुफ्ता ने फिर भट्ट कैंप में वापसी की और फिल्म 'कलयुग' में उन्होंने मुख्य लेखक को सहयोग दिया। भाषा पर उनकी पकड़ के अलावा खुद उनकी जिंदगी के अनुभवों ने उनके लेखन को महत्वपूर्ण बनाया।
खुद शगुफ्ता कहती हैं- 'सिर्फ कलम उठाकर लेखक नहीं बना जा सकता। लिखने के लिए आपको जिंदगी की समझ होना बहुत जरूरी है। सबसे बड़ी बात है विकट परिस्थितियों को समझकर चलना। जो ये सीख जाता है वो लिख सकता है।' कलयुग में उनके काम को देखने के बाद भट्ट कैंप ने उन्हें और भी कई असाइन्मेंट दिए और 'वो लम्हे', 'आवारापन' तथा 'धोखा' जैसी फिल्में उनके नाम हुईं।
जीवन के कई रंग देख चुकीं शगुफ्ता न केवल भट्ट कैंप का स्थायी हिस्सा बन चुकी हैं बल्कि वे अपनी जिंदगी के अनुभवों को भी शब्द दे रही हैं। फिल्मी लेख ने शगुफ्ता को नई पहचान भी दी है और एक स्थार्यी ठिकाना भी।