साहित्य को समाज का आईना कहा जाता है। जो कुछ आमतौर पर देश समाज में होता है, वो थोड़े-बहुत फेरबदल के साथ साहित्य में अभिव्यक्त होता है, लेकिन बात सिर्फ यहीं खत्म नहीं हो जाती है। फिल्में भी अपने दौर का दस्तावेज हुआ करती हैं। ये अलग बात है कि चूँकि यह माध्यम अलग है इसलिए इसमें झलकता समाज और देश की हकीकत भी ठीक वैसी ही नहीं होगी, जैसी कि घटित होती है। फिर भी कमोबेश किसी दौर की फिल्मों को समग्र रूप में देखा जाए तो उस दौर का पूरा खाका साफ नजर आता है। हमारी फिल्में भी इससे कुछ अलग नहीं हैं।
जिस तरह देश ने अलग-अलग दौर देखे हैं, हमारे हिन्दी सिनेमा ने भी उन्हीं दौरों को अपने तरीके से अभिव्यक्त किया है। हम अपने देश समाज के इतिहास की तरह ही हिन्दी फिल्मों के इतिहास को भी विभाजित कर सकते हैं।
स्वतंत्रता के बाद के 20 सालों का इतिहास सपनों, चुनौतियों, आकांक्षाओं और नवनिर्माण का समय रहा। इस दौर में हमारे नीति निर्माताओं के साथ ही बुद्धिजीवियों ने देश-समाज के लिए आदर्श रचे थे, सपने देखे थे और कई सारी आकांक्षाओं को अंजाम दिया था।
इन शुरूआती दो दशकों की फिल्मों में हमें इसी तरह की ध्वनि सुनाई दी। 'आवारा', 'आनंदमठ', 'दो बीघा जमीन', 'फिर सुबह होगी', 'फुटपाथ', 'दो आँखें बारह हाथ', 'श्री 420', 'सीमा', 'मदर इंडिया', 'जिस देश में गंगा बहती है' और 'सुजाता' जैसी फिल्में बनाई और सराही गईं।
उस दौर में एक तरफ नई-नई स्वतंत्रता मिली थी, तो एक देश के तौर पर स्थापित होने की चुनौतियाँ भी थीं और उसे सँवारने के सपने भी थे। 'आवारा', 'दो आँखें बारह हाथ', 'मदर इंडिया' और 'सुजाता' जैसे आदर्श और चुनौतियों को पर्दे पर फिल्मकारों ने साकार किया था।
इसी काल में उत्तर भारत डाकुओं की समस्या से जूझ रहा था, तो 'गंगा-जमुना' और 'जिस देश में गंगा बहती है' जैसी फिल्मों का निर्माण हुआ। देश ने चीन से युद्ध लड़ा था तो उस युद्ध पर आधारित 'हकीकत' का निर्माण भी इसी दौर में हुआ। इस दौर में कहीं-न-कहीं समानता और सामाजिक न्याय को दर्शाने वाली फिल्में भी बनी और सराही गईं।
इसी तरह 70 का दशक इतिहास में कई अलग-अलग प्रवृत्तियों का दशक रहा। एक तरफ देश का मध्यम वर्ग मजबूत हो रहा था, संस्कृति, मूल्य और जीवन दर्शन स्वरूप ग्रहण कर रहा था। समाज का ढाँचा और दिशा तय हो चली थी। दूसरी ओर व्यवस्था से मोहभंग की शुरुआत हो चली थी, तो तीसरी ओर चीन युद्ध की हार से गिरा मनोबल पाकिस्तान से जीत के बाद फिर से ऊँचा हो रहा था।
यही वह दौर था, जब हिन्दी फिल्मों में सामाजिक असंतोष को स्वर देने वाले अभिनेता अमिताभ का उदय हुआ था। एक तरफ जहाँ 'गुड्डी', 'परिचय', 'अभिमान', 'चुपके-चुपके', 'आपकी कसम', 'रजनीगंधा' जैसी मध्यमवर्गीय समाज को दर्शाने वाली फिल्में बनीं, तो दूसरी तरफ 'जंजीर', 'दीवार', 'त्रिशूल' और 'शोले' जैसी आक्रोश को व्यक्त करने वाली फिल्में बनीं।
देश में आपातकाल की घोषणा, फिर चुनाव में कांग्रेस की सरकार का केंद्र में पहली बार पतन और फिर अस्थिर राजनीतिक दौर के बाद फिर से कांग्रेस के सत्ता में आने से एक तरह राजनीतिक उथल-पुथल का दौर समाप्त हो चला था। 80 के दशक में एक तरफ राजनीतिक तौर पर स्थिरता का दौर था, सामाजिक जीवन में स्थिरता और शांति थी।
इस दौर में एक तरफ तो मीठे संगीत वाली प्रेम कहानियाँ जैसे 'लव स्टोरी', 'एक दूजे के लिए', 'चश्मेबद्दूर', 'हीरो', 'कयामत से कयामत तक' और 'मैंने प्यार किया' जैसी फिल्में बनी और खूब चलीं। दूसरी तरफ तस्करी और अपराध के साथ ही साथ इस दशक के मध्य से पंजाब और फिर कश्मीर में आतंकवाद की शुरुआत हो चली थी।
तो इस दौर की अधिसंख्य फिल्में कहानी और गीत-संगीत के लिहाज से कमजोर रहीं और हिंसा इस दौर की फिल्मों का मूल तत्व रहा। इसी दौर में 'हुकूमत', 'आग ही आग', 'लोहा', 'वतन के रखवाले', 'तेजाब', 'जान हथेली पर', 'त्रिदेव', 'ऐलान-ए-जंग' जैसी फिल्में बनीं, जिनकी कहानी में आतंकवाद और अपराध केंद्रीय तत्व था। यही सिलसिला 90 के दशक में भी समानांतर चलता रहा।
यूँ 90 का दशक पूरी दुनिया में बदलाव और उथल-पुथल का दौर था। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यह सबसे ज्यादा परिवर्तन का समय था। आतंकवाद के साथ ही देश में अपराध तो बढ़े ही, साथ ही उदारीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत होने से समाज में एक नया वर्ग विकसित होना शुरू हो गया। साथ ही जीवन पर इस प्रक्रिया का असर भी नजर आना शुरू होने लगा।
इस दशक के शुरुआती सालों में तो फिर भी फिल्मों पर बदलाव नजर नहीं आए लेकिन दशक के मध्य से बदलाव स्पष्ट नजर आने लगे। दशक की शुरुआत में तो प्रेम कहानियाँ जैसे 'दिल', 'दीवाना', 'बेटा', 'हम आपके हैं कौन', 'बाजीगर', 'खुदा गवाह', 'फूल और काँटे' और 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे' आदि बनीं। इसके साथ ही हिंसक फिल्में जैसे 'घायल', 'अग्निपथ', 'थानेदार', 'हम', 'अंगार', 'नरसिम्हा', 'तहलका', 'विश्वात्मा', 'खलनायक', 'तिरंगा' और 'क्रांतिवीर' जैसी फिल्में भी बनीं।
दशक के दूसरे हिस्से में आतंकवाद पर कुछ उल्लेखनीय फिल्में बनीं। साथ ही इस हिस्से में उदारीकरण की वजह से हो रहे सामाजिक परिवर्तन भी फिल्मों में नजर आने लगे। 90 के दशक के मध्य में 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे', 'रंगीला', 'कुछ-कुछ होता है', 'आ अब लौट चलें' और 'प्यार तो होना ही था' जैसी फिल्में बनीं, जिनमें आने वाले दौर की फिल्मों की झलक नजर आने लगी।
माता-पिता उदार, हीरोइन कामकाजी और हीरो व हीरोइन दोनों ही बिंदास... लेकिन ठहरिए, अभी एक परिवर्तन आना बाकी है...। नब्बे के दशक के अंतिम सालों में सारे जीवन मूल्य बदलने लगे। जैसा असली जिंदगी में होना शुरू हुआ, वही फिल्मों में भी धीरे-धीरे नजर आने लगा।
नई शताब्दी के शुरुआती सालों में ही फिल्मों में कई सारी धाराएँ एक साथ नजर आने लगीं। एक साथ ही आतंकवाद पर 'मिशन कश्मीर', 'पुकार', 'फिज़ा', 'देव', 'फना' और 'न्यूयॉर्क' जैसी फिल्में बनीं, तो उसी तरह 'कहो ना प्यार है', 'मोहब्बतें', 'साथिया', 'कल हो ना हो', 'चलते-चलते', 'हम तुम' जैसी प्रेम कहानियाँ भी बनी हैं। वहीं 'चक दे इंडिया', 'तारे जमीं पर', 'फैशन', 'लव आजकल' जैसी लीक से हटकर फिल्में भी बनीं।
दूसरे दशक ने तो हिन्दी फिल्मों की कहानी और फिल्मांकन में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया है। इस दौर में हिन्दी फिल्मों में हीरो और हीरोइन दोनों के ही किरदारों में परिवर्तन आया। आमतौर पर किसी भी विश्वविद्यालय या कॉलेज कैंपस में नजर आने वाले युवा की तरह हिन्दी फिल्मों के हीरो-हीरोइन नजर आने लगे हैं। फिल्में भी बहुत कुछ यथार्थवादी और इनके स्वर थोड़े विद्रोही होने लगे। 'माय नेम इज खान', 'देल्ही बैली', 'तनु वेड्स मनु', 'खाप', 'थ्री इडियट्स', 'राजनीति', 'आरक्षण', 'रॉकस्टार' और 'देसी बॉयज' जैसी फिल्में बनी और पसंद की गईं।
कुल मिलाकर बदलते वक्त की छाया हमारी फिल्मों पर हर दौर में दिखाई दी। चाहे वह नवनिर्माण, सपनों, आशाओं और आकांक्षाओं का दौर रहा हो या फिर आदर्शों के टूटने, हताशा और मोहभंग का दौर हो। फिल्मों ने हर वक्त अपने दौर को पर्दे पर साकार किया है। आने वाले समय में फिल्में कैसी होंगी, यह इस पर निर्भर करेगा कि आने वाला समय कैसा होगा।