जोड़ियों के जोड़ीदार

फिल्मी दुनिया में जोड़ियाँ हर दौर में रही हैं। चाहे वो पर्दे पर हो या पर्दे के पीछे... राज कपूर-नरगिस, दिलीप कुमार-मधुबाला, अमिताभ-रेखा, शाहरुख-काजोल और रणवीरसिंह-अनुष्का शर्मा आदि-आदि पर्दे की जोड़ियाँ रही हैं।

इसी प्रकार राज कपूर-मुकेश, देव आनंद-किशोर, राजेश खन्ना-किशोर, आरडी-किशोर, आरडी-गुलजार, राज कपूर-राजू करमाकर और गुरुदत्त-वीके मूर्ति जैसी पर्दे के पीछे की जोड़ियाँ भी रही हैं। चूँकि फिल्म निर्माण टीम वर्क है, इसलिए इसमें कई सारे लोगों की रचनात्मकता और तकनीकी कौशल के साथ पैसा भी लगा होता है।

और जब बात टीम की हो तो इसमें फेवरेटिज्म भी बड़ी मात्रा में होता है। कई बार इतना कि चाहे फरहान अख्तर के बहुत अच्छे एक्टर होने को लेकर विवाद हो लेकिन सदा उनके साथ मिलकर फिल्में प्रोड्‌यूस करने वाले रितेश सिधवानी को उनके हीरो बन बैठने पर भी कोई आपत्ति नहीं होती!


फिल्मी दुनिया में इस तरह के इक्वेशन किसी और दुनिया की तुलना में ज्यादा होती है। इसकी वजह शायद ये हो कि चूँकि इसमें वक्त भी ज्यादा लगता है और पैसा भी, साथ ही इस दुनिया में जोखिम भी ज्यादा हो.. जो भी हो, फिल्मी दुनिया में लगभग हर फिल्मकार के अपने-अपने फेवरिट हुआ करते हैं।

जरूरी नहीं है कि वो पर्दे पर नजर आने वाले हीरो-हीरोइन ही हों, वो प्रोड्‌यूसर-डायरेक्टर, एक्टर-प्रोड्‌यूसर, डायरेक्टर-म्यूजिक डायरेक्टर, डायरेक्टर-सिनेमेटोग्राफर, म्यूजिक डायरेक्टर-लिरिसिस्ट आदि भी हो सकते हैं।

इसमें फेवरिटिज्म उन लोगों के साथ ज्यादा होता है जिनका फिल्म के हिट होने में योगदान ज्यादा होता है। अब ये तो पहले मुर्गी आई या पहले अंडा आया, जैसा विवाद है कि टीम की वजह से फिल्म हिट हुई है या फिर हिट फिल्म की टीम के बीच केमिस्ट्री विकसित हुई है।

पहले कभी फिल्म सिर्फ डायरेक्टर का माध्यम हुआ करती थी, इसलिए डायरेक्टर कैप्टन ऑफ द शिप हुआ करता था और वही तय किया करता था कि किसको फिल्म का हिस्सा बनाना है। उस दौर में डायरेक्टर अच्छे परिणाम के लिए अपनी टीम चुना करते थे।

बॉलीवुड में जोड़ी में काम करने का रिवाज बहुत पुराना है। लेखक सलीम जावेद या फिर संगीतकार जोड़ियाँ हुस्नलाल-भगतराम, शंकर-जयकिशन, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, कल्याणजी-आनंदजी, सोनिक-ओमी, जतिन-ललित, नदीम-श्रवण से लेकर साजिद-वाजिद और सलीम-सुलेमान तक किस तरह से काम करते होंगे, यह समझ नहीं आ पाता है, लेकिन कुछ जोड़ियाँ ऐसी हैं जो फिल्म में स्वाभाविक रूप से उपस्थित पाई जाती हैं।

जैसे राज कपूर की फिल्मों में हर वक्त वही टीम हुआ करती थी : शैलेंद्र, हसरत जयपुरी, शंकर-जयकिशन, राजू करमाकर, मुकेश और लता मंगेशकर के बिना आरके प्रोडक्शन का काम नहीं हुआ करता था। जब मुकेश की मृत्यु हुई तो राज कपूर ने कहा,'मैंने आज अपनी आवाज खो दी।'

असल में टीम में काम करने के दौरान एक तरह की केमिस्ट्री बनती है जिससे आउटपुट बेहतर होता है। फिर खास तौर पर जब मामला रचनात्मक हो तो तब तो केमिस्ट्री और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। आखिर साथ रहने के साथ ही यह बात भी महत्वपूर्ण होती है कि आपका भावनात्मक, रचनात्मक और मानसिक स्तर समान है या नहीं।

आखिर क्यों राज कपूर शैलेंद्र-हसरत, शंकर-जयकिशन, मुकेश-लता के साथ ही कालजयी संगीत रच पाए? जब शैलेंद्र, मुकेश और शंकर-जयकिशन नहीं रहे, तब भी उन्होंने फिल्में बनाई और अच्छा संगीत भी दिया, लेकिन फिर भी राज कपूर की उन्हीं फिल्मों का संगीत याद किया जाता है, जो उनकी उस 'टीम' ने दिया।

हालाँकि इसमें और भी कई तरह के कारण शामिल होते हैं और सबसे बड़ा कारण है सफलता... टीम बनती ही सफलता के आधार पर है। बाद में उसमें केमिस्ट्री भी शामिल हो जाती है। अब विधु विनोद चोपड़ा और राजकुमार हीरानी की टीम का आधार उनकी फिल्मों की सफलता ही तो है।

राजकुमार हीरानी ने फिल्मों में शुरुआत विधु की फिल्म के प्रोमो की एडिटिंग से की थी, फिर 'मिशन कश्मीर' की एडिटिंग के बाद सीधे 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' बनाई, जिसने कमर्शियल फिल्मों को एक नया आयाम दिया। उसके बाद दोनों की जोड़ी ने दो और सफलतम फिल्में 'लगे रहो मुन्नाभाई' और हर दृष्टि से सराही गई 'थ्री इडियट्‌स' फिल्म प्रेमियों को दीं। अब चाहे तो इसके पीछे सफलता एक तत्व मानें या फिर अंधविश्वास कि दोनों साथ में ही काम कर रहे हैं।

इसी तरह की जोड़ी बनी थी करन जौहर और शाहरुख खान की। आदित्य चोपड़ा की 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे' से परिचित हुए शाहरुख और करन ने बाद में 'कुछ-कुछ होता है', 'कभी खुशी कभी गम', 'काल', 'कल हो न हो', 'कभी अलविदा ना कहना' और 'माय नेम इज खान' जैसी फिल्में दी। चाहे करन जौहर ने 'अग्निपथ' के लिए रितिक रोशन को चुना है, लेकिन फिर भी उनकी पहली पसंद हमेशा शाहरुख ही रहे हैं। इसी तरह काजोल उनकी मनपसंद अभिनेत्री हैं।

ठीक वैसे ही जैसे डायरेक्टर सुधीर मिश्रा अपनी फिल्मों में चित्रांगदा सिंह के लिए जगह निकाल ही लेते हैं। अनुराग कश्यप भी कल्कि कोचलिन को बतौर अभिनेत्री पसंद करते हैं, यह अलग बात है कि अब कल्कि उनकी बीवी भी हैं।

सफल फिल्म की टीम सफलता दोहराने के लिए फिर से साथ काम करती है, जैसे रोहित शेट्टी और अजय देवगन, प्रकाश झा और अजय देवगन, मणिरत्नम के साथ सिनेमेटोग्राफर संतोष सिवन, सलमान खान के साथ साजिद-वाजिद, विशाल भारद्वाज के साथ गुलज़ार।

यह सिलसिला सिर्फ यहीं आकर नहीं थमता है। सितारों के व्यक्तिगत मेकअप आर्टिस्ट और डिजाइनर तो हुआ ही करते हैं, लेकिन फिल्मों में भी स्टार्स के ड्रेस डिजाइनर और मेकअप आर्टिस्ट की जोड़ियाँ रिपीट हुआ करती हैं। जैसे करीना कपूर की फिल्मों में उनके डिजाइनर लगभग हमेशा मनीष मल्होत्रा ही होंगे और विद्या बालन सव्यसाची मुखर्जी के डिजाइन किए हुए कपड़े ही पहनेंगी।

यह सिलसिला बहुत नया नहीं है। गुलजार जब फिल्में बनाते थे, तब उनकी टीम में आरडी बर्मन का संगीत ही हुआ करता था, चाहे फिर धुन एक क्लिष्ट-सी नज्म 'मेरा कुछ सामान' की ही क्यों न बनानी हो। गुलजार की फिल्मों ने ही जितेंद्र को एक एक्टर के बतौर स्थापित किया था। उनके साथ संजीव कुमार की टीम हुआ करती थी।

कुल मिलाकर मामला यूँ है कि फिल्म निर्माण जैसे सृजनात्मक कर्म में जिसमें कि समय, श्रम और पूँजी सभी अपेक्षाकृत ज्यादा लगते हैं, लाइक माइंडेड लोगों की टीम ज्यादा अच्छे परिणाम दे सकती है। चूँकि इसमें तकनीकी और सृजनात्मक दोनों ही पक्ष एक ही जैसा महत्व रखते हैं, इसलिए भी पसंदीदा टीम में काम करना गुणवत्ता के लिए जरूरी समझा जाता है। आप इसे चाहे जो कह लें, टीम-वर्क या फिर फेवरेटिज्म... लेकिन लक्ष्य है बेहतरीन उत्पाद और यह सिर्फ फिल्म का ही नहीं हर जगह का सच है...।

- विनिता गोस्वामी

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