चाहे पंडित-मुल्ला कुछ भी कहें सलमान खान अपने घर में गणपति बैठाते हैं और बाकायदा पूरे अनुष्ठान के साथ उनकी खातिरदारी करते हैं। वे ईद भी मनाते हैं और क्रिसमस भी...। फिर सिर्फ वे ही क्यों शाहरुख खान भी दिवाली मनाते हैं बड़ी-सी पार्टी देकर। हकीकत में इस देश की गंगा-जमुनी तहजीब यदि कहीं दिखाई देती है तो वो है हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री... ।
यहाँ हर स्तर पर समानता नजर आती हैं। धर्म, जाति, उम्र या लिंग तो छोड़ ही दीजिए यहाँ राष्ट्रीयता का सवाल भी हाशिए पर ही होता है। व्यावसायिक तौर पर तो खैर ये एप्रोच जरूरी है ही, लेकिन सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर भी ये एप्रोच यहाँ का सच है। और ये कोई आज की बात नहीं है, बल्कि सालो-साल से यह परंपरा इस इंडस्ट्री की विशेषता है।
हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री को सही मायनों में सेक्यूलर कहा जा सकता है। एक तो किसी भी फिल्म के निर्माण में इतने सारे लोग होते हैं कि उनमें हर धर्म, जाति, क्षेत्र और संप्रदाय के लोग काम करते हैं। इस दुनिया में कई अलग-अलग तरह के कामों की जरूरत होती है और उसी के अनुरूप लोगों की भी। फिल्म निर्माण एक ही साथ रचनात्मक कर्म भी है और तकनीकी भी, तो जाहिर है यहाँ धर्म, भाषा, जाति, संप्रदाय और क्षेत्र के प्रश्न उठते ही नहीं हैं।
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यहाँ एक ही धर्म है और वो है सफलता... किसी भी कीमत पर बस सफलता। और इस धर्म के इर्द-गिर्द और कोई धर्म कभी टिक ही नहीं सकता है। तभी तो यहाँ के रिश्तों का स्वरूप भी वैसा ही है तरल, प्रवाहमान, बिना किसी गाँठ-पत्थर के बहते हुए-से। राजनीति की तरह ही व्यावसायिक दुनिया में कोई स्थायी दोस्त और कोई स्थायी दुश्मन नहीं होता है। इस दुनिया के रिश्तों का सीधा-सा हिसाब या तो दिल है या फिर दौलत...।
जब मामला काम का हो तो पूरा-का-पूरा ध्यान काम की गुणवत्ता मतलब फिल्म की सफलता पर होता है (अब सफलता और गुणवत्ता कहाँ तक साथ-साथ चलती है, इस पर यहाँ चर्चा करने का कोई मतलब नहीं है)। फिर ये नहीं देखा जाता है कि काम करने वाले कौन हैं। इसी तरह इंडस्ट्री के परिवारों में भी दुनिया के सारे रंग देखने को मिल जाते हैं। चाहे हमारी दुनिया में ये अब उतना असामान्य नहीं रहा है, लेकिन फिल्मी दुनिया में ये कभी भी असामान्य नहीं रहा। जब शशि कपूर ने जेनिफर कैंडल से शादी की तब भी नहीं और अभी-अभी जब रितेश देशमुख ने जेनेलिया डिसूजा से शादी की तब भी नहीं।
फिल्मी दुनिया में कितने परिवार ऐसे हैं, जहाँ अंतरजातीय और अंतरराष्ट्रीय शादियाँ हुई हैं। शशि कपूर-जेनिफर कैंडल इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं। कुछ परिवार तो ऐसे हैं, जहाँ यह परंपरा पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ती रहती है। सलमान खान का परिवार इसका प्रतिनिधि उदाहरण है।
सलमान के पिता सलीम खान ने पहले हिन्दू लड़की सुशीला चरक के शादी की जिन्हें सलमा नाम दिया गया। बाद में हेलन से शादी की। इसी परंपरा को आगे बढ़ाया सलमान के भाइयों अरबाज़ और सोहैल ने। अरबाज ने पंजाबी-क्रिश्चियन लड़की मलाइका अरोड़ा से शादी की तो सोहैल ने सीमा सचदेव से, बेटी अलविरा खान ने अतुल अग्निहोत्री से शादी की तो सलीम खान ने अर्पिता नाम की एक हिन्दू लड़की को भी गोद लिया।
सुनील दत्त के परिवार में भी यही क्रम चलता रहा। सुनील दत्त ने नरगिस से शादी की। संजय ने पहले ऋचा शर्मा से शादी की, लेकिन ऋचा की जल्दी ही मृत्यु हो गई। बाद में कई हीरोइनों से उनके अफेयर की चर्चा चलती रही और अंत में उन्होंने मान्यता उर्फ दिलनवाज शेख से शादी की।
साथ काम करते हुए प्यार होना तो खैर बहुत साधारण बात है। नसीरुद्दीन शाह-रत्ना पाठक, पंकज कपूर-नीलिमा अजीम, राज बब्बर-नादिरा जहीर, खय्याम-जगजीत कौर, किशोर कुमार-मधुबाला, जावेद अख्तर-हनी ईरानी, अर्जुन रामपाल-मेहर जेसिया, आमिर खान और किरण राव जैसे साथ-साथ काम करने वालों के बीच के रिश्ते हों या फिर फिल्मी परिवारों में ही एक ही से परिवेश से संपर्क में आने के उदाहरण जैसे रितिक रोशन-सुजैन खान का उदाहरण।
बल्कि ये कहना कि ये अंतरधार्मिक विवाह आम जिंदगियों में चाहे उतने सामान्य न हो, लेकिन फिल्मी दुनिया में हर दूसरे परिवार में यही होता आया है, होता रहा है और होता रहेगा। फिल्मी और गैर-फिल्मी जोड़ों में भी अंतरधार्मिक विवाह बहुत आम हैं।
फिरोज खान के परिवार में यही क्रम चल रहा है। फिरोज खान ने सुंदरी से विवाह किया और फरदीन ने नताशा माधवानी से...। ऐसे अंतरधार्मिक विवाह भी हुए हैं जिनमें एक पार्टनर फिल्मी दुनिया से संबंधित है और दूसरे का संबंध इस दुनिया से जरा सा भी नहीं हैं।
जैसे फिरोज खान-सुंदरी, मुमताज-मयूर माधवानी, फरदीन खान-नताशा माधवानी, जाएद खान-मल्लिका पारेख, फारुख शेख-रूपा जैन, वहीदा रहमान-कमलजीत, फरहान अख्तर-अधुना भावानी, आमिर खान-रीना दत्ता, शाहरुख खान-गौरी छिब्बर, सुनील शेट्टी-माना कादरी, शर्मिला टैगोर-मंसूर अली खाँ पटौदी और इमरान खान-अवंतिका...। और अंतरधार्मिक विवाहों का ये सिलसिला यहीं खत्म नहीं हो रहा है, अभी इसी कतार में कई कपल इंतजार कर रहे हैं जैसे सैफ-करीना और कुणाल-सोहा...।
असल में शायद उस दुनिया में धर्म और जाति पर विचार ही नहीं किया जाता है। हाँ, सुरैया और देव आनंद जैसे संकीर्ण मामले भी हुआ करते हैं, लेकिन वह बहुत कम हैं। आमतौर फिल्मी दुनिया इस तरह की संकीर्णताओं से ऊपर ही हुआ करती है।