बैचलर पार्टी, रोड ट्रिप, एडवेंचर स्पोर्ट्स, स्कूल-कॉलेज के दोस्तों के साथ गप्पे हांकना ऐसी बाते हैं जो हर उम्र और वर्ग के लोगों को पसंद आती है। कुछ उस दौर से गुजर रहे होते हैं और कुछ को बीते दिन याद आ जाते हैं। इसी को आधार बनाकर जोया अख्तर ने ‘जिंदगी ना मिलेगी दोबारा’ फिल्म बनाई है।
कुछ इसी तरह की फिल्म जोया के भाई फरहान अखतर ने भी दस वर्ष पहले ‘दिल चाहता है’ नाम से बनाई थी। जोया की फिल्म अपने भाई की फिल्म के स्तर तक तो नहीं पहुंची है, लेकिन दोस्ती, प्यार, जिंदगी के प्रति नजरिया, जीवन जीने का स्टाइल जैसी बातों को उन्होंने अपनी फिल्म के जरिये अच्छी तरह से पेश किया है। अगर वे अपने द्वारा फिल्माए गए दृश्यों को छोटा करने की या काटने की हिम्मत दिखाती तो दर्शक भी कुछ जगह बोर होने से बच जाते और फिल्म में भी चुस्ती आ जाती।
कहानी तीन दोस्तों की है। कबीर (अभय देओल) की नताशा (कल्कि कोचलिन) से शादी होने वाली है। शादी के पहले वह अपने दो दोस्तों इमरान (फरहान अख्तर) और अर्जुन (रितिक रोशन) के साथ स्पेन में लंबी रोड ट्रिप पर जाता है।
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तीनों का मिजाज, जिंदगी के प्रति नजरिया बिलकुल अलग है। इमरान अभी भी बड़ा नहीं हुआ है। स्कूल-कॉलेज वाली हरकतें अभी भी जारी है। लगता है कि जिंदगी के प्रति गंभीर नहीं है। दूसरी ओर अर्जुन परिपक्व हो चुका है। 40 वर्ष की उम्र तक वह ढेर सारा पैसा कमा लेना चाहता है ताकि बाद में रिटायर होकर जिंदगी का मजा लूट सके। कबीर अपने संकोची स्वभाव के कारण परेशान रहता है।
इस बाहरी यात्रा के साथ तीनों किरदार आंतरिक यात्रा भी करते हैं। उनकी मुलाकात खुद से होती है। साथ ही वे कुछ लोगों से मिलते हैं, कुछ घटनाएँ उनके साथ घटती है जिसके जरिये उन्हें अपने आपको समझने का अवसर मिलता है। वे सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं या नहीं, इस बात से वे रूबरू होते हैं।
रितिक रोशन वाला ट्रेक इन सबमें उम्दा है। रितिक का जिंदगी के प्रति नजरिया और उसमें बदलाव तर्कसंगत है। फरहान अख्तर की कहानी में उनके पिता वाला ट्रैक कमजोर है, लेकिन फरहान का मस्तमौला किरदार इस बात को ढंक देता है। अभय देओल की कहानी ठीक है।
चंद लाइनों की कहानी में, जिसमें ज्यादा घुमाव-फिराव नहीं होते हैं, स्क्रीनप्ले का रोल बहुत महत्वपूर्ण होता है। कहानी बहुत धीमे आगे बढ़ती है और बीच की जगह को भरने के लिए सशक्त दृश्यों की जरूरत पड़ती है। संवाद भी असरदायक होना चाहिए क्योंकि पात्रों के मन में क्या चल रहा है यह संवादों से ही पता चलता है। ‘जिंदगी ना मिलेगी दोबारा’ इस कसौटी पर कुछ हद तक खरी उतरती है।
पहले हाफ में कई दृश्य उम्दा बन पड़े हैं। इंटरवल के बाद फिल्म कई जगह पटरी से उतरती है क्योंकि दृश्यों को लंबा खींचा गया है। खासतौर पर एडवेंचर स्पोर्ट्स के सीन लंबे हो गए हैं। फिल्म का अंत भी कुछ लोगों को चौंका सकता है क्योंकि आकस्मिक रूप से फिल्म खत्म हो जाती है, लेकिन बात को समाप्त करने का यही सबसे उचित तरीका है।
निर्देशक के रूप में जोया अख्तर प्रभावित करती हैं। उन्होंने बड़े ही इत्मीनान और ठहराव के साथ अपनी बात सामने रखी है। हर किरदार की खूबी और कमजोरी को उन्होंने बखूबी परदे पर पेश किया है। कुछ सीन उन्होंने शानदार तरीके से फिल्माए हैं खासतौर पर रितिक और कैटरीना कैफ के चुंबन दृश्य के लिए जो उन्होंने सिचुएशन पैदा की है वो लाजवाब है। फिल्म को संपादित करने की हिम्मत वे दिखाती तो फिल्म में पैनापन बढ़ सकता था।
रितिक रोशन न केवल हैंडसम लगे बल्कि उन्होंने अपने पात्र की बारीकियों को अच्छे से पकड़ा है। फरहान अख्तर ने अपने अभिनय के जरिये अपने पात्र को बेहद मनोरंजक बनाया है। अभय देओल का किरदार रितिक और फरहान की तुलना में थोड़ा दबा हुआ है, लेकिन उन्होंने अपनी छटपाहट को अच्छे से पेश किया है।
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कैटरीना कैफ की एक्टिंग इस फिल्म का सरप्राइज हैं। उनका स्क्रीन प्रजेंस जबरदस्त है और जब-जब वे स्क्रीन पर नहीं दिखती हैं उनकी कमी महसूस होती है। उनके रोल को लंबा किया जा सकता था। कल्कि और छोटे से रोल में नसीरुद्दीन शाह प्रभावित करते हैं। शंकर-अहसान-लॉय का संगीत फिल्म के मूड को मैच करता है। कार्लोस कैटेलन ने स्पेन की खूबसूरती को बखूबी कैमरे में कैद किया है।
‘जिंदगी ना मिलेगी दोबारा’ जिंदगी के प्रति सोच को सकारात्मक करने में मददगार साबित होती है।