बाटला हाउस में हुए एनकाउंटर पर फिल्म बनाने के लिए लेखक रितेश शाह और निर्देशक निखिल आडवाणी के पास 50 मिनट का कंटेंट मौजूद था। इस पर उन्होंने 146 मिनट की फिल्म बना डाली। यही बात काफी है यह समझाने के लिए कि फिल्म किस तरह की होगी।
फिल्म के आखिरी घंटे में नोरा फतेही के किरदार की एंट्री होती है और वहां से फिल्म देखते हुए उंघते दर्शक की नींद खुलती है और उसकी फिल्म में रूचि जागती है। इसके पहले जो दिखाया जा रहा था वो समझ ही नहीं आ रहा था कि क्यों दिखाया जा रहा है।
2008 में दिल्ली स्थित बाटला हाउस में एक एनकाउंटर हुआ था जिसमें दो युवकों की मौत हो गई थी। दिल्ली पुलिस ने इन्हें आतंकवादी बताया था जबकि कुछ लोगों का कहना था कि ये मासूम छात्र थे। देश में हुए विभिन्न विस्फोटों के कारण पुलिस पर दबाव था इसलिए उन्होंने फर्जी एनकाउंटर कर दो लोगों को मार डाला और उन्हें आतंकवादी बता डाला।
इस मामले पर राजनीति हुई। मीडिया में यह मामला खासा सुर्खियों में रहा। एनकाउंटर करने वाले ऑफिसर्स को अदालत में जवाब देना पड़े। एक पुलिस ऑफिस संजीव कुमार (जिनकी भूमिका जॉन अब्राहम ने निभाई है) इतने तनाव में थे कि आत्महत्या करने का विचार भी उनके मन में आया था। तनाव उनके पारिवारिक जीवन में भी था और प्रोफेशनल लाइफ में भी।
फिल्म बाटला हाउस का पहला हिस्सा बेहद उबाऊ है। शुरुआत अच्छी होती है जब एनकाउंटर होता है। दो आतंकवादी मारे जाते हैं और एक पुलिस ऑफिसर को भी जान से हाथ धोना पड़ता है। इसके बाद फिल्म अजीब से चक्र में फंस जाती है।
इस एनकाउंटर को फर्जी बताया जाता है और संजीव कुमार उलझनों में फंस जाते हैं। उनकी इस उलझन को इतने उलझनपूर्ण तरीके से दिखाया गया है कि खुद दर्शक उलझ जाते हैं। उनके पल्ले ही नहीं पड़ता कि क्या हो रहा है।
एनकाउंटर क्यों किया गया? कैसे पुलिस को शक हुआ? पुलिस के पास उनको आतंकवादी कहने का आधार क्या था? वे युवक कौन थे? ये प्रश्न दर्शक को परेशान करते हैं क्योंकि इसका जवाब ही फिल्म में लंबे समय तक नहीं मिलता।
जब जवाब सामने आते हैं तब तक दर्शकों का धैर्य जवाब दे जाता है और फिल्म में रूचि भी खत्म हो जाती है।
इंटरवल के पहले बेमतलब के दृश्यों से फिल्म को भरा गया है। संजीव कुमार और उनकी पत्नी में नहीं बन रही है यह बात एक या दो दृश्यों से स्पष्ट हो जाती है, लेकिन बार-बार इस बात को पेश कर के कोई मतलब नहीं है। संजीव के खिलाफ जांच और विरोध को भी निर्देशक ठीक से पेश नहीं कर पाए और इस कारण फिल्म से जुड़ाव पैदा नहीं होता।
इस तरह की फिल्म कैसे बनाई जानी चाहिए इसके लिए निखिल आडवाणी को 'तलवार' जैसी फिल्म देखना चाहिए। केवल फिल्म में तनाव पैदा करने से ही बात नहीं बन जाती और बाटला हाउस में यह तनाव तो फिजूल का लगता है।
इस तरह की फिल्म में आइटम सांग भी अखरता है और यह निर्देशक की दुविधा को दर्शाता है कि वह कमर्शियल फिल्म का मोह छोड़ने को भी तैयार नहीं है।
फिल्म की सपोर्टिंग कास्ट भी दमदार नहीं है। लोकप्रिय चेहरों की जरूरत महसूस होती है। पूरा भार जॉन अब्राहम पर आ गया है। अब जॉन कितने अच्छे एक्टर हैं यह बताने की जरूरत नहीं है।
वे 'परमाणु' के अश्वत रैना बनें या 'सत्यमेव जयते' के वीरेन्द्र राठौर या फिर 'बाटला हाउस' के संजीव कुमार, सभी रोल वे एक जैसे ही निभाते हैं। उनका एक्सप्रेशन लैस चेहरा हर सीन में खप नहीं सकता और कई बार दृश्य उनकी कमजोर एक्टिंग के कारण ही फीके पड़ जाते हैं।
मृणाल ठाकुर के लिए करने को कम था, लेकिन जो कुछ मिला उन्होंने अच्छे से किया। रविकिशन छोटे-से रोल में अपना असर छोड़ते हैं। अन्य कलाकारों के लिए करने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था।
बाटला हाउस भी बॉलीवुड की उन फिल्मों की तरह है जो एक अच्छे विषय के साथ न्याय नहीं कर पाती।
बैनर : टी-सीरिज़ सुपर कैसेट्स इंडस्ट्री लि., एम्मे एंटरटनेमेंट प्रा. लि., जेए एंटरटेनमेंट प्रा.लि., बेक माय केक फिल्म प्रोडक्शन
निर्माता : भूषण कुमार, मोनिषा आडवाणी, कृष्ण कुमार, जॉन अब्राहम, मधु भोजवानी, संदीप लिज़ेल, दिव्या खोसला कुमार