कोड नेम तिरंगा फिल्म समीक्षा: दर्शकों के लिए असफल मिशन

परिणिति चोपड़ा इतनी बड़ी स्टार नहीं हैं कि उनको लीड रोल में लेकर 'टाइगर जिंदा है', 'एक था टाइगर' या 'बेबी' जैसी फिल्म बनाई जाए। 'कोड नेम तिरंगा' में परिणिति सीक्रेट सर्विस एजेंट बनी हैं जो रॉ के लिए काम करती है।  
 
सीक्रेट एजेंट है तो मिशन तो होगा ही, तो दुर्गा नामक यह सीक्रेट एजेंट अफगानिस्तान में इस्मत बन कर जाती है और अपनी पहचान बताए बिना डॉ. मिर्जा अली (हार्डी संधू) से शादी कर लेती है। 
 
अली साहब अपनी पत्नी को एक बार गोली चलाते और एक्शन करते देख लेते हैं तो पत्नी को छोड़ देते हैं।  
 
अब दुर्गा तुर्की एक मिशन पर जाती हैं और एक बार फिर अली से मुलाकात होती है। खालिद ओमर (शरद केलकर) नामक आतंकी को पकड़ना है। क्या दुर्गा का मिशन सफल होगा? 
 
मिशन वाली कहानी में अंत में क्या होगा, आपका अनुमान ज्यादातर सही निकलता है। रोमांच इस बात में रहता है कि यह कैसे होगा? यही पर आकर 'कोड नेम तिरंगा' फेल हो जाती है। 
 
फिल्म की कहानी और स्क्रीनप्ले इतना रूटीन है कि आपको पता रहता है कि अब ये होने वाला है, अब वो होने वाला है और वैसा ही होता है। जरा भी रोमांच नहीं है। 
 
असल में रोमांच की सीमा में 'कोड नेम तिरंगा' जाती ही नहीं, बोरियत की सीमा में ही घूमती रहती है। निर्देशक रिभु दासगुप्ता एक्शन और सस्पेंस से दर्शकों को बहलाने की कोशिश की है, लेकिन जब ड्रामा ही इतना डल हो तो सस्पेंस और एक्शन धरे रह जाते हैं। 
 
परिणिति ने खूब कोशिश की है, लेकिन बात नहीं बनी। ऐसा लगता है कि उन्होंने इस रोल के लिए खास तैयारी ही नहीं की। परिणिति के किरदार पर इतना फोकस किया गया है कि हार्डी संधू, शरद केलकर द्वारा निभाए गए किरदारों को उभरने का मौका ही नहीं मिला जिससे फिल्म को ही नुकसान हुआ। ये दोनों कलाकार अपनी एक्टिंग से निराश करते हैं। 
 
रजित कपूर, सब्यासाची चक्रवर्ती, द्वियेन्दु भट्टाचार्य जैसे कलाकार भी सपोर्टिंग रोल में हैं, लेकिन उनसे अच्छा काम नहीं लिया गया है। एक्शन फिल्म होने के बावजूद एक्शन रूटीन है। संगीत और तकनीकी पक्ष औसत दर्जे के हैं।  
 
कुल मिलाकर 'कोड नेम तिरंगा' में दर्शकों के लिए कुछ भी नहीं है। 
 

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