1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए दंगों पर आधारित कुछ फिल्में और वेबसीरिज बन चुकी हैं, इनमें 'ग्रहण' नामक वेबसीरिज उल्लेखनीय है। 'सुल्तान' और 'टाइगर जिंदा है' जैसी ब्लॉकबस्टर फिल्म बना चुके अली अब्बास ज़फर ने इसी विषय पर आधारित मूवी 'जोगी' बनाई है जो नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई है।
फिल्म में घटना वास्तविक है जिसमें कुछ काल्पनिक पात्र और घटनाएं डाल कर उस दौरान पैदा हुई भयावह स्थिति को दर्शाया गया है। कहानी एक बहादुर सिख जोगी (दिलजीत दोसांझ) की है। दंगे वाले दिन अचानक उससे कुछ लोग नाराज हो जाते हैं और उसकी जान के प्यासे हो जाते हैं।
लोग सिखों को चुन-चुन कर मारते हैं और आग में घी डालने का काम स्थानीय एमएलए (कुमुद मिश्रा) करता है जब वह पुलिस को आर्डर देता है कि सिखों को ढूंढ कर उनकी हत्या कर दी जाए। जोगी सिखों की जान बचाने में जुट जाता है और इस काम में उसकी मदद हिंदू पुलिस ऑफिसर रविंदर (मोहम्मद ज़ीशान अय्यूब) भी करता है।
कहानी अली अब्बास ज़फर और सुखमणि सदाना ने लिखी है। कहानी का फोकस जोगी की बहादुरी पर ज्यादा है और सिखों के खिलाफ हुए दंगों की तह में जाने पर कम है। अली ने भले ही यह फिल्म ओटीटी के लिए बनाई हो, लेकिन कहानी लिखने में वे बॉलीवुड लटके-झटके से परहेज नहीं कर पाए और यह बात फिल्म देखते समय अखरती है।
जोगी की लव स्टोरी दिखाने की जरूरत नहीं थी और दिखाई भी तो इसका कोई प्रभाव दर्शकों पर नहीं छूटता। फिल्म भागती हुई लगती है, लेकिन हकीकत ये है कि शुरुआती आधा घंटा बहुत धीमा है।
बेहतर होता फिल्म के लेखक शोध कर कुछ ऐसी बातें दर्शाते जिनके बारे में ज्यादा लोग नहीं जानते तो बेहतर होता। असली घटनाओं की पृष्ठभूमि पर काल्पनिक किरदारों को लेकर अली अब्बास ज़फर 'भारत' नामक फिल्म भी बना चुके हैं जिसमें सलमान खान लीड रोल में थे। इसी काम को उन्होंने 'जोगी' में भी दोहराया है।
जोगी का सबसे बड़ा प्लस पाइंट है दिलजीत दोसांझ का अभिनय। जोगी के किरदार में उन्होंने अपनी एक्टिंग से जान फूंक दी है। उनका गुस्सा, झुंझलाहट, बॉडी लैंग्वेज देखने लायक है। मोहम्मद ज़ीशान अय्यूब ने दिलजीत का साथ अच्छे से निभाया है। कुमुद मिश्रा की एक्टिंग के जरिये अपनी छाप छोड़ते हैं। अमायरा दस्तूर का रोल छोटा था। अन्य कलाकारों का काम भी सराहनीय है।