दोबारा फिल्म समीक्षा: वक्त के जंगल में खोया एक बंजारा

समय ताम्रकर

शुक्रवार, 19 अगस्त 2022 (15:57 IST)
स्पैनिश फिल्मकार ओरिओल पाउलो द्वारा बनाई गई क्राइम-ड्रामा मूवीज़ बॉलीवुड को खासी पसंद आ रही हैं। उनके द्वारा बनाई गई स्पैनिश फिल्मों के हिंदी रीमेक बदला (अमिताभ-तापसी) और द बॉडी (इमरान हाशमी, ऋषि कपूर) के रूप में बन चुके हैं और अब निर्देशक अनुराग कश्यप ने पाउलो की फिल्म 'मिराज' का हिंदी रीमेक 'दोबारा' नाम से बनाया है। 
 
फिल्म की कहानी में कई परतें हैं। एक मर्डर है, टाइम ट्रैवल है, घर तोड़ने वाली महिला है, बेवफा पति है, एक बच्चा है जिसकी कोई बात नहीं समझता और एक महिला है जिसके साथ ऐसा कुछ होता है कि उसे कुछ समझ नहीं आता। इन सभी किरदारों की जिंदगी आपस में जुड़ी होती है। 
 
अंतरा (तापसी पन्नू) अपने पति और बेटी के साथ पुणे स्थित एक नए घर में शिफ्ट होती है। वहां पर उसे पुराने जमाने का टीवी, कैमरा और कैसेट्स मिलते हैं। जब कैसेट प्ले की जाती है तो टीवी में एक बच्चा नजर आता है। यह रिकॉर्डिंग 1996 की है। अचानक वह बच्चा अंतरा से बात करता है। अंतरा उसकी मदद करती है। अतीत में की गई मदद अंतरा का वर्तमान बदल देती है और उसकी दुनिया उलट-पुलट हो जाती है। कैसे वह इस स्थिति से निकलती है, ये फिल्म में दर्शाया गया है। 
 
फिल्म शुरुआत के 15 मिनट बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं करती है, लेकिन जैसे ही तापसी पन्नू की एंट्री होती है फिल्म दर्शकों पर पकड़ बना लेती है। दर्शकों का हाल तापसी के किरदार जैसा रहता है जिसे कुछ समझ में नहीं आता कि उसके साथ हो क्या रहा है? उसकी बात कोई मान क्यों नहीं रहा है? वह विभिन्न डॉट्स को जोड़ने की कोशिश करती है और यही गेम दर्शकों के दिमाग में भी चलता है। 
 
धीरे-धीरे फिल्म में राज खुलते जाते हैं कि ये क्यों हो रहा है, वैसे-वैसे आप फिल्म से जुड़ते चले जाते हैं। फिल्म 1996 और 2021 में बार-बार छलांग लगाती रहती है। मल्टीयूनिवर्स का आभास कराती है। किसी किरदार का अस्तित्व है या नहीं, ये आयाम भी आ जुड़ता है जो ड्रामे में दिलचस्पी पैदा करता है।
 
फिल्म देखते समय दर्शकों के दिमाग में कई सवाल पैदा होते हैं, जिनमें से कुछ के जवाब समय आने पर मिलते हैं और कुछ के उत्तर नहीं मिलते क्योंकि फिल्म कल्पना और वास्तविकता का मिश्रण है। फिल्म आपको अलर्ट होकर देखना पड़ती है और कई बातें याद रखना पड़ती है और यही से गेसिंग गेम भी शुरू हो जाता है। 
 
फिल्म में कुछ खामियां भी हैं, जैसे कोई भी किरदार किसी के घर में आसानी से घुस जाता है। गलत काम दरवाजे खुले रख कर ही होते हैं। कुछ बातें जल्दबाजी में निपटाई गई है।  
 
फिल्म का निर्देशन अनुराग कश्यप ने किया है। वे काबिल निर्देशक हैं और उन्हें बजाय रीमेक के, मौलिक काम ही करना चाहिए। अनुराग के नाम से जितनी उम्मीद पैदा होती है उस पर वे खरे नहीं उतरते। वे इस फिल्म को और बेहतर बना सकते थे। दरअसल फिल्म की कहानी इतनी पॉवरफुल है कि फिल्म के कई ऐब इसमें छिप जाते हैं। कुछ नामी चेहरे यदि लिए गए होते तो फिल्म ज्यादा दर्शकों के समझ में आती।  
 
तापसी पन्नू लीड रोल में हैं और अपनी अदाकारी से प्रभावित करती हैं। राहुल भट्ट और शाश्वत चटर्जी की एक्टिंग दमदार है। पवैल गुलाटी का अभिनय भी ठीक है।
 
ऐसी फिल्म का संपादन करना बहुत मुश्किल काम है और यहां पर आरती बजाज की एडिटिंग की दाद देनी होगी। उनकी शानदार एडिटिंग ने ही अनुराग का काम बहुत आसान किया है। शोर पुलिस का बैकग्राउंड म्यूजिक बढ़िया है।  
 
'दोबारा' में भले ही कुछ खामियां हैं, लेकिन चौंकाने वाले उतार-चढ़ाव पूरी फिल्म में बैठाए रखते हैं। 

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