केजीएफ चेप्टर 1 :‍ फिल्म समीक्षा

मल्टीप्लेक्स के आने के बाद उस तरह की बी-ग्रेड फिल्में बनना बंद हो गई जिनमें बड़े स्टार्स नजर आते थे। अस्सी और नब्बे के दशक में इस तरह की फिल्में खूब बनती थी। इंसानियत के दुश्मन, मर्द, गंगा जमुना सरस्वती, बदले की आग जैसी बी-ग्रेड फिल्मों का न केवल बजट बड़ा हुआ करता था बल्कि इसमें अमिताभ बच्चन और धर्मेन्द्र जैसे सितारे भी नजर आते थे। 
 
2018 में आश्चर्यजनक रूप से इस तरह की फिल्में फिर देखने को मिली। सलमान खान की रेस 3, आमिर खान की ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान के बाद 'कोलार गोल्ड फील्ड्‍स : चेप्टर 1' भी इसी श्रेणी की फिल्म है। मूलत: यह कन्नड़ भाषा में बनी है जिसे हिंदी में डब कर रिलीज किया गया है। 
 
कहानी 1950 से 1981 के बीच की है। एक तरफ खलनायकों को सोने की खदान हाथ लगती है तो दूसरी ओर राजा कृष्णाप्पा बेरिया उर्फ रॉकी (यश) का जन्म होता है। मुंबई की गलियों रॉकी पलता-बढ़ता है। लगभग दस साल की उम्र में उसकी मां गरीबी के कारण दम तोड़ देती है, लेकिन मरने के पहले रॉकी को कहती है कि तू गरीबी में भले ही पैदा हुआ हो, लेकिन मरना अमीरी में। मां की बात को रॉकी गांठ बांध लेता है और अपराध जगत में एक बड़ा नाम बन जाता है। 
 
रॉकी एक तूफान है। यदि दुश्मन आग है तो वह पेट्रोल है। उसके एक मुक्के में इतना दम है कि किसी को जमा दे तो वह सैकड़ों फीट उछल जाए। पच्चीस-पचास मुस्टंडों के लिए वह अकेला ही काफी है। पल भर में वह लाशों का ढेर बिछा देता है। रॉकी की तारीफ सुन कर उसे बैंगलोर बुलाया जाता है और गरुडा नामक बदमाश को मारने का जिम्मा सौंपा जाता है जिसकी खदान है। 
 
बैंगलोर में रॉकी उसे मारने में नाकामयाब रहता है। वह कोलार जाकर उसी के घर में उसे मारने का फैसला लेता है। गरुडा का अपना इतिहास है। उसके पिता का बड़ा साम्राज्य है जिस पर कई लोगों की नजर है। 
 
निर्देशक प्रशांत नील ने ही कहानी लिखी है। उन पर बाहुबली और गैंग्स ऑफ वासेपुर का प्रभाव नजर आता है। बाहुबली की तरह जहां गरुडा का परिवार सोने की खदान पर हक जमाने के षड्यंत्र रचता है वहीं गैंग्स ऑफ वासेपुर की तरह फिल्म का मिजाज रखा गया है। कोलार में एक अलग ही दुनिया नजर आती है जहां मजदूरों पर जुल्म कर उनसे काम कराया जाता है। यह जुल्म क्यों किया जाता है, इसका जवाब फिल्म में नहीं मिलता। 
 
इस फिल्म में लीड रोल निभाया है यश ने। यश अपनी रोमांटिक हीरो की इमेज से बाहर निकलते हुए एक हेवी-ड्यूटी एक्शन हीरो के अवतार में नजर आते हैं। फिल्म का पहला एक घंटा रॉकी की छवि को बनाने में खर्च किया गया है। हर जगह वह मार-काट मचाता रहता है। सिगरेट का धुआं उड़ाता है और शराब गटकता रहता है। स्लो मोशन में उसके कई स्टाइलिश शॉट नजर आते हैं। वह स्क्रीन पर नहीं भी हो तो लोग उसकी तारीफ के कसीदे गढ़ते रहते हैं। 
 
निर्देशक प्रशांत नील ने कहानी को सीधे तरीके से कहने के बजाय खूब घूमा-फिराकर अपनी बात कही है। रॉकी की कहानी एक लेखक, टीवी पत्रकार को सुना रहा है। फिल्म कई बार फ्लैश बैक में जाती है। कहानी में कहानी सुनाई जाती है। चूंकि यह फिल्म का पहला भाग है इसलिए कई बार दूसरे भाग की झलक दिखाई गई है। यह सब कुछ कन्फ्यूजन को बढ़ाता है। शायद प्रशांत ने यह जानबूझ कर किया है क्योंकि पूरी फिल्म उन्होंने इसी तरह से बनाई है। 
 
प्रशांत का दूसरा फोकस एक्शन पर रहा है। फिल्म में हिंसा की भरमार है। हर दूसरे मिनट मारकाट मचती रहती है। गाजर-मूली की तरह लोगों को काटा गया है। हथौड़ा, चेन, चाकू, रॉड, तलवार, फावड़ा से खून बहाने से मन नहीं भरा तो बंदूक और मशीनगन का इस्तेमाल भी किया गया है। एक्शन का यह ओवरडोज़ बहुत कहानी, स्क्रिप्ट, एक्टिंग पर भी भारी पड़ गया है। 
 
फिल्म की कलर स्कीम बेहद डार्क है। ब्राउन और ब्लैक का बहुत ज्यादा इस्तेमाल किया गया है। ज्यादातर शॉट्स बहुत कम लाइट में शूट किए गए हैं। स्क्रीन पर ज्यादातर समय अंधेरा छाया रहता है। बहुत ज्यादा कट्स लगाए गए हैं। तीन-चार सेकंड से ज्यादा एक शॉट टिकता नहीं है। 
 
कलाकारों के गेटअप भी इस तरह के हैं कि वे गंदे नजर आते हैं। बेतरतीब लंबे बाल और दाढ़ी। काले कपड़े। रात में भी आंखों पर काला चश्मा चढ़ाए हुए। ऐसा लगता है कि वे महीनों से नहाए नहीं हैं और न ही उन्होंने ब्रश किया है। पूरी फिल्म को रफ-टफ और एक अलग ही लुक प्रशांत ने दिया है। निश्चित रूप से यह कुछ हटके लगता है, लेकिन इसे नापसंद करने वालों की संख्या भी कम नहीं रहेगी। 
 
फिल्म दो भागों में आएगी। अच्छी बात यह है कि पहला भाग एक कंप्लीट फिल्म लगता है और दर्शक खुद को ठगा महसूस नहीं करते कि उन्होंने आधी ही फिल्म देखी है। 
 
फिल्म को बेहतरीन तरीके से शूट किया गया है और एडिटिंग टेबल पर फिल्म को लुक और टेक्सचर दिया गया है। फिल्म के खूब डायलॉग बाजी है। इफ यू थिंक यू आर बैड देन आई एम योअर डैड, हाथ में मछली लेकर मगरमच्छ को पकड़ने के लिए निकले हो लेकिन मगरमच्छ को मछली नहीं हाथ पसंद है जैसे धमाकेदार डायलॉग सुनने को मिलती है।  
 
लार्जर देन लाइफ किरदार में यश बेहद जमे हैं। वे स्टाइलिश लगे हैं। एक्शन बढ़िया किया है और किसी हीरो की तरह नजर आए हैं। श्रीनिधि शेट्टी सहित अन्य कलाकारों के लिए खास स्कोप नहीं था।  
 
केजीएफ में एक्टिंग, एक्शन, डायलॉग, स्वैग, बैकग्राउंड म्युजिक जैसी सभी चीजें बहुत ज्यादा लाउड हैं। स्टाइल और प्रजेंटेशन ही इसे अलग बनाता है।  
 
निर्देशक : प्रशांत नील 
कलाकार : यश, श्रीनिधि शेट्टी अनंत नाग, मौनी रॉय (आइटम नंबर) 
डब * 2 घंटे 36 मिनट 53 सेकंड 
रेटिंग : 2/5 

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