तमाम विवादों के बीच आखिरकार 'मोहल्ला अस्सी' को सिनेमाघर का मुंह देखने का अवसर मिल ही गया है। 6 वर्ष से अटकी यह फिल्म सेंसर बोर्ड की निर्मम कांट-छांट के बाद दर्शकों के सामने आई है। यह फिल्म काशीनाथ सिंह के उपन्यास 'काशी का अस्सी' पर आधारित है।
अक्सर किसी किताब को फिल्मी भाषा में अनुवाद किया जाता है और असर जाता रहता है और यही 'मोहल्ला अस्सी' के साथ हुआ। निर्देशक चंद्रप्रकाश द्विवेदी ठीक से सिनेमा के परदे पर इसे उतार नहीं सके। उन्हें पूरा दोष भी नहीं दिया जा सकता है क्योंकि फिल्म के कई दृश्यों पर बुरी तरह कैंची चलाई गई है। शर्ट का रूमाल बना दिया गया है और इस कारण कुछ दृश्यों का कोई अर्थ ही नहीं निकलता। फिल्म देखते समय यह बात लगातार खटकती रहती है।
कहानी बनारस की है। समय 1988 से शुरू होता है और अगले 5-6 बरस की घटनाएं दर्शाई गई हैं। मोहल्ला अस्सी में ब्राह्मण रहते हैं। धर्मनाथ पांडे (सनी देओल) संस्कृत टीचर है। घाट पर बैठ कर पूजा पाठ भी करता है, लेकिन उसकी आर्थिक हालत दिन पर दिन खराब होती जा रही है। मोहल्ले के अन्य लोग चाहते हैं कि वे अंग्रेजों को पेइंग गेस्ट रख कर पैसा कमाए, लेकिन धर्मनाथ के आगे वे बेबस हैं।
कहानी दो ट्रेक पर चलती है। धर्मनाथ को समय के बदलाव के साथ अपने आदर्श ध्वस्त होते नजर आते हैं तो दूसरी ओर भारत की राजनीतिक परिस्थितियां विचलित कर देने वाली है। मंडल कमीशन और मंदिर-मस्जिद विवाद की गरमाहट उस चाय की दुकान पर महसूस की जाती है जहां भाजपा, कांग्रेस और कम्युनिस्ट विचारधारा के लोग चाय पर चर्चा करते रहते हैं।
इनकी चर्चाएं कहीं-कहीं बोझिल है, ऐसा लगता है ज्ञान पेला जा रहा है तो कहीं-कहीं विचारोत्तेजक लगती है। पार्टियों का नाम लेकर बातें की गई हैं। उद्योगपति और योग कराने वाले बाबा को भी लताड़ा गया है।
इस बात पर भी नाराजगी है कि हर बात का बाजारीकरण कर दिया गया है, चाहे गंगा मैया हो या योग। हर चीज बेची जा रही है। फिल्म में एक जगह संवाद है कि वो दिन दूर नहीं जब हवा भी बेची जाएगी।
इन सब बातों की आंच बनारस के मोहल्ला अस्सी तक भी पहुंच गई है जहां आदर्श चरमरा गए हैं। फिल्म में इस बात को भी दर्शाने की कोशिश की गई है कि ज्ञानी इन दिनों मोहताज हो गया है और पाखंडी पूजे जा रहे हैं। अंग्रेजों की भी खटिया खड़ी की गई है जो बेरोजगारी भत्ता पाकर बनारस में पड़े रहते हैं।
फिल्म में बहुत कुछ कहने की कोशिश की गई है, लेकिन इन सारी बातों को पिरोने वाली कहानी अपील नहीं करती। पहले घंटे तो फिल्म भटकती रहती है। ऐसा लगा रहा है कि सिर्फ सीन जोड़े गए हैं जिनका कहानी से कोई लेना-देना नहीं है। कुछ दृश्य तो फिल्म में क्यों है, ये एक पहेली ही है। दूसरे घंटे में कहानी थोड़ी शक्ल लेती है और फिल्म में दर्शकों की रूचि पैदा होती है।
निर्देशक और लेखक के रूप में चंद्रप्रकाश द्विवेदी फिल्म की लय बरकरार नहीं रख पाए। अधिकांश समय फिल्म भटकती रहती है। कुछ दृश्यों का कोई ओर है ना छोर। फिल्म में कई किरदार आधे-अधूरे लगते हैं। बावजूद इसके कुछ मुद्दे फिल्म जोरदार तरीके से उठाती है। फिल्म में अपशब्दों के बिना भी काम चल सकता था क्योंकि अपशब्दों को रियलिस्टिक लुक देने के लिए रखा गया है, लेकिन ये फिल्म को बनावटी बना देते हैं।
इमोशनल दृश्यों में सनी देओल की अभिनय की चमक दिखती है, लेकिन गुस्से वाले दृश्यों में वे भूल जाते हैं वे 'मोहल्ला अस्सी' कर रहे हैं, 'घायल' नहीं। गालियां देते समय उनकी असहजता साफ देखी जा सकती है।
साक्षी तंवर का अभिनय बेहतरीन है। उनके किरदार के मन के अंदर क्या चल रहा है ये उनके अभिनय में देखा जा सकता है। रवि किशन और सौरभ शुक्ला अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। मुकेश तिवारी, राजेन्द्र गुप्ता और अखिलेन्द्र मिश्रा के लिए ज्यादा स्कोप नहीं था।
कमजोर फिल्मी रूपांतरण और सेंसर की कांट-छांट के कारण फिल्म 'मोहल्ला अस्सी' कहानी के साथ न्याय नहीं कर पाती है।