आम किरदार निभाने वाले कलाकरों को समय-समय पर लार्जर देन लाइफ किरदार निभा कर स्टार बनने का मन करता है। नसीरुद्दीन शाह से लेकर मनोज बाजपेई तक ने अपनी ये मुरादें पूरी की है, लेकिन इन्हें इस तरह के रोल में दर्शकों ने पसंद नहीं किया। अब यह कोशिश राजकुमार राव ने फिल्म मालिक के जरिये की है। इस एक्शन-थ्रिलर मूवी में राजकुमार गैंगस्टर के रोल में हैं सत्ता और अपराध की दुनिया में अपनी धाक जमाना चाहता है।
गैंगस्टर की कहानी के आते ही फिल्मकार 80 और 90 के दशक में पहुंच जाते हैं। मालिक में भी यही हुआ। इस बात पर कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि गैंगस्टर्स का वो चमकीला दौर था, आपत्ति इस बात पर है कि फिल्म का मेकिंग भी 80-90 के दशक में बनने वाली बी ग्रेड फिल्मों जैसा है।
यह एक ऐसे आम आदमी की कहानी है, जो धीरे-धीरे अपराध की दुनिया में कदम रखता है और ताकत के नशे में चूर होता जाता है। शुरुआत में उसका मकसद सिर्फ सत्ता हासिल करना होता है, लेकिन जल्द ही उसकी जिंदगी में खून, धोखा और नियंत्रण की भूख हावी हो जाती है। फिल्म दिखाती है कि कैसे यह शख्स गैंगस्टर बनकर अपराध की दुनिया का 'मालिक' बन जाता है। यह किरदार न सिर्फ सत्ता के लिए लड़ता है बल्कि अपनी पहचान और विरासत को भी स्थापित करने की कोशिश करता है, भले ही इसके लिए उसे किसी भी हद तक जाना पड़े।
'मालिक' की सबसे बड़ी कमजोरी इसकी स्क्रिप्ट है। ऐसा लगता है कि लेखक और निर्देशक इस बात से ही संतुष्ट हो गए कि उन्होंने राजकुमार राव को एक गैंगस्टर के रोल में कास्ट कर लिया। फिल्म का प्लॉट क्लिच से भरा हुआ है जैसे कि 80 और 90 के दशक की बी-ग्रेड गैंगस्टर फिल्मों से सीधे सीन उठा लिए गए हों।
निर्देशक पुलकित फिल्म की गति को संभाल नहीं पाते। कुछ एक्शन सीन जरूर दमदार हैं और सिनेमैटोग्राफी उस दौर का माहौल अच्छी तरह उकेरती है, लेकिन फिल्म का ट्रीटमेंट पुराना और बासी लगता है। एडिटिंग भी ढीली है, जिससे फिल्म की पकड़ बार-बार छूटती है।
फिल्म की शुरुआत थोड़ी दिलचस्प जरूर है, लेकिन जल्द ही यह अपनी दिशा खो देती है। बेमतलब की हिंसा, बिना वजह का मेलोड्रामा और सीन दर सीन उबाऊपन दर्शकों को थका देता है। फर्स्ट हाफ के बाद दर्शक उम्मीद करते हैं कि शायद सेकंड हाफ में कुछ नया होगा, लेकिन वहां तो हाल और भी खराब हो जाता है।
राजकुमार राव ने इस किरदार में पूरी शिद्दत से जान डाली है। एक साधारण युवक से लेकर खून-खराबे में लिप्त बेरहम डॉन बनने की उनकी यात्रा को उन्होंने अपने हाव-भाव और डायलॉग डिलीवरी से प्रभावशाली बनाया है। लेकिन स्टारडम की जो चमक इस किरदार को उठाने के लिए चाहिए थी, वह राव की परफॉर्मेंस में नहीं झलकती।
मानुषी छिल्लर प्रभावित नहीं कर पाईं, हालांकि दोष फिल्ममेकर का भी है कि उन्होंने मानुषी के किरदार को गहराई नहीं दी। प्रसन्नजीत चटर्जी सहित अन्य सहायक कलाकारों ने भी अपने किरदारों को ठीक से निभाया है, लेकिन फिल्म मुख्य रूप से राजकुमार राव के इर्द-गिर्द घूमती है, जिससे अन्य किरदारों को ज्यादा स्क्रीन स्पेस या विकास का मौका नहीं मिल पाता।
फिल्म का गीत-संगीत ठीक है। बैकग्राउंड स्कोर फिल्म के थ्रिल को बढ़ाने में मदद करता है और कई दृश्यों को और भी प्रभावी बनाता है।
मालिक एक गैंगस्टर ड्रामा के तौर पर जितनी संभावनाएं लेकर आती है, उतनी ही तेजी से उन्हें गंवा भी देती है। राजकुमार राव का शानदार अभिनय इस फिल्म को पूरी तरह डूबने से जरूर बचा लेता है, लेकिन कमजोर कहानी और थका देने वाला निर्देशन फिल्म को यादगार नहीं बनने देता।