मेट्रो... इन दिनों रिव्यू: रिश्तों की सच्चाई की दास्तां

समय ताम्रकर

शुक्रवार, 4 जुलाई 2025 (13:11 IST)
अनुराग बसु ने मेट्रो सिटीज़ में रहने के तनाव और वहां की लाइफ स्टाइल का रिश्तों पर पड़ते असर को लेकर वर्ष 2007 में लाइफ इन ए मेट्रो नामक मूवी बनाई थी। 18 वर्ष में काफी बदलाव आ चुके हैं और डेटिंग एप से लेकर तो मेट्रो सिटी तक की रंगत बदल गई है, लिहाजा अब रिश्तों पर क्या असर पड़ रहा है और इसको दर्शाने के ‍लिए अनुराग ‘मेट्रो... इन दिनों’ लेकर आए हैं। 
 
फिल्म का पैटर्न पुरानी फिल्म जैसा है, अलग-अलग कहानियां, जो साथ में चलती हैं। अलग-अलग उम्र के किरदार हैं, जो पर्सनल रिलेशन में आई उठा-पटक से जूझ रहे हैं। हर कहानी में कोई ना कोई रिश्ता अपने संकट से गुजर रहा है। कहीं बेवफाई है, कहीं गलतफहमियां, कहीं अकेलापन, तो कहीं खुद की पहचान की तलाश। 
 
संगीत के जरिये कहानी को आगे बढ़ाया गया है। शहर भी अपना एक मकाम रखते हैं। मुंबई, दिल्ली, कोलकाता और बेंगलुरु को पृष्ठभूमि में रख कर कहानी को दर्शाया गया है। 
 
पुरानी फिल्म से कोंकणा सेन शर्मा ही इसमें नजर आई है। धर्मेन्द्र-नफीसा की बुजुर्ग जोड़ी का स्थान अनुपम खेर-नीना गुप्ता ने ले लिया है तो दूसरी ओर आदित्य राय कपूर, सारा अली खान, पंकज त्रिपाठी जैसे नए कलाकार इस फिल्म का ‍हिस्सा बन गए हैं। 
 
सबसे पहले सामने आती है काजोल घोष (कोंकणा सेन शर्मा) और उसके पति मोंटी (पंकज त्रिपाठी) की जोड़ी। मोंटी की बेवफाई का पता चलते ही काजोल के भीतर का दर्द टीस बन कर उभरता है। कोंकणा की बात और पंकज के कॉमिक एक्सप्रेशन जब मिलते हैं, तो हंसी के साथ-साथ गहरे दर्द का एहसास भी होता है। ‍पिछली फिल्म में इस तरह के ‍किरदार में इरफान खान दिखाई दिए थे, जिन्होंने कमाल की एक्टिंग की थी।  
 
काजोल का संघर्ष उस हर महिला की कहानी कहता है, जो वफा के नाम पर खुद को कुचलने से अब थक चुकी है, लेकिन फिर भी समझौते की जंजीरें तोड़ने से डरती है। फ़िल्म का ये हिस्सा आपको सोचने पर मजबूर कर देगा कि क्या हर गलती माफ की जा सकती है?
 
एक कहानी है श्रुति (फातिमा सना शेख) और आकाश (अली फज़ल) की। अली का किरदार दिखाता है कि जब प्यार के बीच आत्ममुग्धता आ जाए, तो रिश्ता कैसे खटकने लगता है। 
 
तीसरी जोड़ी पेश है शिवानी (नीना गुप्ता) और समीर (शाश्वत चटर्जी) की, जो बरसों की एकरसता में फँस गए हैं। जीवन नीरस हो चला है। शिवानी को फिर से जवानी का झिलमिला एहसास तब होता है, जब वह अपने पहले प्यार परिमल (अनुपम खेर) से मिलती है। 
 
चुमकी (सारा अली खान) एक अच्छी प्रेमिका और पत्नी बनने की कोशिश कर रही है। ट्रैवल ब्लॉगर पार्थ (आदित्य रॉय कपूर) और उसकी मुलाकात नए रंग दिखाती है। 
 
इनमें से कुछ कहानी बहुत अपील करती है, कुछ कमजोर सी लगती है, कोई किरदार बहुत प्रभावित करता है तो कोई किरदार उचित लेखन के अभाव में असर नहीं छोड़ पाता। लेकिन इन सबका धागा एक ही है- प्यार, मोहब्बत और रिश्तों की उलझनें। कच्ची-पक्की होने के बावजूद यह फिल्म इसलिए दर्शकों को पकड़ कर रखती है क्योंकि यह ह्यूमन इमोशंस की परतें खोलते हुई चलती है। 
 
फिल्म की कमजोरियां भी उजागर होती हैं, जब वास्तविकता से हटती हुई प्रतीत होती है, कुछ कैरेक्टर्स अधूरे लगते हैं।, मुंबई और कोलकाता को छोड़ दूसरे शहरों का रंग नहीं दिखता। 162 मिनट लंबी फिल्म में ऐसे लम्हें भी हैं जब बातों को लंबा खींचा गया है और दोहराव नजर आता है। 
 
अनुराग बसु ने 'लाइफ इन अ मेट्रो' और 'लूडो' के अंदाज को मिलाकर एक बार फिर शहरी रिश्तों की थकान, ताजगी और टकराव को बड़े पर्दे पर पेश किया है। मल्टी-स्टोरी नैरेशन, संगीत में डूबी भावनाएं और किरदारों की भीड़ में रिश्तों की सादगी वाली बात यहां भी नजर आती है। 
 
बसु का निर्देशन इन कहानियों को जोड़ता तो है, लेकिन कई बार फिल्म बिखरती हुई महसूस होती है। कुछ हिस्से दिल को छू जाते हैं, तो कुछ अधूरे से लगते हैं। फिर भी फिल्म का टोन काम कर जाता है, जहां मुस्कान, आंसू और यादें साथ चलते हैं।
 
फिल्म की जान है, पंकज त्रिपाठी और कोंकणा सेन शर्मा की जोड़ी। दोनों की केमिस्ट्री, संवादों का तीखापन और अभिनय की सहजता, इस कहानी को सबसे अधिक प्रभावशाली बनाती है। पंकज त्रिपाठी एक ऐसे पति की भूमिका में हैं जो मजाकिया, गलती करने वाला और फिर पश्चाताप से घिरा है। वहीं कोंकणा एक मजबूत महिला के किरदार में हैं जो अपनी मां की परछाईं से निकलकर खुद के लिए सही फैसला लेना चाहती है।
 
नीना गुप्ता और अनुपम खेर की उम्रदराज प्रेम कहानी एक अलग ही नज़रिया देती है, जहां उम्र भले ही बढ़ जाए, लेकिन दिल को धड़कने के लिए कोई समयसीमा नहीं चाहिए।
 
सारा अली खान और आदित्य रॉय कपूर की जोड़ी में ताजगी है। खासकर सारा की एक्टिंग पहले से बेहतर नजर आती है। अली फजल और फातिमा सना शेख की कहानी थोड़ी कमजोर लगती है, लेकिन फातिमा का दर्द दर्शक तक पहुंचता है।
 
फिल्म का संगीत प्रीतम के जरिए एक बार फिर जान डालता है। धुनें कहानी के भीतर बहती हैं और कई बार भावनाओं को शब्दों से बेहतर तरीके से बयां करती हैं। 
 
यह फिल्म परफेक्ट न हो, लेकिन यह रिश्तों की असलियत और प्यार की जद्दोजहद के बारे में सच्ची बातें कहती है। 

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