विशाल भारद्वाज की पिछली फिल्म 'हैदर' में उन्होंने कश्मीर मुद्दे की पृष्ठभूमि पर एक प्रेम कहानी को दिखाया था। अपनी ताजा फिल्म 'रंगून' में विशाल ने 1943 का समय चुना है जब ब्रिटिश, हिटलर से मुकाबला कर रहे थे। भारत में आजादी की लड़ाई जोरों पर थी। गांधी आजादी मांग रहे थे तो बोस आजादी छीनना चाहते थे। उस दौर की पृष्ठभूमि पर एक प्रेम त्रिकोण की बुनावट की गई है।
सशक्त ड्रामा हमेशा से विशाल की फिल्मों की खासियत रहा है। कई उतार-चढ़ाव और उपकहानियों के रेशों को वे मूल कहानी के साथ मजबूती से जोड़ते हैं, लेकिन 'रंगून' में यह बुनावट रंग नहीं ला पाई। कई चीजों को उन्होंने समेटने की कोशिश की है, लेकिन इसका समग्र प्रभाव असरकारी नहीं है।
मेरी एन इवांस, जिन्हें फीयरलेस नाडिया के नाम से जाना जाता है, ने भारतीय फिल्मों की शुरुआत में कई महिला प्रधान फिल्में की। उनके हैरत अंगेज स्टंट्स के दर्शक दीवाने थे। इस पर विशाल ने फिल्म बनाने की इच्छा जताई थी, लेकिन किसी कारण से वे इसे मूर्त रूप नहीं दे सके।
नाडिया से प्रेरित किरदार उन्होंने 'रंगून' में रखा है, जिसे कंगना रनौट ने अभिनीत किया है। जूलिया फिल्म अभिनेत्री हैं जिनके दर्शक दीवाने हैं। फिल्म स्टुडियो के मालिक रूसी बिलीमोरिया के साथ वे शादी करने वाली हैं। रूसी से जूलिया शायद इसलिएए प्यार करती है क्योंकि वह उसके एहसानों तले दबी है। रूसी ने जूलिया को एक हजार रुपये में खरीदा था और उसे बड़ा स्टार बना दिया।
भारत-बर्मा सीमा पर लड़ाई चल रही है और अंग्रेज ऑफिसर्स चाहते हैं कि जूलिया को सैनिकों के मनोरंजन के लिए वहां भेजा जाए। नवाब मलिक (शाहिद कपूर) अंग्रेजों की सेना में है और उसे जूलिया का अंगरक्षक बनाया जाता है। जूलिया जब सीमा पर पहुंचती है तो अचानक जापानी हमला कर देते हैं। जूलिया और नवाब अपने दल से बिछड़ जाते हैं और उसी दौरान दोनों में इश्क हो जाता है। जूलिया को ढूंढते हुए रूसी वहां आ जाता है। नवाब के बारे में जूलिया को एक ऐसी सच्चाई मालूम पड़ती है जिससे उसकी सोच बदल जाती है।
रंगून की सबसे कमजोर कड़ी कहानी है। प्यार और युद्ध दोनों अलग-अलग चीजें हैं, लेकिन कई बार युद्ध में प्यार होता है और प्यार में युद्ध। दोनों में षड्यंत्र और धोखे का भी समावेश हो जाता है। दोनों बातों को जोड़ने की कोशिश 'रंगून' में की गई है, लेकिन लेखन की कमजोरी उभर कर सामने आती है।
फिल्म के पहले हाफ में जूलिया और नवाब के इश्क पर खासे फुटेज खर्च किए गए हैं, लेकिन यह प्रेम कहानी अपील नहीं करती। दोनों के बीच इश्क की आग भड़काने के लिए कई सिचुएशन बनाई गई, लेकिन यह महज चिंगारियां बन पाई। अतिरिक्त प्रयास साफ नजर आते हैं। दूसरे हाफ में नवाब वाला ट्विस्ट ऐसा नहीं है कि दर्शक चौंक जाए।
रंगून की मूल कहानी प्रेम त्रिकोण है जो फिल्म में कही भी उभर कर सामने नहीं आती। इसके इर्दगिर्द बुनी गई स्वतंत्रता की लड़ाई, गांधी और बोस की विचारधारा में अंतर और आजाद हिंद फौज वाला एंगल भी सतही है। क्लाइमैक्स में जो जूलिया से करवाया गया है वो बहुत ही फिल्मी हो गया है।
स्क्रिप्ट की कमजोरी के बावजूद यदि फिल्म दर्शकों को थाम कर रखती है तो इसका श्रेय विशाल भारद्वाज के निर्देशन और मुख्य कलाकारों के अभिनय को जाता है। विशाल आक्रामकता के साथ कहानी को प्रस्तुत करते हैं और रंगून में भी उन्होंने ऐसा ही किया है। गीत और नृत्य के सहारे उन्होंने कहानी को आगे बढ़ाया है।
दर्शकों की समझ पर विशाल बहुत कुछ छोड़ते हैं। जैसे एक सीन में रूसी और जूलिया, हिमांशु राय और देविका रानी के बारे में बात करते हैं। हिमांशु और देविका को बमुश्किल पांच प्रतिशत दर्शक जानते होंगे। चर्चिल और हिटलर वाला प्रसंग भी दर्शकों के समझदार होने की मांग करता है। पात्रों को त्रीवता के साथ उन्होंने पेश किया है जो उनकी खासियत भी है।
तीनों मुख्य किरदारों में सैफ अली खान का किरदार सबसे कमजोर लिखा गया है। प्रेम त्रिकोण में उन्हें खलनायक बनाने की कोशिश की गई है, लेकिन पूरी फिल्म में कहीं भी दर्शकों को उनसे नफरत नहीं होती। उनका अभिनय भी औसत रहा है। शाहिद कपूर ने नवाब के किरदार में जान डाल दी है। वे एक सैनिक की तरह लगे हैं। कंगना रनौट सब पर भारी रही हैं। जूलिया के रूप में वे नकचढ़ी लगी हैं, जिसे प्यार धीरे-धीरे बदल देता है। उनकी अभिनय प्रतिभा को देखते हुए कई सीन उनके लिए फिल्म में रचे गए हैं।
फिल्म की सिनेमाटोग्राफी तारीफ के काबिल है। पंकज कुमार के एरियल शॉट्स फिल्म को अलग लुक देते हैं। विशाल द्वारा संगीतबद्ध गाने भले ही हिट न हो, लेकिन कहानी को आगे बढ़ाने का काम करते हैं। फिल्म के वीएफएक्स कमजोर है, जिसके कारण कुछ दृश्य नकली लगते हैं।
विशाल भारद्वाज के सिनेमा से जो उम्मीद रहती है 'रंगून' उस पर खरी नहीं उतरती।